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रंगभेद का शिकार हमारा समाज

यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिस देश में रंगभेद व नस्लभेद के खिलाफ संघर्ष के सबसे बड़े प्रणेता महात्मा गांधी ने जन्म लिया, उस समाज में रंगभेद की जड़ें बेहद गहरी हैं.

आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर

ashutosh.chaturvedi@prabhatkhabar.in

अमेरिका में एक अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस के हाथों मौत का मुद्दा जोर पकड़ गया है. केवल अमेरिका ही नहीं यूरोप में भी रंगभेद के खिलाफ ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ यानी ‘अश्वतों की जिंदगी भी अहम है’ जैसे आंदोलन चल रहे हैं. दुनियाभर में रंगभेद के खिलाफ मुहिम चल रही है. यहां तक कि गोरे रंग को बढ़ावा देने वाली कंपनियों को भी भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है. विरोध को देखते हुए दुनिया की सौंदर्य प्रसाधन बनाने वाली प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनिलीवर गोरेपन को बढ़ावा देने वाली अपनी फेस क्रीम फेयर एंड लवली का नाम बदलने की घोषणा की है.

कंपनी ने कहा है कि वह गोरा या गोरेपन जैसे शब्दों का इस्तेमाल अपने उत्पादों और विज्ञापनों में नहीं करेगी. कंपनी का कहना है कि सुंदरता को लेकर नजरिया बदल रहा है और फेयर, व्हाइट और लाइट जैसे शब्द सुंदरता का एकतरफा नजरिया पेश करते हैं. इसलिए इसमें बदलाव किया जा रहा है. फेयर एंड लवली ब्रांड का भारत ही नहीं पूरे एशिया में दबदबा है. यह क्रीम भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया और थाईलैंड में खूब बिकती है. यूनिलीवर की प्रतिस्पर्धी कंपनी जॉनसन एंड जॉनसन ने भी कहा है कि वह गोरेपन को बढ़ावा देने वाली अपनी क्रीम की बिक्री बंद करने जा रही है.

भारत में भी रंगभेद की जड़ें बहुत गहरी हैं. हमारे समाज की धारणा है कि गोरा होना श्रेष्ठता की निशानी है और सांवला या काला व्यक्ति दोयम दर्जे का है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत में फेयरनेस क्रीम की बिक्री असाधारण रूप से बढ़ी है. यह क्रीम काले या सांवले व्यक्ति को गोरा बना देने का दावा करती है. कारोबार की वेबसाइट मनी कंट्रोल के मुताबिक पिछले साल भारत में लगभग 4100 करोड़ की फेयर एंड लवली की बिक्री हुई. यह दर्शाता है कि भारतीय समाज में गोरा होने की चाहत कितनी प्रबल है. यह भी देखा गया है कि केवल लड़कियों में गोरा बनने की ललक नहीं है, मर्द भी इसमें पीछे नहीं हैं.

इन गोरेपन की क्रीमों का कारोबार इतना बड़ा है कि कंपनियां नामी बॉलीवुड अभिनेता व अभिनेत्रियों से इसका प्रचार प्रसार करवाती हैं. यह और कुछ नहीं, हमारे रंगभेदी रवैये का संकेत मात्र है. जानी-मानी अभिनेत्री नंदिता दास ने इस विषय पर एक लेख लिखा है, जिसमें उनका कहना है कि हालांकि कंपनी का यह कदम सांकेतिक है, लेकिन यह एक बड़ा कदम है. जब मार्केट लीडर कुछ कदम उठाता है, तो एक चर्चा को जन्म देता है. एक शख्स की पहचान को उसके रंग से जोड़ कर देखे जाने को धीरे-धीरे ही सही, मगर चुनौती मिल रही है.

एक ऐसे समाज में जहां सुंदरता की पहचान त्वचा के रंग से हो, वहां यह देखना सुखद है कि अरबों डॉलर का यह उद्योग अचानक बेदाग होना चाहता है. बॉलीवुड अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने भी रंगभेद के खिलाफ आंदोलन का समर्थन किया है, लेकिन कई लोगों ने कुछ समय पहले फेयरनेस क्रीम का विज्ञापन करने के लिए उनकी आलोचना भी की है. इस दौरान उनका एक पुराना इंटरव्यू भी सामने आया है, जिसमें प्रियंका चोपड़ा में पूछा गया था कि फेयरनेस क्रीम का प्रचार कर उन्हें कैसा लगा? प्रियंका ने जवाब दिया था- उन्हें बहुत बुरा लगा, क्योंकि उनका रंग सांवला है, जबकि उनकी चचेरी बहनें गोरी हैं. मजाक के तौर पर उनका परिवार उन्हें ‘काली काली’ कह कर बुलाता था.

