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एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय

Pandit Deendayal Upadhyaya : न्यायाधीश की टिप्पणी से खलबली मच गयी, जिस कारण इंदिरा सरकार को जांच आयोग गठित करना पड़ा. पांच महीने बाद, 23 अक्तूबर, 1969 को आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति वाइवी चंद्रचूड़ ने कुछ दिलचस्प टिप्पणियां कीं, 'उपाध्याय की हत्या रहस्यमय परिस्थितियों में हुई थी. जो कुछ हुआ वह कल्पना से भी ज्यादा अजीब है,' लेकिन अफसोस! आज तक भारतीय राजनीति के उन महामनीषी की हत्या के षड्यंत्र का रहस्य इतिहास के पन्नों में दफन है.

Pandit Deendayal Upadhyaya :आज ही यानी 11 फरवरी, 1968 की भोर में भारतीय जनसंघ (वर्तमान भाजपा) के तत्कालीन अध्यक्ष पं दीनदयाल उपाध्याय का शव मुगलसराय रेलवे स्टेशन के यार्ड में पाया गया था. उस घटना से देशभर में सनसनी फैल गयी थी. वह विलक्षण संगठनकर्ता और मौलिक विचारक थे और उनका व्यक्तित्व तेजी से राष्ट्रीय फलक पर उभर रहा था. उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना से मात्र 44 दिन पूर्व, 29 दिसंबर, 1967 को वह कालीकट (केरल) में जनसंघ के 16वें अधिवेशन में दल के अखिल भारतीय अध्यक्ष बने थे. वहां उनके अध्यक्षीय भाषण में देश की राजनीति एवं अर्थनीति पर प्रतिपादित विचारों ने डॉ लोहिया और डा संपूर्णानंद सहित तमाम उद्भट समाजवादियों और साम्यवादियों को विस्मय में डाल दिया था.


57 साल पूर्व घटित उनकी हत्या पर आज तक रहस्य का पर्दा पड़ा है. न तो जांच के लिए अधिकृत सीबीआइ और न ही ‘चंद्रचूड़ आयोग’ दीनदयाल की हत्या के तथ्यों का रहस्योद्घाटन कर सका. सीबीआइ ने अपनी जांच रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला कि पं उपाध्याय की हत्या दो मामूली चोरों- भरत और रामअवध ने की थी और उनका मकसद मात्र चोरी करना था. सीबीआइ की इसी रिपोर्ट के आधार पर 9 जून, 1969 को वाराणसी विशेष सत्र न्यायालय ने अपना फैसला इस टिप्पणी के साथ सुनाया कि ‘वास्तविक सच्चाई का पता लगाना अभी बाकी है.’

न्यायाधीश की टिप्पणी से खलबली मच गयी, जिस कारण इंदिरा सरकार को जांच आयोग गठित करना पड़ा. पांच महीने बाद, 23 अक्तूबर, 1969 को आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति वाइवी चंद्रचूड़ ने कुछ दिलचस्प टिप्पणियां कीं, ‘उपाध्याय की हत्या रहस्यमय परिस्थितियों में हुई थी. जो कुछ हुआ वह कल्पना से भी ज्यादा अजीब है,’ लेकिन अफसोस! आज तक भारतीय राजनीति के उन महामनीषी की हत्या के षड्यंत्र का रहस्य इतिहास के पन्नों में दफन है. इसके साथ ही दफन हो गया था तेजी से उभरता वह दिव्य जीवन, जो भारतीय राजनीतिक क्षितिज पर सनातन धर्म-संस्कृति के आलोक में पूंजीवाद और इसकी प्रतिक्रिया में जन्मे साम्यवाद से इतर, भारत की प्रकृति के अनुरूप युगानुकूल सामाजिक,आर्थिक,संस्कृतिक और वैश्विक मीमांसा प्रस्तुत कर रहा था.

एकात्म मानव दर्शन और इसमें सन्निहित अंत्योदय, स्वदेशी और स्वावलंबन के निकष पर एक समर्थ, शक्तिशाली एवं स्वाभिमानी भारत के निर्माण के स्वप्नद्रष्टा, सादा जीवन, उच्च विचार की प्रतिमूर्ति पं उपाध्याय का वह आकस्मिक अवसान जनसंघ पर वज्रपात बनकर सामने आया था. तभी तो उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी अटल बिहारी वाजपेयी ने बड़े मार्मिक स्वर में उद्गार व्यक्त किया था, ‘सूरज तो अस्त हो गया, अब हमें तारों के प्रकाश में ही मार्ग ढूंढना होगा.’


आज उनकी पुण्यतिथि पर मेरे मन-मस्तिष्क में उनके व्यक्तित्व और विचारों के कई पुण्य-प्रसंग कौंध रहे हैं- राष्ट्र और विश्व के समक्ष खड़े प्रश्नों के निदान के संदर्भ में उनका मूलभूत दृष्टिकोण, समाज की अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति के लिए उनकी संवेदनशीलता व राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय कार्यकर्ताओं के लिए उनका शुचितापूर्ण जीवनादर्श और राष्ट्रधर्म के लिए स्वयंस्वीकृत लक्ष्यों के प्रति उनका संपूर्ण समर्पण. मात्र 52 वर्षों की अपेक्षाकृत छोटी जीवनयात्रा (1916-1968) में उन्होंने चिंतन के जिस विराट को छुआ, वह पुलकित करनेवाला है.


पं दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि आर्थिक योजनाओं और आर्थिक प्रगति की माप समाज के ऊपर की सीढ़ी पर पहुंचे व्यक्ति से नहीं, सबसे नीचे की सीढ़ी पर खड़े व्यक्ति की दशा से होनी चाहिए. स्वस्थ लोकतंत्र के लिए लोक-शिक्षण और ‘लोकमत-परिष्कार’ आवश्यक है और यह कार्य वही कर सकता है, जो ‘लोकेषणाओं’ से ऊपर उठ चुका हो. उनका कहना था कि ‘राजनीतिक प्रजातंत्र’ की अक्षुण्णता के लिए ‘आर्थिक प्रजातंत्र’ अनिवार्य है, जिसका तात्पर्य है -‘प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम जीवन स्तर का आश्वासन.’ राजनीतिक दलों को पद एवं सत्ता के स्वार्थों की पूर्ति के लिए एकत्र लोगों का समूह बनने से बचते हुए कुछ सिद्धांतों व आदर्शों के साथ आगे बढ़नेवाले प्रतिबद्ध संगठन बनने पर उनका जोर था. और अंततः उनका आग्रह इस पर था कि ‘स्वतंत्रता तभी फूल-फल सकती है, जब वह राष्ट्रीय संस्कृति का पोषक बने.’
पं दीनदयाल उपाध्याय को श्रद्धांजलि देते हुए आचार्य कृपलानी ने उन्हें गीता में उल्लिखित ‘दैवीसंपदासंपन्न’ महापुरुष कहा था. आज पुण्यतिथि पर हम पुष्प और धूप-दीप से अपने वैचारिक पुरोधा के प्रति श्रद्धा निवेदन करेंगे ही, परंतु श्रद्धा तभी सार्थक होगी, जब अपने आचरण और कर्मों में उनके आदर्शों को उतार सकें. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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