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हिंदी को लेकर बेवजह विवाद

भारत अनेक भाषाओं का देश है और हर किसी का अपना महत्व है, पर पूरे देश में एक भाषा का होना बेहद जरूरी है. भारत को एकता की डोर में बांधने का काम हिंदी ही कर सकती है.

हिंदी भाषा को लेकर विवाद एक बार फिर सुर्खियों में है. द्रमुक सांसद कनिमोझी ने आयुष मंत्रालय के सचिव द्वारा गैर हिंदी भाषी योग शिक्षकों और चिकित्सकों को एक वेबिनार से बाहर निकलने के कथित मामले को लेकर सवाल उठाये हैं. उन्होंने आयुष मंत्री श्रीपद नाइक को पत्र लिखा है और पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा संसद में किये गये वादे की याद दिलायी है, जिसमें कहा गया था कि जब तक गैर हिंदी भाषी राज्यों को सहयोगी भाषा के रूप में अंग्रेजी की जरूरत है.

तब तक यह व्यवस्था जारी रहेगी. आरोप लगाया है कि हिंदी को थोपा जा रहा है. मेरा मानना है कि अगर यह घटना हुई है, तो इसे किसी भी तरह उचित नहीं ठहराया जा सकता है.

हालांकि पिछले कुछ समय से कनिमोझी लगातार हिंदी का मसला उछालती रही हैं. पिछले दिनों उन्होंने आरोप लगाया था कि हवाई अड्डे पर जब उन्होंने केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल की एक महिला अधिकारी से तमिल या अंग्रेजी में बोलने को कहा था.

तब वह अधिकारी उनसे पूछ बैठीं कि क्या आप भारतीय हैं? कनिमोझी ने इसे भाषाई विवाद बना दिया और ट्वीट कर पूछा था कि कब से भारतीय होने के लिए हिंदी जानना जरूरी हो गया है? उन्होंने कहा कि उन्हें हिंदी नहीं आती. उन्होंने कभी स्कूल में इसका अध्ययन नहीं किया. वहां केवल तमिल और अंग्रेजी पढ़ाई जाती थी. हालांकि सीआइएसएफ के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कनिमोझी के आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि महिला अधिकारी ने वे शब्द नहीं कहे थे, जिनका कनिमोझी जिक्र कर रही हैं, लेकिन भाषाई विवाद में पूर्व केंद्रीय मंत्री पी चिदंबरम भी कूद पड़े.

उन्होंने कहा कि मुझे सरकारी अधिकारियों और आम लोगों से बातचीत के दौरान इसी तरह के अनुभव का सामना करना पड़ा है. टेलीफोन पर या आमने-सामने की बातचीत के दौरान उनका जोर रहता है कि उन्हें हिंदी में ही बोलना चाहिए. इसको लेकर तमिलनाडु में राजनीति शुरू हो गयी. द्रमुक अध्यक्ष एमके स्टालिन ने पूछा कि क्या भारतीय होने के लिए हिंदी जानना ही एकमात्र मापदंड है? यह इंडिया है या हिंदिया है?

वहीं भाजपा ने कनिमोझी पर चुनावी फायदे के लिए भाषाई मसला उछालने का आरोप लगाया. भाजपा महासचिव बीएल संतोष ने ट्वीट कर कहा कि विधानसभा चुनाव अभी आठ माह दूर है, लेकिन प्रचार शुरू हो गया है.

तमिलनाडु में हिंदी विरोध की राजनीति काफी पहले से होती आयी है. इसमें अनेक लोगों की जानें तक जा चुकी हैं

तमिलनाडु के नेता त्रिभाषा फार्मूले के तहत हिंदी को स्वीकार करने को भी तैयार नहीं रहे हैं. वे हिंदी का जिक्र भर कर देने से नाराज हो जाते हैं. तमिल राजनीति में हिंदी का विरोध 1937 के दौरान शुरू हुआ था और आजादी के बाद भी जारी रहा. सी राजगोपालाचारी ने स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य बनाने का सुझाव दिया, तब भी भारी विरोध हुआ था. तमिलनाडु के पहले मुख्यमंत्री अन्नादुरई ने तो हिंदी में लिखे साइनबोर्ड हटाने को लेकर एक आंदोलन ही छेड़ दिया था. इस आंदोलन में डीएमके नेता और तमिलनाडु के कई बार मुख्यमंत्री रहे दिवंगत एम करुणानिधि भी शामिल रहे थे.

