विपक्षी गठबंधन को नेता नहीं, नारे की जरूरत

गठबंधन को एक प्रभावी नारे की दरकार है, जो सुर्खियों में आये और असरदार हो. उन्हें ‘मोदी की गारंटी कारवां’ की काट निकालनी होगी, जो इस संदेश के साथ देश भ्रमण पर है कि राष्ट्रीय विकास के लिए एकमात्र गारंटी मोदी हैं. तथ्य बताते हैं कि चुनाव किसी नेता के विरुद्ध नैरेटिव बनाकर नहीं जीते जाते.

By प्रभु चावला | December 26, 2023 5:38 AM

इंडिया और भारत के बीच खाई केवल सांस्कृतिक और सामाजिक नहीं है. आज संघर्षण के अलंकृत समय में वर्ग, जाति, समुदाय और चेतना की खाई को यह इंगित करता है. इस खाई ने ‘इंडिया’ गठबंधन के भीतर की दरारों को गहरा बना दिया है. बीते हफ्ते विभाजित होकर भी वे साथ दिखे. प्रधानमंत्री की कुर्सी की आकांक्षा उनके बीच की गांठ है, जिसे लेकर अभिजन राहुल गांधी और शेष विपक्ष में ठनी हुई है. विपक्षी नेताओं की यह चौथी बैठक थी. उनका उद्देश्य 2024 में भाजपा को हरा कर नरेंद्र मोदी को गद्दी से उतारना है. लेकिन अपराजेय मोदी के समक्ष खड़ा करने के लिए किसी एक नाम पर सहमति नहीं बन सकी. ये नेता फिर मिलेंगे. झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को छोड़कर बाकी सभी भाषण देने के लिए आये थे. भाषणों से साफ था कि वे सब हालिया विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की भारी हार से संतप्त थे. कांग्रेस की हार उसके सहयोगियों के लिए वरदान बन कर आयी है. अब कांग्रेस कनिष्ठ दलों को भी सुनने के लिए तैयार है और भाजपा के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में अपना अस्तित्व बचाने के लिए त्याग करने के लिए भी मानसिक रूप से तैयार है. चुनाव अभियान शुरू होने में अब दो माह से भी कम समय बचा है, पर मोदी के नेतृत्व वाले भाजपा के विरुद्ध विपक्ष ठोस व भरोसेमंद आख्यान नहीं तय कर पाया है. इस स्वभावगत भ्रम से कुछ सवाल उठ रहे हैं.

क्या इंडिया गठबंधन एनडीए से मजबूत है? हां, संख्या और भूगोल दोनों हिसाब से. लेकिन कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले इसके दो दर्जन दलों में अधिकतर जाति और परिवार द्वारा संचालित संगठन हैं. भाजपा ने किसी बड़े दल को सहयोगी नहीं बनाया है, केवल उत्तर प्रदेश और बिहार के छोटे दलों को साथ लिया है. इंडिया समूह में कांग्रेस के अलावा बाकी दल मिलकर 125 से अधिक सीटें नहीं जीत सकते. केवल तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, शिव सेना (उद्धव ठाकरे), एनसीपी (शरद पवार) और समाजवादी पार्टी ही दो अंकों में पहुंच सकते हैं. गठबंधन कोई एक समान विचारधारा पर भी आधारित नहीं है. यह ऐसे लोगों से बना है, जिनके लिए सत्ता और प्रासंगिकता महत्वपूर्ण है. मसलन, मार्क्सवाद और द्रविड़ शासन कला में कुछ भी समान नहीं है. लेकिन वे तमिलनाडु में साझेदारी करेंगे. कर्नाटक में साथ आये भाजपा और जेडी(एस) के बीच भी पहचान की समानता नहीं है. तमिलनाडु में कांग्रेस और द्रमुक केवल अन्ना द्रमुक और भाजपा की सरकार रोकने के लिए साथ हैं. द्रमुक ने ‘सनातन धर्म’ का त्याग कर कांग्रेस को साथ लिया है.

