विरोध का अधिकार कर्तव्य से परे नहीं

हम विरोध प्रदर्शन करें, आंदोलन करें, लेकिन ध्यान रखें कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाये रखना भी हमारा ही दायित्व है़

By अवधेश कुमार | February 19, 2021 6:45 AM

अवधेश कुमार

वरिष्ठ पत्रकार

awadheshkum@gmail.com

उच्चतम न्यायालय ने शाहीनबाग मामले में दिये अपने फैसले के विरुद्ध दायर पुनर्विचार याचिकाओं को खारिज करते हुए जो कुछ कहा है, वह काफी महत्वपूर्ण है़ शाहीनबाग धरना मामले में उच्चतम न्यायालय ने सात अक्तूबर, 2020 को फैसला देते हुए कहा था कि लोकतंत्र और असंतोष साथ-साथ चलते है़ं हम शांतिपूर्ण प्रदर्शन के अधिकार की हिमायत करते हैं, लेकिन प्रदर्शन मनमाने ढंग से नहीं कर सकते़ वस्तुतः इस फैसले में सड़कों व सार्वजनिक स्थानों को घेर कर लंबे समय तक धरना-प्रदर्शन और आंदोलन करने को संवैधानिक व लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन बताया गया था़ इसके विरुद्ध एक दर्जन लोगों ने याचिका दायर कर पुनर्विचार की अपील की थी़

न्यायालय ने कहा है कि उस फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं है़ न्यायालय ने टिप्पणी की है कि कुछ प्रदर्शन स्वतःस्फूर्त हो सकते हैं, लेकिन लंबे समय तक प्रदर्शन के लिए सार्वजनिक स्थानों पर कब्जा नहीं किया जा सकता, जिससे दूसरे के अधिकार प्रभावित हो़ं न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की तीन सदस्यीय पीठ ने स्पष्ट कहा है कि हमने पहले के न्यायिक फैसलों पर गौर किया और पाया कि प्रदर्शन करने और असहमति व्यक्त करने का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन उसमें कुछ कर्तव्य और बाध्यताएं भी है़ं

इसमें यह भी कहा गया है कि विरोध का अधिकार कभी भी और हर जगह नहीं हो सकता है़ दरअसल, कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे आंदोलन पर उच्चतम न्यायालय के नरम रुख का संदर्भ देते हुए याचिकाएं डालीं गयी थी़ं याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि मौलिक अधिकारों की संवैधानिक गारंटी समान है, इसलिए कृषि कानूनों की याचिकाओं के साथ समीक्षा याचिका को भी नत्थी करें, ताकि मौलिक सुनवाई का मौका मिल सके़ न्यायालय ने इसका उत्तर देते हुए कहा कि हम इस स्तर पर विचार कर रहे हैं कि किसानों द्वारा किये जा रहे शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन को बिना बाधा के पुलिस द्वारा जारी रखने की अनुमति दी जानी चाहिए़

यदि याचिकाओं को खारिज करने के फैसले के साथ की गयी टिप्पणियों और सात अक्तूबर, 2020 के फैसले को साथ मिला कर देखें, तो आंदोलनकारियों व प्रशासन सबके लिए इसमें मर्यादित और लोकतांत्रिक व्यवहार के सूत्र निहित है़ं कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे वर्तमान आंदोलन के संदर्भ में भी यह प्रासंगिक है और भविष्य में होने वाले आंदोलनों के लिए भी़ न्यायालय ने कहा था कि असहमति के लिए प्रदर्शन निर्धारित स्थलों पर किया जाए.

शाहीनबाग प्रदर्शन के समय से यह सवाल पूरे देश में उठता रहा है कि यदि लोग मुख्य मार्गों पर कब्जा करके लंबे समय तक बैठ जाएं, तो उनके साथ प्रशासन और आम जनता कैसा व्यवहार करे? कृषि कानूनों के विरोध में चल रहे आंदोलन का भी यह नकारात्मक पक्ष है कि तीनों स्थलों पर मुख्य मार्ग बाधित हो रहे है़ं

शाहीनबाग फैसले को आधार बनाएं, तो न्यायालय ने स्पष्ट कहा था कि प्रदर्शन के नाम पर आम जनता के इस्तेमाल से जुड़े मार्गों व स्थानों पर अनिश्चितकाल के लिए कब्जा नहीं किया जा सकता़ यदि सार्वजनिक स्थान पर कब्जा किया जाता है, तो यह प्रशासन का दायित्व है कि वह इसे कब्जामुक्त कराए.

