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यूपी की राजनीति में ओवैसी फैक्टर

यूपी की राजनीति में ओवैसी फैक्टर

नवीन जोशी

वरिष्ठ पत्रकार

naveengjoshi@gmail.com

बिहार विधानसभा चुनाव में ‘महागठबंधन का खेल बिगाड़ने’ का आरोप झेल रहे तेज-तर्रार मुस्लिम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने अब उत्तर प्रदेश और बंगाल का रुख करने का एलान किया है. ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआइएमआइएम) के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने हाल में संपन्न बिहार चुनाव में पांच सीटें जीत कर मुस्लिम मतदाताओं के बीच अपने बढ़ते प्रभाव की धमक दूर-दूर तक सुनायी. महागठबंधन के नेताओं से लेकर कई राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ओवैसी ने मुस्लिम वोटों में सेंध लगा कर महागठबंधन को कमजोर और एनडीए को मजबूत किया.

ओवैसी की पार्टी को बिहार में अच्छा समर्थन मिला, खास कर यूपी से लगे बिहार में. उन्होंने कुल पांच सीटें जीतीं और नीतीश की सत्ता में वापसी का एक बड़ा प्रच्छन्न कारण बने. ओवैसी बुधवार को लखनऊ में थे. उन्होंने सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर से मुलाकात की और एलान किया कि वे 2022 में सुभासपा के नेतृत्व में मोर्चा बना कर चुनाव लड़ेंगे. ओमप्रकाश राजभर कुछ समय पहले तक भाजपा के साथ थे और प्रदेश सरकार में मंत्री भी रहे.

लोकसभा चुनाव में अपनी उपेक्षा का आरोप लगा कर वे एनडीए से अलग हो गये थे. एक तरह से वे इस समय हाशिए पर हैं और मुख्य धारा में वापसी के लिए सहयोगियों की तलाश कर रहे हैं. बिहार विधानसभा चुनाव में वे बसपा और एआइएमआइएम के साथ मोर्चा बना कर शामिल हुए थे. उसी मित्रता को उत्तर प्रदेश में दोहराने का एलान ओवैसी लखनऊ में कर गये. उत्तर प्रदेश में ओवैसी की यह धमक नयी नहीं है.

वे काफी पहले से उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं का ध्यान खींचने का प्रयास करते रहे हैं. यहां करीब साठ जिलों में उनका संगठन बना है. एआइएमआइएम ने 2017 में प्रदेश का विधानसभा चुनाव लड़ा था और 38 सीटों पर 0.25 फीसदी वोट पाया था. उसके पहले भी ओवैसी उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी के पैर जमाने का प्रयास करते रहे हैं.

एक बार यहां वे पंचायत चुनाव भी लड़ चुके हैं और 2017 का चुनाव लड़ने से पहले बीकापुर (फैजाबाद) विधानसभा सीट के उपचुनाव में उन्होंने अपना प्रत्याशी उतारा था. यह रोचक बाजी थी, क्योंकि बीकापुर में उन्होंने मुस्लिम प्रत्याशी की बजाय दलित उम्मीदवार उतारा था, जिसे भाजपा प्रत्याशी से कुछ ही कम वोट मिले थे. तब भी उत्तर प्रदेश में ओवैसी को नोटिस किया गया था और उन्होंने कई बार उत्तर प्रदेश का दौरा किया था.

2014 के लोकसभा चुनाव के समय भी ओवैसी यूपी का दौरा कर रहे थे. तब प्रदेश में सतारूढ़ समाजवादी पार्टी के कान खड़े हो गये थे, क्योंकि ओवैसी की सभाओं में मुस्लिम युवाओं की खासी भीड़ जुटती थी. ओवैसी मुसलमान वोटरों से कहते थे- ‘पहले भाई, फिर भाजपा हराई, उसके बाद सपाई.’ अर्थात मुस्लिम वोटरों के लिए सबसे पहले अपना भाई यानी मुस्लिम प्रत्याशी है, फिर वह, जो भाजपा को हरा सके और उसके बाद सपा प्रत्याशी.

