डॉ सय्यद मुबीन जेहरा, सामाजिक विश्लेषक एवं इतिहासकार
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चीन के वुहान से निकला कोरोना वायरस शुरू से ही खतरनाक था, किंतु विश्व स्वास्थ्य संगठन को इसे महामारी घोषित करने में समय लग गया. उसने 11 मार्च, 2020 को कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित िकया. तब तक यह बीमारी कई देशों में कोहराम मचा चुकी थी. सन् 1606 की महामारी और उसके परिणामों को खंगालना शुरू करें, तो कई लोग उस महामारी या प्लेग को सकारात्मक रूप से भी देखते हैं. न्यूटन ने कई थ्योरी और शेक्सपियर ने भी अपनी कई कृतियां इसी महामारी के दौरान रचीं.
हम यह भूल गये कि ये दोनों महान व्यक्तित्व पुरुष थे और इन पर घर के कामों की जिम्मेदारी नहीं रही होगी. यह विचार मेरे मन में इसलिए आया, क्योंकि लॉकडाउन में देखें, तो कई प्रतिभाशाली महिलाएं अपने पेशेवर कर्तव्यों के साथ-साथ घर में बच्चों की देखभाल एवं अन्य कार्यों को भी करने के लिए मजबूर हैं. लेकिन, जब भी कोविड-19 का इतिहास लिखा जायेगा, तो उसमें यह दर्ज नहीं होगा. महिलाओं की महानता की उपेक्षा ही होगी.
दुनियाभर में महिलाएं हिंसा और असमानता के दलदल में धंस रही हैं. महामारी ने तो इसे और खतरनाक बना दिया है. महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा बढ़ी है. बीते 30 जून को आयी संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार, पूरे विश्व में गुमशुदा महिलाओं का आंकड़ा बढ़ गया है. सन् 1970 में गुमशुदा महिलाएं 6.1 करोड़ थीं, जो अब 2020 में 14.26 करोड़ हो गयी हैं. इनमें से 4.58 करोड़ महिलाएं केवल हमारे भारत से ही हैं. सरकारें हमें नीतियां या ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे नारे दे सकती हैं. लेकिन सही तौर पर बेटियों को हमारा समाज ही बचा सकता है.
सवाल यह उठता है कि क्या हमारा समाज महिलाओं की सुरक्षा और स्वास्थ्य की चिंता करता है. आज कोविड-19 महामारी ने यह साबित कर दिया है कि पूरे विश्व में महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर कोई भी समाज गंभीर नहीं है. हमारा परिवार ही महिलाओं के विरुद्ध हिंसा का पहला पायदान बन गया है. कई शोधकर्ताओं ने साबित किया है कि जब भी परिवार एक-दूसरे के साथ समय बिताना शुरू करते हैं, तो महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा में बढ़त देखी जाती है.
परिवार के अंदर उत्पीड़न के कारण महिलाओं के स्वास्थ्य को अधिक नुकसान पहुंचता है. अगर हम हाल के कुछ वर्षों में घटित एबोला, सार्स या जीका वायरस जैसी स्वास्थ्य आपात की स्थितियों को देखें, तो इन सब में एक बात समान है कि इस दौरान लैंगिक असमानताओं में इजाफा हुआ है. इसी प्रकार कोविड-19 के दौर में भी महिलाओं के प्रति हिंसा बढ़ी है. सबसे बड़ा शिकार महिलाओं की आजादी हुई है, जो काफी हद तक पहले से ही अच्छी नहीं थी. ऐसे में महिलाओं को मानसिक, आर्थिक, सामाजिक और स्वास्थ्य से संबंधित कठिनाइयों से भी जूझना पड़ रहा है. कोविड-19 महामारी पूरे विश्व में है, तो यह किस प्रकार महिलाओं के जीवन में असमानताएं ला रही होगी.
दुनिया में हर नौ में से एक बच्ची, जो पांच साल से कम उम्र की है, वह सिर्फ इस कारण मौत का शिकार हो रही है, क्योंकि वह एक लड़की है. दुनिया के कई हिस्सों और सभ्य समाज कहलाने वाले देशों में भी ऐसे रस्म-रिवाज हैं, जो महिलाओं के मानवाधिकार का भरपूर हनन करते हैं. इन सारे अधिकारों का हनन उनके परिवार और समाज की जानकारी और मंजूरी से हो रहा है. इनमें मादा जननांग विकृति, स्तन इस्त्री, कौमार्य परीक्षण तथा बाल विवाह जैसी मानव अधिकार का हनन करने वाली कुरीतियां समाज और धर्म के नाम पर खुले आम चल रही हैं. यह सारी परंपराएं महिलाओं को उनके जायज हक से महरूम करती हैं और उनके शारीरिक और मानसिक विकास में बाधा बनती हैं.
महामारी से उत्पन्न हुईं सामाजिक और आर्थिक चिंताओं ने महिलाओं के हक के लिए लड़नेवाली संस्थाओं और लोगों की मुश्किलों को और बढ़ा दिया है. एक आंकड़े के अनुसार, महिलाओं के राहत कार्यक्रमों में इसी तरह अगर बाधा आती रही और अगले छह महीनों में स्थिति में सुधार नहीं हुआ, तो विश्व में 1.3 करोड़ बच्चियां जबरन शादी का शिकार हो जायेंगी और 20 लाख बच्चियां मादा जननांग विकृति से ग्रस्त होंगी.
अगर इस महामारी से जल्द छुटकारा नहीं मिला, तो वैश्विक स्तर पर हमने महिलाओं की स्थिित को सुधारने में जो भी प्रगति की थी, उसमें ठहराव आ जायेगा. राहत कार्यों में बाधा भी आयेगी. गरीबी और भुखमरी की मार सबसे अधिक महिलाओं को अपनी चपेट में लेगी. महिलाओं को समाज में अपनी पहचान और वजूद की लड़ाई लड़नी होगी. आज दुनियाभर में घरेलू हिंसा में 50 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. विश्व में कम-से-कम 19 प्रकार की कुरीतियां हैं, जो केवल महिलाओं के साथ समाज में उत्पन्न असमानताओं की वजह से हैं.
अभी तो हमने दुनिया के उन हिस्सों की तो बात ही नहीं की है, जो आतंक और उग्रवाद से ग्रस्त हैं. इन सब चिंताओं के बीच हमें अपनी कोशिशों को और तेज करना होगा. महिलाओं के लिए अपने समाज को मजबूत करना होगा. बेटी को पराया धन न मानकर अपना मानना होगा, क्योंकि जो अपना होगा वह प्रिय भी होगा. विश्वव्यापी बदलाव के लिए पूरे विश्व का साथ चाहिए. लेकिन इसकी शुरुआत घर-परिवार-मोहल्ले-शहर-देश से होगी और फिर कहीं दुनिया का नंबर आयेगा. इस लड़ाई में नीति निर्माताओं का सहयोग तो चाहिए ही, साथ ही सामाजिक बदलाव की भी दरकार होगी.
हमें अपने घर की महिलाओं का सम्मान करना होगा, जो दिन-रात हमारे लिए अपने जीवन की अनमोल घड़ियां दे रही हैं. हमें गरीब मजदूर महिलाओं के लिए ऐसे काम करने होंगे, जिनसे उनका परिवार भूखा न सोये. समाज के प्रहरी जो महिलाओं की राहत के लिए लड़ रहे हैं, उन्हें अधिक सजग होना पड़ेगा. याद रहे हमें इस महामारी से जंग में कोरोना को तो हराना है ही, लेकिन अपने समाज की महिलाओं को जिताना भी है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)