वास्तव में न्यायालय की मुख्य भूमिका हमारे- आपके संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की है़ जब हमारे संवैधानिक अधिकारों पर किसी तरह का अतिक्रमण होता है, उस समय न्यायालय ही साथ खड़ा हो सकता है़ फैसलों में भी न्यायालय ने अपनी इस भूमिका को स्वीकार किया है़ तभी तो वह आंदोलन व धरना-प्रदर्शन के अधिकार को स्वीकार करता है, लेकिन हर अधिकार के साथ कर्तव्य निहित होते है़ं

यदि हमारे अधिकार दूसरों के अधिकारों को बाधित करने लगें, तो फिर इसकी संवैधानिकता पर प्रश्न खड़ा होगा़ आम नागरिकों के समान ही प्रशासन और सरकार के भी संवैधानिक अधिकार और दायित्व है़ं लोकतंत्र का तकाजा यही है कि इन सबके बीच संतुलन और समन्वय कायम रहे़ हम शासन के किसी फैसले के विरुद्ध असंतोष प्रकट करते हैं, तो ध्यान रखना चाहिए कि दूसरों के अधिकार बाधित न हों, उनके कर्तव्य पालन में समस्याएं खड़ी न हो़ं दुर्भाग्य से, हाल के अनेक आंदोलनों में इन दायित्वों के प्रति सजगता नहीं देखी गयी है़

प्रशासनों ने विरोध-प्रदर्शन के स्थल निर्धारित कर रखें है़ं कृषि कानून विरोधी वर्तमान आंदोलन के लिए भी सरकार ने निरंकारी मैदान निर्धारित किया था, लेकिन उसे स्वीकार नहीं किया गया़ जब हम निर्धारित स्थान स्वीकार नहीं करते हैं, तो समस्याएं पैदा होती है़ं निर्धारित स्थल पर आंदोलन करने से प्रशासन को वहां सुरक्षा के साथ अन्य आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराने में आसानी होती है और आंदोलनकारियों को असुविधाओं का कम सामना करना पड़ता है़ न्यायालय ने आंदोलनों के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी, जिसकी ओर बहुत कम लोगों का ध्यान गया़

न्यायालय ने कहा था कि अंग्रेजी हुकूमत के दौरान विरोध-प्रदर्शन के जो तौर-तरीके थे, वे स्वशासित लोकतंत्र में सही नहीं ठहराये जा सकते़ प्रदर्शन मनमाने ढंग से नहीं किया जा सकता़ दिक्कत यही है कि अनेक मामलों में आंदोलनकारी मानने लगते हैं कि कहीं भी, किसी समय, किसी तरीके से किया जा रहा विरोध प्रदर्शन लोकतंत्र में मिले अधिकारों के तहत आता है़ जब ऐसे गैरकानूनी विरोध प्रदर्शनों के खिलाफ प्रशासन कार्रवाई करती है, तो इसे अधिकारों का दमन माना जाता है़ निर्धारित स्थलों पर किये जा रहे शांतिपूर्ण प्रदर्शनों व आंदोलनों को लेकर पुलिस व प्रशासन की भूमिका निर्धारित है़ उसे आंदोलनकारियों को तब तक सहयोग करना है जब तक वे निर्धारित स्थल पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे है़ं

अक्तूबर के फैसले में न्यायालय ने यह संदेश देने की कोशिश की थी कि अंग्रेजों के विरोध में तोड़फोड़, हिंसा आदि भारतीय के नाते मान्य थी, क्योंकि तब शासन दूसरों का था, जिनसे हम मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे़ आज जब शासन हमारा है, तो इसके साथ हम दुश्मनों की तरह व्यवहार नहीं कर सकते़ चाहे व्यवस्था को धक्का पहुंचे, संपत्तियों का नुकसान हो, कानून व्यवस्था तोड़ी जाए, सारी क्षति हमारी अपनी है़ इसलिए हम विरोध प्रदर्शन करें, आंदोलन करें, लेकिन ध्यान रखें कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाये रखना भी हमारा ही दायित्व है़ ऐसा न हो कि हमारे व्यवहार से ही लोकतंत्र के तंतुओं को चोट पहुंच जाए.

Posted By : Sameer Oraon

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