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छल-कपट की पाकिस्तानी नीति

पाकिस्तान न तो संयुक्त राष्ट्र की बात मान रहा है, न ही लाहौर या शिमला समझौते की भावना का सम्मान कर रहा है. अब भारत के पास अपने विकल्प खुले हुए हैं.

डॉ प्रशांत त्रिवेदी, प्राध्यापक, दिल्ली विश्वविद्यालय

prashantjnu.trivedi22@gmail.com

पाकिस्तान न तो संयुक्त राष्ट्र की बात मान रहा है, न ही लाहौर या शिमला समझौते की भावना का सम्मान कर रहा है. अब भारत के पास अपने विकल्प खुले हुए हैं.

पाकिस्तान की सर्वोच्च न्यायालय ने पाकिस्तान सरकार से गिलगित-बाल्टिस्तान में सितंबर तक चुनाव करवाने का आदेश दिया है. इसकी प्रतिक्रिया में भारत सरकार ने बहुत सख्त शब्दों में इस क्षेत्र में किसी प्रकार के ‘भौतिक बदलाव’ के साथ न्यायालय की न्यायाधिकारिता को भी अवैध बताया है तथा पाकिस्तान से इस पूरे क्षेत्र से सेना हटाने के लिए भी कहा है. फरवरी, 1994 में भारतीय संसद ने एक मत में गिलगित-बाल्टिस्तान सहित पूरे जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग माना था.

गिलगित-बाल्टिस्तान में पाकिस्तान ने 1947 से अवैध रूप से कब्जा कर रखा है, जबकि महाराजा हरि सिंह ने 26 अक्टूबर, 1947 को जब जम्मू-कश्मीर का भारत पर अधिमिलन किया, उसी प्रक्रिया में पूरा क्षेत्र भारत का अभिन्न अंग बन गया था क्योंकि जम्मू, कश्मीर, लद्दाख, गिलगित व बाल्टिस्तान, मीरपुर व मुज्जफराबाद उनकी रियासत के अंग थे. यह अधिमिलन पूर्ण, वैधानिक व अटल है. गिलगित स्काउट के अंग्रेज अफसर मेजर ब्राऊन व अन्य अंग्रेज अफसरों ने जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के पश्चात सेना के मुस्लिम जवानों को भड़काकर गिलगित में सत्ता पलट करवा दिया था और वहां के गवर्नर ब्रिगेडियर घनसारा सिंह को बंधक बना लिया गया था.

सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने व पूर्व सोवियत संघ के प्रभाव में होने के कारण संयुक्त राष्ट्र के भीतर भी यह क्षेत्र अमेरिका व ब्रिटेन सहित यूरोपीय शक्तियों के षड्यंत्र का हिस्सा बन गया. भारत की कूटनीतिक असफलता के कारण बाल्टिस्तान, नागर व हुंजा सहित गिलगित में पाकिस्तान का अवैध कब्जा हो गया, लेकिन भारत ने गिलगित-बाल्टिस्तान में अपने वैध अधिकार के दावे को कभी नही छोड़ा, न ही अपने ऐतिहासिक व सांस्कृतिक संबंधों को.

अवैध कब्जे के बावजूद पाकिस्तान ने भी वैधानिक रूप से इसे अपना हिस्सा नहीं माना. उसका संविधान तीन बार (1956,1962, 1973) लिखा गया. तीनों बार उसने पाकिस्तान की भौगोलिक सीमा के अंदर गिलगित-बाल्टिस्तान को नहीं दर्शाया. अभी भी पाकिस्तान का अनुच्छेद एक उसके चारों प्रांतों को तो दिखाता है, पर इसमें न तो गिलगित-बाल्टिस्तान है, न ही मीरपुर-मुजफ्फराबाद. यहां के लोग पाकिस्तान संसद के वोटर भी नहीं होते हैं. हालांकि सैन्य शासक जनरल जियाउल हक ने यह प्रसारित करना शुरू किया था कि गिलगित, हुंजा और स्कार्दू पाकिस्तान के अभिन्न अंग है, पर बाद मे उन्होंने माना कि गिलगित व बाल्टिस्तान पाकिस्तान का हिस्सा नहीं हैं.

