आलोचना नहीं, आत्मावलोकन

शुद्ध हिंदी की खोज करना जैसे आकाश कुसुम की खोज करना है. शुद्ध हिंदी का कोई मानक सर्वमान्य रूप से तय नहीं है. बहुत संभव है कि जिसे हम अशुद्ध हिंदी कहते हैं, वह आंचलिक हिंदी हो उन क्षेत्रीय स्रोतों से जल ग्रहण कर रही हो, जो हिंदी को अमृत देते हैं.

By सुरेश पंत | July 28, 2022 9:28 AM
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मीडिया की भाषा की समस्या केवल हिंग्लिश के अंधाधुंध प्रयोग ही नहीं है, उसके कुछ अन्य आयाम भी हैं. समाचार पत्रों व अन्य माध्यमों में दोषपूर्ण अनुवाद के अनेक उदाहरण मिलते हैं. अनुवाद में सरल, तद्भव और प्रचलित देशज शब्दों के स्थान पर तत्सम शब्दावली के प्रति आग्रह के कारण अखबारों की भाषा कठिन और बोझिल हो जाती है. वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली के कोशीय अनुवाद ही लेना आवश्यक नहीं है. यदि पारिभाषिक शब्द अंग्रेजी या अन्य भारतीय भाषा का अधिक प्रचलित है तो कोशीय अनुवाद के स्थान पर लोक प्रचलित शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिए.

कभी कुछ सामयिक महत्व के शब्द भी चल पड़ते हैं तो उन्हें शुद्धता में लपेटने के लालच में भ्रष्ट कर दिया जाता है, जैसे डिमॉनेटाइजेशन के लिए नोटबंदी अच्छा शब्द बना था. शुद्धतावादियों ने इसे विमौद्रीकरण, विमुद्रीकरण, विमुद्रिकीकरण आदि बना दिया. अब मॉनेटाइजेशन के लिए भी मौद्रिकीकरण, मुद्रीकरण आदि चलाये रहे हैं. इसी प्रकार समाजीकरण- समाजिकीकरण, सशक्तिकरण- सशक्तीकरण आदि का भ्रम भी देखा जाता है. हिंदी व्याकरण के मनमाने प्रयोग देखे जा सकते हैं. कुछ तो संस्कृत से आये शब्दों की बनावट को नहीं समझने से होते हैं. इन्हें क्षम्य माना जा सकता है, किंतु कुछ रिपोर्ट या टिप्पणी लिखने वालों की नासमझी से भी. ‘रहस्यमयी’, ‘गरिमामयी’ जैसे विशेषण का प्रयोग किसी के लिए भी कर दिया जाता है, बिना इस नियम को जाने कि हिंदी में विशेषण लिंग नहीं बदलते. यदि किसी तत्सम शब्द के साथ यह विशेषण जोड़ भी रहे हों तो पुल्लिंग के साथ स्त्रीलिंग विशेषण कैसे जोड़ सकते हैं. ये उदाहरण केवल एक झलक पेश करते हैं.