अगर आप गौर करें, तो देश के हर शहर के गली मुहल्लों में बड़ी संख्या में ब्यूटी पार्लर खुल गये हैं और सबका कारोबार ठीक-ठाक चल रहा है. अखबारों के शादी के विज्ञापनों पर आप नजर डालें, तो पायेंगे कि सभी परिवारों को केवल गौरी नहीं, बल्कि दूधिया गोरी बहू चाहिए. अंग्रेजी अखबारों में तो साफ लिखा होता है कि मिल्की व्हाइट बहू की दरकार है. शादी के विज्ञापनों में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति अथवा परिवार हो, जो सांवली वधू चाहता हो. यह रंगभेद नहीं तो और क्या है? दरअसल, भारतीय समाज ने सुंदरता का पैमाना गोरा रंग मान लिया है. लड़का भले ही काला कलूटा हो, बहू दूधिया गोरी चाहिए.

स्थिति यह हो गयी है कि लड़की सांवली हुई, तो मां-बाप हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं. ऐसे भी कई मामले सामने आये हैं कि लड़कियों ने इस काले गोरे के चक्कर में आत्महत्या तक कर ली है. भारतीय समाज में यह भ्रांति भी है कि गर्भावस्था के दौरान महिला के खान-पान से बच्चे के रंग पर भी असर पड़ता है और चूंकि सबको गोरा बच्चा चाहिए, इसलिए दादी-नानी गर्भवती महिला को संतरे खाने की सलाह देती हैं और जामुन जैसे फल खाने पर एकदम पाबंदी रहती है.

रंगभेद का एक और उदाहरण है. हमारे देश में अफ्रीकी लोगों को उनके रंग के कारण हिकारत की नजर से देखा जाता है. ऐसी घटनाएं आम हैं, जब किसी न किसी कारण अफ्रीकी छात्र को किसी शहर में पीट दिया जाता है. यह धारणा बना दी गयी है कि कि सभी अश्वेत ड्रग्स का धंधा करते हैं. राजधानी दिल्ली और कई अन्य शहरों में अफ्रीकी देशों के छात्र काफी बड़ी संख्या में पढ़ने आते हैं. अक्सर ऑटोरिक्शा-टैक्सी वाले और आम जन उन्हें ‘कालू’ कह कर पुकारते हैं. कुछ समय पहले देश में ऐसी घटनाएं बहुत बढ़ गयीं थीं, तो अफ्रीकी देशों के राजदूतों ने मिल कर इन घटनाओं को भारत सरकार के समक्ष उठाया था.

यह अजीब तथ्य है कि सरकारी स्तर पर अफ्रीकी देशों से भारत के रिश्ते अत्यंत घनिष्ठ हैं, लेकिन भारतीय जनता का अश्वेत लोगों से कोई लगाव नहीं है. और तो और, अपने ही पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों को नाक-नक्शा भिन्न होने के कारण भेदभाव और अपमान का सामना करना पड़ता है. मैं जब बीबीसी में कार्य करता था, तो मुझे कई वर्ष ब्रिटेन में रहने और भारतवंशी समाज को करीब से देखने और समझने का मौका मिला. मैंने पाया कि वहां के भी भारतीय समाज में रंगभेद रचा-बसा है. वहां गोरी बहू तो स्वीकार्य है, लेकिन अश्वेत बहू उन्हें भी स्वीकार नहीं होती, जबकि अश्वेत उस समाज का अभिन्न अंग है.

यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जिस देश में रंगभेद व नस्लभेद के खिलाफ संघर्ष के सबसे बड़े प्रणेता महात्मा गांधी ने जन्म लिया, उस समाज में रंगभेद की जड़ें बेहद गहरी हैं. दक्षिण अफ्रीका के एक शहर पीटरमारित्सबर्ग के रेलवे स्टेशन पर सन् 1893 में महात्मा गांधी के खिलाफ रंगभेद की घटना घटित हुई थी. इसी शहर के रेलवे स्टेशन पर एक गोरे सहयात्री ने रंगभेद के कारण उन्हें धक्के देकर ट्रेन से बाहर फेंक दिया था. इसी घटना ने मोहन दास करमचंद गांधी को आगे चल कर महात्मा गांधी बना दिया और रंगभेद के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरित किया. देश में यह समस्या विकराल रूप ले चुकी है और भारतीय समाज को इसका यथाशीघ्र हल निकालना चाहिए.

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