हाल में घोषित नयी शिक्षा नीति के प्रारूप में सबसे महत्वपूर्ण बदलाव है कि अब पाठ्यक्रम में मातृभाषा को प्राथमिकता दी जायेगी, जिससे कि बच्चे क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई कर सकें. इसमें कहा गया है कि बच्चों द्वारा सीखी जानेवाली तीन भाषाएं, राज्यों, क्षेत्रों और छात्रों की पसंद की होंगी. इसके लिए तीन में से कम-से-कम दो भाषाएं भारतीय मूल की होनी चाहिए, लेकिन इसको लेकर भी विरोध शुरू हो गया है और शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक को सफाई देनी पड़ी कि किसी राज्य पर कोई भाषा थोपी नहीं जायेगी.

लेकिन यह भी सही है कि उत्तर भारत के लोगों ने दक्षिण भारतीयों को जानने की बहुत कोशिश नहीं की है. जब से आइटी की पढ़ाई और नौकरी के लिए हिंदी भाषी राज्यों के हजारों बच्चे और कामगार दक्षिण जाने लगे, तब से उनकी दक्षिणी राज्यों की जानकारी बढ़ी है; अन्यथा सभी दक्षिण भारतीय मद्रासी कहे जाते थे. आंध्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल का भेद और उनकी भाषाओं की जानकारी उन्हें नहीं थी. मैंने पाया कि अब भी जो हिंदी भाषी लोग दक्षिणी राज्यों में रहते हैं, उनमें उस राज्य की भाषा सीखने की ललक नहीं है.

चूंकि देश की राजनीति अधिकांशत: उत्तर भारत के राज्यों से संचालित होती है, इसलिए उनमें अपने आपके लिए एक श्रेष्ठता का भाव है. मुझे याद है कि जब देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने, तो उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती हिंदीभाषियों से संवाद की थी. उन्हें समझा दिया गया था कि अगर ऐसा नहीं कर पायेंगे, तो उत्तर भारत आपको स्वीकार नहीं करेगा. इसके बाद हिंदी के एक वरिष्ठ पत्रकार ने उन्हें हिंदी पट्टी में स्थापित करने का मोर्चा संभाल लिया था. मुझे स्मरण है कि पीएम एचडी देवगौड़ा की ओर से हिंदी में हस्ताक्षरित एक आमंत्रण पत्र मिला था, जिसमें हिंदी के अनेक पत्रकार और साहित्यकार उनके आवास पर भोज में आमंत्रित थे.

यह हम सब जानते हैं कि तमिलनाडु का हिंदी से बैर पुराना है, पर हिंदी पट्टी के क्षेत्रों में भी हम कहां हिंदी पर ध्यान दे रहे हैं? पिछले दिनों उप्र से बेहद चिंताजनक खबर आयी थी कि यूपी बोर्ड की हाइस्कूल और इंटर की परीक्षा में लगभग आठ लाख विद्यार्थी हिंदी में फेल हो गये थे. यह खबर चिंता जगाती है.

हम हर साल 14 सितंबर को देशभर में हिंदी दिवस मनाते हैं, पर यह भी कटु सत्य है कि हमारे कथित हिंदी प्रेमियों और सरकारी हिंदी ने हिंदी को भारी नुकसान पहुंचाया है. सरकारी अनुवाद का प्रचार-प्रसार हो जाए, तो हिंदी का बंटाधार तय है. यह सही है कि भारत अनेक भाषाओं का देश है और सभी का अपना महत्व है, पर पूरे देश में एक भाषा का होना बेहद जरूरी है. भारत को एकता की डोर में बांधने का काम कोई भाषा कर सकती है, तो वह हिंदी है, लेकिन राजनीतिक कारणों से नेताओं को यह पसंद नहीं है.

posted by : sameer oraon

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