आधुनिक भारत के निर्माता और पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए उनकी जीवन यात्रा को मोटे तौर पर दो हिस्सों में विभाजित कर सकते हैं. पहला हिस्सा 15 अगस्त, 1947 से पहले का है, जब उन्होंने आजादी के विकट संघर्ष में रत रह कर अपने जीवन के लगभग नौ साल जेलों में बिताये. इसी दौर में उन्होंने हमें ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ जैसी बहुमूल्य पुस्तक भी दी.
दूसरे हिस्से को उनके प्रधानमंत्री काल के तौर पर देख सकते हैं, जिसमें उन्होंने अनेक विडंबनाओं से गुजरते हुए आधुनिक भारत का निर्माण किया. इस सिलसिले में एक ऐतिहासिक प्रसंग को बहुधा याद किया जाता है.
वर्ष 1947 में भारतीय स्वतंत्रता विधेयक पर ब्रिटिश संसद में बहस के वक्त विपक्षी नेता विंस्टन चर्चिल ने उसका विरोध करते हुए न सिर्फ यह कहा था कि भारतवासी स्वशासन के लिहाज से अयोग्य हैं, बल्कि यह भविष्यवाणी भी कर दी थी कि अंग्रेजों के जाने के बाद भारत में निर्मित न्यायपालिका, स्वास्थ्य सेवा, रेलवे व लोक निर्माण आदि संस्थाओं का पूरा तंत्र खत्म हो जायेगा.
इतना ही नहीं, भारत तेजी से शताब्दियों पहले की बर्बरता व मध्ययुगीन लूट-खसोट के साथ सांपों व संपेरों वाले दौर में वापस चला जायेगा, क्योंकि भारतीय नेताओं की जो पीढ़ी हमसे लड़ रही है, उसके खत्म होने के बाद भारतीय अपने ‘असली रंग’ में आ जायेंगे. चर्चिल न सिर्फ ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रहे थे, बल्कि प्रसिद्ध कूटनीतिज्ञ और रणनीतिकार भी माने जाते थे.
स्वतंत्र भारत के समक्ष उनकी भविष्यवाणी को गलत सिद्ध करने की विकट चुनौती थी. भारत सांप-संपेरों के देश की छवि से बाहर निकलकर नियति से ऐतिहासिक साक्षात्कार करते हुए भाखड़ा व नांगल जैसे ‘आधुनिक भारत के नये तीर्थों’ के रास्ते भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन की गर्वीली उपलब्धियों तक पहुंचा, तो इसका सर्वाधिक श्रेय पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को ही जाता है.
यह उनकी प्रगतिशील सोच और सरोकारों का ही फल था कि नव स्वतंत्र भारत पुनरुत्थान के चक्कर में फंसकर अपनी ‘जड़ों’ की ओर नहीं लौटा और सच्चे अर्थों में आधुनिक बनने की ओर बढ़ा. स्वाभाविक ही नेहरू को उसके निर्माता के रूप में पहचाना गया.
यह पंडित नेहरू का ही जीवट था कि उन्होंने बंटवारे के वक्त हिंसक जमातों को यह संदेश देने में कोई कोताही नहीं की कि हमारे पास सह-अस्तित्व का बस एक ही विकल्प है सह-विनाश. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व उनके द्वारा पड़ोसी चीन से किये गये उस बहुचर्चित पंचशील समझौते का भी हिस्सा था, जिसे 1962 में तोड़कर चीन ने आक्रमण किया.
यह उसका बहुत बड़ा विश्वासघात था, जिससे नेहरू टूट कर रह गये और 1964 में 27 मई की दोपहरी में उनका निधन हो गया. आज हम जिन चुनौतियों से दो-चार हैं और उन्हें जटिल होते देख रहे हैं, उनके लिहाज से पंडित नेहरू के संदर्भ में यह याद करना गौरवान्वित करता है कि सितंबर, 1950 में पुरुषोत्तम दास टंडन की अध्यक्षता में नासिक में हुए कांग्रेस सम्मेलन में पंडित नेहरू ने पार्टी के संकीर्णतावादियों को संबोधित करते हुए कहा था, ‘पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर जुल्म हो रहे हैं, तो क्या हम भी यहां वही करें? यदि इसे ही जनतंत्र कहते हैं,
तो भाड़ में जाए ऐसा जनतंत्र!’ फिर उन्होंने प्रतिनिधियों से कहा, ‘आप मुझे प्रधानमंत्री के रूप में चाहते हैं, तो बिना शर्त मेरे पीछे चलना होगा. नहीं चाहते, तो साफ-साफ कहें. मैं पद छोड़ दूंगा और कांग्रेस के आदर्शों के लिए स्वतंत्र रूप से लड़ूंगा.’ उन्होंने यह भी कहा कि हमारे जीवन में ऐसे कुतर्कों की जगह तभी बनती है, जब हम अपने आदर्शों, उद्देश्यों और सिद्धांतों को भूल जाते हैं. उन्होंने यह नसीहत भी दी कि महान कार्य और छोटे लोग एक साथ नहीं चल सकते.
वे एक ऐसे संपन्न परिवार से थे, जिसके बारे में, सच या झूठ, प्रचारित था कि उनके सदस्यों के कपड़े तक फैशन की राजधानी माने जानेवाले पेरिस में धोये जाते हैं. इसके बावजूद उनका जीवन विलासितारहित था. इसे जानने के लिए एक नजीर ही काफी होगी. उनके नाती राजीव गांधी पढ़ने के लिए इंग्लैंड गये, तो नाना के तौर पर वे ही उन्हें नियमित खर्च भेजते थे.
एक बार राजीव ने पत्र लिखकर उनसे कुछ ज्यादा पैसों की मांग की, तो उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारी परेशानी जानकर पीड़ा हुई. पर मेरा विश्वास करो, मैं जो कुछ तुम्हें भेज पा रहा हूं, वही मैं अपने वेतन से अफोर्ड कर सकता हूं. मेरी पुस्तकों की रायल्टी भी अब बहुत कम मिलती है. लगता है, अब उन्हें पहले से कम लोग पढ़ते हैं. मगर तुम अपनी समस्या के समाधान के लिए वहां खाली समय में छोटा-मोटा कोई काम क्यों नहीं करते?
मुझे मालूम है कि दूसरे देशों से जानेवाले ज्यादातर विद्यार्थी वहां काम करते हैं. इस तरह तुम्हें भी शांति रहेगी और मुझे भी.’ बताते हैं कि इस सीख के बाद राजीव गांधी ने कई मामूली समझे जानेवाले काम किये और अपना खर्च चलाया. पंडित नेहरू विचारों के स्तर पर पूरी तरह स्पष्ट थे. उन्होंने जैसे बहुलतावादी भारत का निर्माण करना चाहा, उसे लेकर कई और आलोचना की जा सकती हो, पर यह नहीं कहा जा सकता है कि उनकी प्रगतिशीलता में कोई लोचा है. उनकी व्यक्तिगत व सार्वजनिक नैतिकताओं में भी कोई द्वैध नहीं था.