इसी कारण सपा सरकार ने तब ओवैसी को आजमगढ़ में सभा करने की अनुमति नहीं दी थी, क्योंकि वहां से मुलायम सिंह को चुनाव लड़ना था. कहने का आशय यह है कि ओवैसी उत्तर प्रदेश के लिए नये नहीं हैं, लेकिन इस बार बिहार में मिली सफलता ने उन्हें कहीं अधिक प्रासंगिक बना दिया है. उनकी ओर राजनीतिक दलों एवं विश्लेषकों का ध्यान जाना स्वाभाविक है.

उत्तर प्रदेश में भाजपा मजबूत पायदान पर खड़ी दिखती है. सपा और बसपा के पैर उखड़े हुए हैं. पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव में इन दोनों दलों को बुरी हार देखनी पड़ी. लोकसभा चुनाव तो सपा-बसपा ने मिल कर लड़ा, लेकिन वे भाजपा के वर्चस्व को तोड़ नहीं सके थे. इस आधार पर अभी यही लगता है कि ओवैसी सेकुलर दलों के लिए यूपी में उतना बड़ा खतरा साबित नहीं होंगे, जितना वे बिहार में हुए.

बिहार में दोनों गठबंधनों में कांटे की टक्कर थी. ओवैसी की मौजूदगी ने एनडीए के पक्ष में पलड़ा झुकाने में मदद की. महागठबंधन ने तो यहां तक आरोप लगा दिया कि ओवैसी ने भाजपा से धन लेकर महागठबंधन को हराने का सौदा किया. उत्तर प्रदेश में अभी भाजपा के खिलाफ बिहार जैसा कोई मजबूत गठबंधन नहीं है और निकट भविष्य में बनने के आसार भी नहीं दिखाई देते. सपा ने अकेले लड़ने की घोषणा कर दी है.

बसपा दूसरे राज्यों में तो कुछ दलों से गठबंधन कर लेती है, लेकिन उत्तर प्रदेश में वह किसी को भागीदार नहीं बनाना चाहती. बिहार में वह ओवैसी के साथ एक मोर्चे में थी, लेकिन यूपी में संभावना नहीं है कि वह ओवैसी के साथ गठबंधन करेगी. ओवैसी ने भी लखनऊ में ऐसा कोई संकेत नहीं दिया. शिवपाल की पार्टी के बारे में भी वे निश्चय से कुछ नहीं कह सके, लेकिन एक बात नोट की जानी चाहिए और यह बिहार के नतीजों ने भी साबित किया कि तेज-तर्रार ओवैसी के आक्रामक भाषणों ने मुसलमानों की युवा पीढ़ी को विशेष रूप से प्रभावित किया है.

वे कहते हैं कि मुसलमानों की अपनी पार्टी और अपने नेता ही उनका वास्तविक भला कर सकते हैं. बाकी पार्टियां मुसलमानों में भाजपा का डर पैदा कर, उनकी सुरक्षा के नाम पर उनके वोट लेती रही हैं और खुद सत्ता का भोग करती रही हैं. ओवैसी उन सभी पार्टियों को अपने लिए खतरा लगते हैं, जिन्हें अब तक मुस्लिम मतदाताओं का अच्छा समर्थन मिलता रहा है.

इनमें उत्तर प्रदेश के अखिलेश यादव (पहले मुलायम), बिहार के लालू (अब तेजस्वी) और बंगाल की ममता बनर्जी भी शामिल हैं. यह अकारण नहीं है कि ममता बनर्जी ओवैसी पर भाजपा को चुनाव जिताने की सौदेबाजी करने का आरोप बार-बार दोहरा रही हैं. ओवैसी बंगाल चुनावों में शामिल होने का इरादा जता चुके हैं.

वहां भी उनको मिलने वाले वोट सेकुलर दलों, विशेषकर ममता बनर्जी के खाते से कटेंगे और भाजपा को लाभ पहुंचायेंगे. उत्तर प्रदेश में ओवैसी और राजभर की पार्टियों का मोर्चा भाजपा का मुकाबला करने की स्थिति में तो नहीं है, बल्कि इसके उलट वह सेकुलर दलों, विशेष रूप से सपा-बसपा के वोट काट कर भाजपा की मदद ही करेगा. यह हमारी चुनावी राजनीति की विद्रूपता ही कही जायेगी कि ओवैसी जिस भाजपा को हराने का इरादा रखते हैं, प्रकारांतर से उसी की मदद कर बैठते हैं.

posted by : sameer oraon

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