क्या गठबंधन बहुमत पा सकता है? यह बहुत कठिन है, पर असंभव नहीं. कांग्रेस को कम से कम 140 सीटें पाना होगा. इसके लिए उसे उत्तर भारत, असम और कर्नाटक में भाजपा को पस्त करना होगा. रणनीति यह है कि लगभग 450 सीटों पर भाजपा से सीधी लड़ाई हो. कांग्रेस को उत्तर में कुछ सीटें सहयोगियों को देनी होगी ताकि उसे दूसरे राज्यों में अतिरिक्त सीटें मिल सकें. हालिया बैठक में राहुल ने जाति और व्यक्ति केंद्रित बहुत छोटी पार्टियों के महत्व को रेखांकित किया. उन्होंने राजस्थान और मध्य प्रदेश में क्षेत्रीय दलों को साथ नहीं लेने के लिए वरिष्ठ नेताओं की आलोचना की. यह और बात है कि उनकी कथनी और करनी में फर्क रहा था. गांधी परिवार का कोई सदस्य क्षेत्रीय और छोटे दलों से बातचीत में शामिल नहीं हुआ. यह काम खरगे को दिया गया, जिनके पास अंतिम निर्णय का अधिकार नहीं है. गठबंधन में सीट बंटवारे पर समिति बनाने में पार्टी को चार माह का समय लगा. कांग्रेस को यह असलियत स्वीकार करनी चाहिए कि उत्तर प्रदेश और बिहार में उसका वजूद नहीं है, इसलिए वह अतिरिक्त सीट नहीं मांग सकती है. उसकी मुख्य चुनौती भाजपा के हाथों हारे 180 में से कम से कम 75 क्षेत्रों को फिर से जीतना है. गठबंधन की सरकार तभी बन सकती है, जब कांग्रेस लगभग 140 सीटें जीते और भाजपा 225-240 तक सीमित रह जाये. कांग्रेस की आशा आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से है.

क्या विपक्ष को नेता की जरूरत है? हां, पर एक नेता नहीं हो सकता क्योंकि गठबंधन में अनेक नेता हैं, जो अपने को प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में देखते हैं. गठबंधन को एक प्रभावी नारे की दरकार है, जो सुर्खियों में आये और असरदार हो. उन्हें ‘मोदी की गारंटी कारवां’ की काट निकालनी होगी, जो इस संदेश के साथ देश भ्रमण पर है कि राष्ट्रीय विकास के लिए एकमात्र गारंटी मोदी हैं. तथ्य बताते हैं कि चुनाव किसी नेता के विरुद्ध नैरेटिव बनाकर नहीं जीते जाते. मसलन, जब विपक्ष ने ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’ का नारा लगाया, तो इंदिरा गांधी को अधिक सीटें मिलीं. इस पर सभी सहमत हैं कि मोदी के विरुद्ध नकारात्मक अभियान से इंडिया गठबंधन को फायदा नहीं होगा. आपातकाल की ज्यादतियों के चलते इंदिरा की हार हुई, पर दक्षिण उनके साथ बना रहा. उन्होंने ठोस नारे के साथ सत्ता में वापसी की- ‘ऐसी सरकार चुनें, जो काम करे.’ साल 2004 में वाजपेयी अपराजेय माने जा रहे थे. भाजपा ‘इंडिया शाइनिंग’ के नारे के साथ समय से पहले चुनाव में गयी, लेकिन उसे 180 से कम सीटें मिलीं. सोनिया गांधी ने एक ठोस गठबंधन के साथ बाजी मार ली. वाजपेयी के विरुद्ध न कोई लहर थी और न ही उनसे कोई बेहतर विकल्प था. साल 2009 का चुनाव मनमोहन सिंह के नाम पर नहीं, यूपीए के काम पर लड़ा गया. भाजपा ने 80 साल के आडवाणी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया, पर शुरू से ही वे बेअसर रहे. साल 2014 में भाजपा के पास एक नेता और नारे का जोरदार जोड़ा मिला- ‘अबकी बार, मोदी सरकार.’ भ्रष्टाचार और कमजोर नेतृत्व को लेकर कांग्रेस विरोधी लहर थी, जिससे मोदी और उनके एजेंडे को बड़ी मदद मिली.

अब इंडिया गठबंधन का एक हिस्सा 80 साल के खरगे को मोदी के सामने खड़ा करना चाहता है क्योंकि वे एक दक्षिण भारतीय दलित हैं और उनके पास व्यापक राजनीतिक अनुभव है. शायद विपक्ष को लगता है कि भाजपा से नहीं जुड़े दलित और मुस्लिम वोटर उत्तर और पश्चिम में 150 से अधिक सीटों पर निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं. ममता और केजरीवाल के इस प्रस्ताव के पीछे रणनीति यह है कि कांग्रेस घोषित कर दे कि राहुल प्रधानमंत्री पद की दौड़ में नहीं हैं. गठबंधन के नेता गांधी परिवार का महत्व समझते हैं, पर वे चुनाव अभियान में परिवार की भूमिका को कम से कम रखना चाहते हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.

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