परिणामों के कई मायने
परिणामों के कई मायने
राम बहादुर राय
वरिष्ठ पत्रकार
हार में अगर एनडीए एकजुट होकर चुनाव लड़ता, तो चुनाव परिणामों में उसकी स्थिति और बेहतर नजर आती. लोक जनशक्ति पार्टी के अलग होकर चुनाव लड़ने की वजह से दोनों को नुकसान हुआ है. रुझानों से स्पष्ट है कि एनडीए की रणनीति कारगर रही है. इस बात का पहले से ही अनुमान था कि भाजपा इस चुनाव में बढ़त हासिल कर सकती है,
यानी उसकी सीटें पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार बढ़ेंगी. हालांकि, भाजपा ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जायेगा और उन्हीं के ही नेतृत्व में सरकार बनेगी. वास्तव में चुनाव बिल्कुल एक युद्ध जैसा होता है. अगर आपकी फौज मजबूत है और उसकी पूरी तैयारी है, अगर उसमें कोई शल्य की भूमिका में नहीं है,
तो जीत आपके लिए आसान हो जाती है. एनडीए के साथ इस बार चिराग पासवान ने गलत अनुमान लगाया था. उनकी जिस तरह से सभाएं हो रही थीं और वे जिस तरह से मुखर थे, लोगों को यही लगा कि वे बहुत बड़ी ताकत के रूप में उभरेंगे. लेकिन, ऐसा हो नहीं पाया. अभी तक रुझानों से स्पष्ट है कि उनकी भूमिका महागठबंधन को मदद करने की तरफ चली गयी. चिराग को यह बात समझनी चाहिए थी.
चिराग जिस राजनीति के उत्तराधिकारी हैं, वहां प्रतिद्वंद्विता की स्थिति पहले से ही रही है. खासकर 1999 के बाद से पासवान और नीतीश की प्रतिद्वंद्विता पहली बार खुलकर सामने आयी है. जब दोनों एनडीए में शामिल हुए, तो जॉर्ज फर्नांडीस चाहते थे कि रामविलास पासवान और नीतीश कुमार दोनों एकजुट रहें. हालांकि, बाद में जनता दल (यू) बना. पासवान उससे अलग हो गये.
दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें बिहार से दोनों पार्टियों के लोग आये. जदयू में समता पार्टी का विलय कर दिया गया. हालांकि, एकाध लोग इधर-उधर हो गये. अंतत: पासवान उससे निकल गये. बाद में मैंने जॉर्ज फर्नांडीस से पूछा कि आखिर ऐसा क्यों हुआ.
वे कहने लगे कि मैं नीतीश और पासवान से बात कर रहा था और यही चाहता था कि एक व्यक्ति केंद्र की राजनीति में आये और दूसरा राज्य की राजनीति में रहने का निर्णय करे. जॉर्ज चाहते थे कि नीतीश कुमार अच्छे मुख्यमंत्री साबित होंगे, वे बिहार चले जायें. अगर बिहार नहीं भी जाते हैं, तो मंत्री पद के लिए कोशिश न करें. परंतु, समझौता नहीं हो सका. बाद में दोनों मंत्री भी बने. यह पुरानी प्रतिद्वंद्विता है. अपने बारे में ये खुशफहमी भी रखते हैं. इसी वजह से चिराग ने ऐसा फैसला किया और इसका नुकसान उनकी पार्टी को हुआ और एनडीए को भी.
बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार की लोकप्रियता अन्य नेताओं से अधिक रही है. सवर्ण मतदाताओं और उनके सहयोगी रहे लोगों को मुंगेर प्रकरण के बाद एक संदेश गया है कि पहले चरण के बाद एनडीए कमजोर पड़ रहा है. यह हवा बन गयी है कि पहले चरण के मतदान में महागठबंधन आगे निकल गया है. हालांकि, मुंगेर की घटना प्रशासनिक विफलता और राजनीतिक प्रबंध में कमी के कारण घटित हुई थी. उस घटना को टाला जा सकता था. अगर वह घटना नहीं होती, तो उतना नुकसान नहीं होता.
बिहार में भाजपा का जो उभार दिख रहा है, वह राज्य के नेतृत्व की वजह से नहीं है. भाजपा के पास बिहार से कई योग्य नेता हैं. लेकिन भाजपा का दुर्भाग्य है कि उनमें से राज्य स्तर पर सक्रिय ऐसा कोई नेता नहीं है, जो पूरे राज्य का प्रतिनिधित्व करता हो. इसलिए, इस चुनाव में भाजपा को जो भी बढ़त मिली है, उसमें प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता सबसे बड़ा कारण रही है. प्रधानमंत्री को लोकप्रियता के कारण ही एनडीए सरकार बनाने की स्थिति में नजर आ रहा है.
मुझे लगता है कि चुनावी पंडितों का ज्योतिष इस समय गड़बड़ाया हुआ है. यह विश्व व्यापी घटना बन रही है, क्योंकि अमेरिका के चुनावों में भी जो भविष्यवाणी की गयी थी, वह गलत साबित हुई है. वाशिंगटन पोस्ट और न्यूयॉर्क टाइम की रिपोर्टिंग और वहां के चुनावी पंडितों के आकलन को देख रहा हूं. न्यूयॉर्क टाइम के एक स्तंभकार ने लिखा कि ट्रंप जीतेंगे, तो क्या-क्या नुकसान होनेवाले हैं.
अब वही सज्जन चुनाव के सबक के बारे में लिख रहे हैं. कुल मिलाकर आपका अनुमान तो गलत निकला. जो अमेरिका में हुआ, वही बिहार में भी हुआ. एक्जिट पोल भी गलत साबित हो रहे हैं. चाणक्य पोल ने महागठबंधन को दो तिहाई से भी अधिक बहुमत दे दिया था. मैं पहले भी कहता रहा हूं कि चुनाव की भविष्यवाणी करने का जो विज्ञान है, वह फुलप्रूफ नहीं है.
क्योंकि लोगों की निजता भी कोई चीज होती है. वे चाहते हैं कि वोट देकर दूसरे को इसके बारे में क्यों बतायें. इसलिए कहा जा सकता है कि मतदाता अब अधिक जागरूक हुआ है. एनडीए की सरकार बिहार में बनती है, तो बिहार के मतदाताओं ने यह निर्णय लिया है. जनता का ही फैसला ही सर्वोपरि है. (
posted by : sameer oraon