संवाददाता या समाचार संस्था की अप्रतिबद्धता और निर्वैयक्तिकता जताने के लिए भाषा में कर्मवाच्य का प्रयोग किया जाता है, पर इसके लिए सदा ‘के द्वारा’ जोड़कर कर्मवाच्य में लिखे गये वाक्य रूखे, उबाऊ और लंबे होते हैं. किए जाने, लिए जाने और दिए जाने जैसे प्रयोग करने पड़ते हैं.‘के द्वारा’ वाले वाक्य के स्थान पर केवल ‘ने’ वाक्य से काम चल सकता है, जैसे ‘अमुक के द्वारा कहा गया’ के लिए ‘अमुक ने कहा’ पर्याप्त है. इस प्रकार छोटे और सरल वाक्य बनते हैं. पाना, लेना, देना जैसी सरल क्रियाओं की जगह प्राप्त करना, ग्रहण करना, दान करना जैसी दुहरी क्रियाओं के प्रयोगों की क्या आवश्यकता है? अनुवाद से जुड़ी एक अन्य समस्या है- दूसरी भाषा के शब्दों (प्रायः व्यक्ति नामों) को हिंदी में रूपांतरित करके बोलना या लिखना. समाचार-एजेंसियों से मूल समाचार अंग्रेजी में प्राप्त होते हैं और प्रायः उन्हें अंग्रेजी उच्चारण के आधार पर लिपि बदलकर लिख दिया जाता है. जैसे- निर्मला सीतारमन ‘सीतारमण’ हो जाती हैं, फड़नबीस – ‘फड़ नबिस’, सौरव गांगुली – ‘सौरभ गांगुली’, अर्जन सिंह- ‘अर्जुन सिंह’, सबरी मलै – ‘शबरी मलाई’, जो बाइडन – ‘जो बिडेन’, गोटाबया – ‘गोताबाया’. ऐसे अनेक उदाहरण देखने-सुनने को मिलते हैं. जिन शब्दों के बारे में निश्चय न हो उन्हें प्रकाशित करने से पूर्व मूल स्रोत से मिलाकर विश्वसनीय बनाने का कष्ट कोई नहीं करता. मीडिया में हिंग्लिश संक्रामक रोग की तरह फैल रही है, किंतु इसके लिए उसे कोसने या उसके लिए रुदाली गाते हुए हम उन कारणों को अनदेखा करते हैं जो इसके लिए जिम्मेदार हैं. मैं उस मनोवैज्ञानिक कारण की चर्चा नहीं करूंगा जिससे पीड़ित कुछ मीडियाकर्मी अपनी हीन भावना को दबाने की गरज से अंग्रेजी का प्रयोग कर रहे हैं और हिंदी को अंग्रेजी बनाने पर तुले हुए हैं. विद्यालयों, विश्वविद्यालयों में हिंदी की दक्षता पर कोई जोर ही नहीं दिया जाता. परिणाम यह है कि मीडियाकर्मियों की भाषिक दक्षता अपर्याप्त होती है.

कुछ दशक पहले कुछ विश्वविद्यालयों ने अनुप्रयुक्त हिंदी या प्रयोजनी हिंदी के नाम से पाठ्यक्रम प्रारंभ किये थे, किंतु ये भाषा वर्तनी की कुशलता नहीं दे पाये. व्यावहारिक रूप से टिप्पणी या सारलेखन तक की दक्षता नहीं सिखायी जाती. विश्वविद्यालयों से उपाधि प्राप्त स्नातकों और परास्नातकों को अक्सर इस बात का बुनियादी ज्ञान भी नहीं होता कि भाषा को संप्रेषणीय बनाने के लिए क्या किया जाना चाहिए? हिंदी विभागों और हिंदी के व्यावहारिक रूप में फासला बना रहता है. इस प्रकार की पृष्ठभूमि से वार्षिक दक्षता की दृष्टि से अर्धशिक्षित, अर्धकुशल लोग जब व्यवसाय में आते हैं तो वहां भी उन्हें कोई मार्गदर्शक नहीं मिलता. वे पाते हैं कि मीडिया संस्थानों की कोई स्थिर भाषा नीति नहीं है और प्रत्येक व्यक्ति अपने ढंग से भाषा का प्रयोग कर रहा है तो वे भी उसी का अंग बन जाते हैं.

लेखन में, विशेषकर पत्रकारीय लेखन में, शुद्ध हिंदी की खोज करना जैसे आकाश कुसुम की खोज करना है. शुद्ध हिंदी का कोई मानक सर्वमान्य रूप से तय नहीं है. बहुत संभव है कि जिसे हम अशुद्ध हिंदी कहते हैं, वह आंचलिक हिंदी हो उन क्षेत्रीय स्रोतों से जल ग्रहण कर रही हो, जो हिंदी को अमृत देते हैं. हिंदी के इतने विविध स्वरूप हैं कि किसी एक को शुद्ध कहना तर्कसंगत नहीं है, फिर भी जहां तक संभव हो, एक स्थिर और स्वीकार्य रूप तो अपनाया ही जाना चाहिए. इस दिशा में मानक हिंदी के कुछ नियम सहायक हो सकते हैं और समर्थ पत्रकार अपनी बुद्धि और लेखनी से भी बहुत कुछ कर सकते हैं. समय निराश होने का नहीं है. अपनी क्षमताओं को पहचान कर एक निश्चित उद्देश्य से आगे बढ़ने का है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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