Loading election data...

नीतीश के सामने विपक्ष की जद्दोजहद

सत्तासीन गठबंधन के पास मुख्यमंत्री का एक सशक्त चेहरा और सामाजिक गणित है, जबकि विपक्ष अब भी उससे बड़ी लकीर खींचने की दिशा में जद्दोजहद कर रहा है.

By शैबाल गुप्ता | August 21, 2020 2:42 AM

शैबाल गुप्ता, सदस्य सचिव, एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट (आद्री), पटना

shaibalgupta@yahoo.co.uk

वर्ष 1980 में एक इतिहास रचा गया था, जब मैसाचुसेट्स के सीनेटर जॉन एफ कैनेडी ने तत्कालीन राष्ट्रपति डीडी आइजनहावर के सहयोगी उप-राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को अमेरिका में पहली बार टीवी पर प्रचारित बहस में पछाड़ दिया था. उसके बाद से टीवी पर होनेवाली बहस पूरी दुनिया में चुनाव अभियानों के सशक्त माध्यम के रूप में उभरी.

अगर तय समय के अनुरूप बिहार में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होता है, तो चुनाव अभियान का एक नया स्वरूप ‘वर्चुअल कैंपेनिंग’ उसके केंद्र में होगा. सफल होने पर यह भारत में चुनावों की दिशा बदल देगा. गृहमंत्री अमित शाह ने 7 जून को एक वर्चुअल रैली को संबोधित किया था. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी पार्टी के नेताओं के साथ वर्चुअल संवाद किये हैं.

वहीं, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले जनता दल (यूनाइटेड) ने भी 7 अगस्त को वर्चुअल रैली करने की योजना बनायी थी, हालांकि उसे स्थगित कर दिया गया. चूंकि, डिजिटल उपयोगकर्ताओं का बड़ा समूह तैयार हो गया है, इसलिए ऐसे वर्चुअल अभियान संभव हैं. इससे पूरे भारत में 50 करोड़ से भी अधिक लोगों के जुड़े होने का अनुमान है. जैसा कि अभी हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बताया, उनमें से अधिकांश लोग ग्रामीण क्षेत्रों के हैं. बिहार की आबादी का बड़ा हिस्सा मुख्यतः ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है. भारत में इंटरनेट का उपयोग करने के मामले में लैंगिक संतुलन बरकरार है और उसमें महिलाओं का अच्छा-खासा हिस्सा है.

यह तेजी से बदलाव की स्थिति को दर्शाता है. लालू प्रसाद के दौर में जब शरद पवार पटना आये थे, तो उन्हें यह जान कर धक्का लगा था कि पटना में सिर्फ 100 इंटरनेट कनेक्शन थे, जबकि उनके निर्वाचन क्षेत्र बारामती में ही 12,000 कनेक्शन थे, लेकिन अब डिजिटल प्लेटफॉर्म सूचनाओं के प्रचार-प्रसार के लोकतंत्रीकरण के वाहक के बतौर उभरे हैं. कोविड-19 के बाद के भारत में चुनावी राजनीति में यह खुद को जिस तरह से व्यक्त करेगा, उसका केंद्र बिहार होगा, लेकिन चुनावी प्रतिस्पर्धा के महत्व का क्या होगा? ऐसा लगता है कि नीतीश कुमार के सामने कठिन चुनौती पेश है.

पहले दो कार्यकालों की तरह उनका तीसरा कार्यकाल गौरवपूर्ण घटनाओं से भरा नहीं है. कोविड-19 से निबटने में प्रशासन की कमजोरियां खुल कर सामने आ गयी हैं, पर जहां तक चुनाव का सवाल है, नीतीश कुमार अब भी राज्य के एक बड़े राजनीतिक ब्रांड हैं. हालांकि, भारतीय जनता पार्टी के साथ साझीदारी से बिहार को विशेष श्रेणी के राज्य का दर्जा या पटना विश्वविद्यालय के लिए केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा जैसे जनता दल (यूनाइटेड) द्वारा मांगे गये लाभ प्राप्त नहीं हुए. इसे भी हमें ध्यान में रखना होगा.

