हिंदी साहित्य का यह दुर्भाग्य है कि इसके इतिहास में स्त्रियों के लेखन को लेकर एक शातिराना मौन व उपेक्षा का भाव है. साहित्य इतिहास लेखन का पैटर्न ही इस तरह निर्मित किया गया है कि स्त्री का लिखा बहिष्कृत होने के लिए अभिशप्त है. बहिष्कृति के सूक्ष्म और स्थूल कई स्तर हैं. गलती से अगर शामिल कर लिया गया, तो नामोल्लेख करके छोड़ दिया गया है.
उषा देवी मित्रा ऐसी ही एक लगभग भुला दी गयी लेखिका रही हैं, जिनका लेखन गर्दो-गुबार से ढककर लगभग ओझल बना दिया गया है, जबकि उन्होंने लिखा है और खूब लिखा है. उनके लगभग आठ उपन्यास और सात से ज्यादा कहानी संकलन प्रकाशित हुए. वे मूलतः बांग्ला से हिंदी में आयी थीं. बांग्ला के प्रतिष्ठित पत्रों- ‘प्रवासी’, ‘भारतवर्ष’ , ‘वसुमति’, ‘पंचपुष्प’ आदि में वे खूब छपीं. सबसे पहले वे ‘हंस’ में छपीं. हिंदी में उन्हें ‘विश्वमित्र’ मासिक ने निरंतर छापा.
इसके अलावा भी वे अन्य पत्र-पत्रिकाओं में लेखन करती रहीं. अक्सर हम समसामयिक उपेक्षा से त्रस्त होकर यह सांत्वना देते पाये जाते हैं कि निरंतर लेखन अपने आप उपस्थिति को मनवा लेगा. लेकिन उषा देवी मित्रा के साथ ऐसा नहीं हुआ. कुछ साहित्येतिहास की पुस्तकों में उनका नामोल्लेख तो है, लेकिन बस नामोल्लेख ही है. वे सामान्य परिवार से नहीं थीं. उनके साथ उनके परिवार की साहित्यिक विरासत थी.
बांग्ला के सुप्रसिद्ध लेखक सत्येंद्र नाथ दत्त इनके मामा थे और कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर इनके दादू (बाबा) थे. उषा देवी मित्रा का जन्म 1897 में जबलपुर में हुआ था. उनके पिता हरिश्चंद्र दत्त ख्यात वकील थे. साहित्य और संगीत में उनकी रुचि थी. परिवार में उस समय के समाज में व्याप्त कुप्रथाओं जैसे- बाल विवाह, स्त्री अशिक्षा आदि का बोलबाला था, पर शिक्षित पिता ने अपनी पुत्री की शिक्षा की समुचित व्यवस्था की.
इनकी माता सरोजिनी दत्त परंपरागत महिला थीं. लगभग 13-14 वर्ष की किशोरावस्था में क्षितिजचंद्र मित्रा से उषा देवी का विवाह हुआ. क्षितिजचंद्र ने विदेश जाकर इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग में उच्च शिक्षा हासिल की थी. उषा देवी का निजी जिंदगी कष्टों और मृत्यु की शोक पत्रिका रही. कुछ ही वर्षों के अंतराल में सद्यजात पुत्र, बहन, भाई और पति की मृत्यु हुई. वर्ष 1919 में जब उनके पति की मृत्यु हुई, तो उस समय उषा जी गर्भवती थीं, उसी वर्ष उनकी दूसरी पुत्री का जन्म हुआ.
उस समय बंगाली संभ्रांत परिवार में असमय वैधव्य किसी अभिशाप से कम नहीं था. इस शोक की घड़ी में उनका सहारा अध्ययन और लेखन बना. उन्होंने कलकत्ता और शांतिनिकेतन में कुछ समय बिताया. उन्होंने शांतिनिकेतन में कुछ वर्ष रहकर संस्कृत की शिक्षा अर्जित की. शारीरिक रूप से वह बहुत स्वस्थ नहीं रहीं.