साल 2015 में सरताज अजीज कमेटी की अनुशंसा के आधार पर 2018 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहिद खाकान अब्बासी ने गिलगित-बाल्टिस्तान ऑर्डर 2018 लाया थे, जिसका उद्देश्य ‘गिलगित-बाल्टिस्तान के लोगों को वे अधिकार प्रदान करना है, जो पाकिस्तान के अन्य भाग के नागरिक को प्रदत्त हैं.’ वास्तव में इसका मुख्य उद्देश्य इस क्षेत्र में अपने राजनीतिक व आर्थिक शोषण को वैधानिकता प्रदान करना है और परोक्ष रूप से इसे पाकिस्तान का पांचवा प्रांत बनाना है.

इस क्षेत्र में चीन की अर्थिक गतिविधियां बढ़ने के कारण चीन पाकिस्तान पर दबाव बना रहा है कि यहां शांति व सुरक्षा को सुनिश्चित करे व इससे अपने वैधानिक रिश्ते को सही से परिभाषित करे, जिससे चीन के निवेश में श्रम, संसाधन व जमीन जैसे विषयों में स्पष्टता रहे. चीन का महत्वाकांक्षी कार्यक्रम चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर यहां बन रहा है तथा उसका बांधों व बहुमूल्य धातु खदानों में सीधा निवेश है. स्थानीय लोग बड़े बांधों व अपने आर्थिक शोषण के विरुद्ध आंदोलन करते रहे हैं. बांधों के कारण बहुत बड़ा हिस्सा डूब जायेगा. इसके अतिरिक्त पाकिस्तान सरकार द्वारा जो सांस्कृतिक व पर्यावरण हानि की जा रही है, वह अलग ही है.

दुखद बात यह भी है कि इन बांधो से होनेवाली पूरी आय पाकिस्तान के प्रांत खैबर पख्तूनख्वा को जायेगी क्योंकि अधिकतर कार्यालय वहीं हैं. पाकिस्तान एक रणनीति के तहत अन्य राज्यों से सुन्नी मुसलमानों को लाकर यहां बसा रहा है ताकि यहां की शिया आबादी अल्पसंख्यक हो जाये. उनकी स्थानीय पुरानी भाषाओं की जगह उर्दू थोपी जा रही है. इस ऑर्डर के अनुसार निर्णय लेने का अधिकार प्रधानमंत्री का हो गया है. स्थानीय विधानसभा के किसी भी निर्णय को प्रधानमंत्री बदल सकता है.

पाकिस्तान सरकार किसी भी आवश्कता पर या किसी भी उद्देश्य के लिए भूमि अधिग्रहित कर सकती है. घाव में नमक लगाता हुआ अन्य अनुच्छेद कहता है कि इस क्षेत्र का कोई व्यक्ति या राजनीतिक दल पाकिस्तान की विचारधारा के लिए पूर्वाग्रही या हानिकारक गतिविधियों में भाग नहीं लेगा. इसका सीधा अर्थ है कि चीन और पाकिस्तान के आर्थिक शोषण व बेरोजगारी के खिलाफ कोई कुछ भी विरोध न करे. पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने 1994 में भी ऐसे ही निर्णय के माध्यम से वहां पाकिस्तान के कब्जे को वैधनिकता देना चाहा था. इस क्षेत्र के वास्तविक विकास, मानवाधिकार या राजनीतिक स्वतंत्रता से इस ऑर्डर का कोई लेना-देना नहीं है. यह आर्डर झूठ व छल का पुलिंदा है. पाकिस्तान न तो संयुक्त राष्ट्र की बात मान रहा है, न ही लाहौर या शिमला समझौते की भावना का सम्मान कर रहा है. अब भारत के पास अपने विकल्प खुले हुए हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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