जीतन राम मांझी अगर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल होते हैं, तो इस गठबंधन का दायरा और बड़ा हो जायेगा. पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं को 35 प्रतिशत आरक्षण देकर और पुलिस तथा सार्वजनिक नौकरियों तक उसका विस्तार करके नीतीश कुमार ने महिलाओं को अपने पक्ष में रखने का विशेष प्रयास किया है. उन्होंने पिछले 15 वर्षों में पिछड़े समुदायों के अति-पिछड़े तबकों पर खासा जोर दिया है. विधान परिषद और कुछ संस्थाओं में अति पिछड़ों की नुमाइंदगी को इसी परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है.

बिहार हिंदी हृदय प्रदेश का एकमात्र राज्य है, जहां भाजपा अपने शिखर तक नहीं पहुंची है. मोदी की लोकप्रियता के बावजूद उसने गठबंधन करना पसंद किया है. सोशल इंजीनियरिंग के बाद वह अब क्षेत्रीय उप-राष्ट्रीयता को जगा रही है. मोदी ने बिहारियों और बिहार रेजीमेंट के पराक्रम तथा भारत-चीन झड़प के दौरान उनके बलिदान की प्रशंसा की.

प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना की समय सीमा को बढ़ाते हुए मोदी ने खास तौर पर उल्लेख किया कि यह योजना नवंबर में छठ पर्व तक जारी रहेगी. छठ बिहार में एकमात्र उप-राष्ट्रीय पर्व है, जिसे बिहार में सभी जातियों और वर्गों के लोग बिना किसी सामाजिक भेदभाव के मनाते हैं. भाजपा युवा वर्ग को भी खुश करने का प्रयास कर रही है. बिहार में इसके सारे जिलाध्यक्षों की उम्र 40 से 45 वर्ष के बीच है.

लेकिन, बिहार की वर्तमान स्थिति जितनी सत्तासीन गठबंधन की मजबूती को नहीं दर्शाती है, उससे अधिक विपक्ष की कमजोरियों को स्पष्ट करती है. हालांकि, सत्ताधारियों के खिलाफ काफी विक्षोभ है, जो 15 वर्षों के कार्यकाल के बाद स्वाभाविक भी है, लेकिन विपक्ष पूरी तरह अस्त-व्यस्त है. इसमें दो राय नहीं कि तेजस्वी यादव अब तक लालू यादव की जगह नहीं ले सके हैं. जाति के ऊपर वर्चस्व– जैसे कि राजद के मामले में यादवों पर वर्चस्व– औपचारिक राजनीतिक सत्ता के बिना नहीं टिकता है. राजद 15 वर्षों से सत्ता से बाहर है.

दूसरे, पूरे जाति समूह के समर्थन को टिकाये रखने के लिए अभी कोई सामाजिक आंदोलन भी मौजूद नहीं है. कांग्रेस और साम्यवादी दल ऐसी स्थिति में नहीं हैं कि वे कोई बड़ा समीकरण बना सके. एक ऐसा सामाजिक समीकरण जो चुनाव की दिशा को प्रभावित करनेवाले औजार के बतौर निर्मित हो सके. उपेंद्र कुशवाहा या मुकेश सहनी जितना राजनीतिक ध्यान आकर्षित करते हैं, उससे उनकी सामाजिक ताकत मेल नहीं खाती है. यानी उन्हें जाति विभाजित समाज में अन्य समूहों को साधना बाकी है. अगर यह काम वे करने में सफल होते हैं, तो इससे उनकी राजनीतिक हैसियत में इजाफा ही होगा.

अपने को संपूर्ण बिहार के नेता के रूप में सामने लाने के लिए चिराग पासवान ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट’ के नारे के साथ व्यापक प्रांतीय पहचान के लिए अपील कर रहे हैं. ‘बदलो बिहार’ के नारे के साथ बने नये मंच के साथ यशवंत सिन्हा सक्रिय हुए हैं. इस परिप्रेक्ष्य को देखते हुए– जिसमें सत्तासीन गठबंधन के पास मुख्यमंत्री का एक सशक्त चेहरा और सामाजिक गणित है, जबकि विपक्ष अब भी उससे बड़ी लकीर खींचने की दिशा में जद्दोजहद कर रहा है. वस्तुत: पूरी चुनावी लड़ाई इसी पर टिकी हुई है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

Next Article

Exit mobile version