बाल विवाह, आठ-नौ महीने के पुत्र की मृत्यु, असमय वैधव्य- उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएं थीं. उनकी लंबी बीमारियों के लिए इन परिस्थितियों ने खाद-पानी नहीं जुटाया होगा, ऐसा कहना मुश्किल है. बंगाली भद्रलोक की घरेलू स्त्रियों के जीवन के संबंध में रवींद्रनाथ की याद आती है. उन्होंने लिखा है कि इन घरेलू स्त्रियों का अंतःपुर कीमती और खूबसूरत पश्मीने की चादर का उल्टा हिस्सा है, जो सामने के हिस्से के ठीक उलट बेहद कुरूप और कुत्सित होता है.
उषा देवी के लिए लेखन जैसे जीवन को पुनः हासिल करने, जीने लायक और मानीखेज बनाने का जरिया बन गया. स्त्री केवल इसलिए नहीं लिखती कि उसे लिखना है, सामाजिक उपलब्धि हासिल करनी है, यश कमाना है, प्रशंसा-अनुशंसा प्राप्त करनी है. स्त्री लिखती इसलिए है कि उसे जीना है. अपने को भाषा और अभिव्यक्ति के माध्यम से पाना है. उस दुनिया की मीमांसा करनी है, जिसमें उसके लिए जगह नहीं.
नवजागरण काल में अंग्रेजी सत्ता के समक्ष अपने को श्रेष्ठ बताने के लिए समाज में स्त्रियों की दशा को सुधारना जरूरी था. सात-आठ साल में बच्चियों का ब्याह कर और फिर अकाल विधवाओं को सती कर कोई जाति अंग्रेजों की संस्कृति से अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ नहीं बता सकती थी. िवदेशियों के आगमन और यहां सत्ता कायम करने से हिंदुस्तानियों को बड़ा सांस्कृतिक झटका लगा. राजनीतिक पराधीनता के बावजूद सांस्कृतिक श्रेष्ठता का अपना तामझाम खड़ा करने के लिए जरूरी था कि स्त्रियों की सामाजिक दशा में सुधार लाया जाए और उन्हें भी सांस लेने की जगह मुहैया हो, इसका ख्याल किया जाए.
अपने उपन्यासों और कहानियों में भी उन्होंने धर्म के रूढ़ रूप का विरोध किया है, जो स्त्री के दमन और शोषण पर अवलंबित है. ‘देवदासी’ कहानी इसका उदाहरण है. स्त्री जीवन की त्रासदियों को अधिकतर पूर्व जन्म के कर्मों का फल और भाग्यवाद से जोड़ दिया जाता है, लेकिन उषा देवी ऐसा नहीं मानतीं. वे उसके सामाजिक कारणों की पड़ताल में जाती हैं. उनकी कहानियों में समाज में स्त्री की वैविध्यपूर्ण छवियां उभरती हैं. शिक्षित, अशिक्षित, विधवा, विवाहिता स्त्रियां उनकी रचनाओं में हैं.
स्त्री जीवन की विभिन्न मनोदशाओं, अवसाद और खिन्नता के चित्र हैं. समसामयिक राजनीति और आंदोलनों का प्रभाव भी उषा देवी की रचनाओं पर गहरे पड़ा है. परतंत्रता को, वह चाहे स्त्री की हो या राष्ट्र की, वे घृणा के काबिल मानती हैं. संगीत की ज्ञाता होने के कारण संगीतशास्त्र की पृष्ठभूमि में उन्होंने अनुपम कहानियां लिखी हैं. ‘प्रथम छाया’ और ‘वह कौन था’ जैसी कहानियों में इसे देखा जा सकता है. स्त्री अस्मिता की खोज की कहानियों में ‘खिन्न पिपासा’, ‘चातक’, ‘मन का यौवन’, ‘समझौता’ जैसी कहानियों को पढ़ा जा सकता है.