पंडित जवाहरलाल नेहरू लंबे समय तक भारत के प्रधानमंत्री रहे. उनका पुनर्मूल्यांकन इस दृष्टि से होना चाहिए कि उस अवधि में उपलब्धियां क्या रहीं. महात्मा गांधी ने बड़े भरोसे के साथ उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था. वर्ष 1948 में 29 जनवरी की रात में ढाई-तीन बजे तक जागकर महात्मा गांधी ने जो लिखा, उसमें मुख्यतः दो बातें हैं- पहली बात, कांग्रेस को विसर्जित कर दिया जाए और वह एक लोकमंच बन जाए तथा दूसरी बात, वे पांच कार्य, जो गांधी जी रचनात्मक कार्यकर्ताओं के माध्यम से करना चाहते थे.
इन बातों का संज्ञान पंडित नेहरू ने नहीं लिया. मैं यह भी कहना चाहूंगा कि पंडित नेहरू तब भी और आज भी एक दृष्टिकोण के महानायक हैं. उनका बड़ा योगदान भी निश्चित रूप से है. यदि हम उन्हें माओ या चाऊ एन लाई की तुलना में देखते हैं, तो उन्होंने भारत की शासन व्यवस्था कैसी हो, इस बारे में नहीं सोचा. स्वतंत्रता आंदोलन की प्रेरणाओं को स्वतंत्र होने के बाद साकार करने की दिशा में उन्होंने प्रयास नहीं किया. जिन बातों पर वे मोहित थे और मोहित होने कारण भ्रमित भी थे, उन्हीं को उन्होंने लागू करवाया.
उत्तर-पूर्व भारत के लिए उन्होंने सोवियत संघ के मॉडल पर इंडियन फ्रंटियर सर्विस बनवाई, जो बाद में भारतीय लोक सेवा का हिस्सा बना. सोवियत मॉडल पर ही उन्होंने सामुदायिक विकास का अभियान चलवाया. योजना आयोग ने 1952-57 के बीच इसका जोर-शोर से प्रचार किया था. समीक्षा में पाया गया कि इस योजना के तहत कुछ भी काम नहीं हुआ है, तो उसे छोड़ना पड़ा.
तब जयप्रकाश नारायण का आगमन होता है और पंचायत प्रणाली शुरू होती है, पर वह भी ठीक से लागू नहीं हो सकी. नीति निर्देशक तत्वों में पंचायत प्रणाली भी है. नब्बे के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के कार्यकाल में सही ढंग से पंचायती राज की शुरुआत होती है और 2015 में कुछ आयामों को जोड़कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसे नया जीवंत स्वरूप दिया है.
नवंबर, 1993 में मैंने पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर से पूछा था कि प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्हें किन-किन स्थापित धारणाओं को बदलना पड़ा. उन्होंने अपने बहुत लंबे उत्तर में यह कहा कि अगर वे प्रधानमंत्री न होते, तो प्रधानमंत्री नेहरू का वे सही मूल्यांकन नहीं कर सकते थे. उन्होंने कहा कि पंडित नेहरू विश्व नेता बनना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने राष्ट्रीय हितों की कुर्बानी दी. उन्होंने कई उदाहरण दिये, पर एक खास उदाहरण यह था कि 1954 में चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई समझौते का प्रस्ताव लेकर आये थे.
यदि पंडित नेहरू को राष्ट्रीय हितों की चिंता होती, तो वे समझौते की बात को आगे बढ़ाते. अगर ऐसा होता तो, चीन के साथ हमें युद्ध नहीं लड़ना पड़ता, तिब्बत गंवाना नहीं पड़ता और आज की सुरक्षा समस्या संभवतः इतनी विकराल नहीं होती. इतिहास किसी नायक को माफ नहीं करता. इतिहास का संबंध वर्तमान से होता है. मेरी राय में नेहरूवादी नीतियों ने देश का बेड़ा गर्क किया है. इन नीतियों का युग 2013 तक चलता रहा, चाहे प्रधानमंत्री कोई भी रहा हो.
पंडित नेहरू के निधन के बाद डॉ राममनोहर लोहिया ने बड़ी कीमती बात कही थी. उन्होंने कहा था कि स्वाधीनता सेनानी नेहरू को वे सलाम कराटे हैं, पर प्रधानमंत्री नेहरू ने देश का नुकसान किया है, इसलिए उस नेहरू से मेरी लड़ाई रही है. स्वतंत्रता सेनानी नेहरू एक आदर्श राजनीतिक नेता थे, पर तब गांधी जी का सहारा और नेतृत्व भी था. लॉर्ड माउंटबेटन ने भी दर्ज किया है कि जब कोई बात अटकती थी, तब पंडित नेहरू गांधी जी के पास जाते थे और निर्देश लेते थे.
गांधी जी को भरोसा था कि उनके बाद उनके विचारों को पंडित नेहरू लागू कराने की कोशिश करेंगे, पर ऐसा नहीं हुआ. उन्होंने गांधी के विचारों का सरकारीकरण कर दिया. जहां तक लोकतंत्र का सवाल है, तो वह भारत की मिट्टी में रचा-बसा हुआ है और यह किसी व्यक्ति या राजनेता के कारण नहीं है. इस लोकतंत्र को प्रधानमंत्री बनते ही पंडित नेहरू ने सीमित और संकुचित किया.
पहली लोकसभा के गठन और राज्यसभा बनने से पहले उन्होंने पहला संविधान संशोधन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए किया. सरकार के इस प्रस्ताव पर राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने 11 जून, 1951 को बड़ी हिचक से हस्ताक्षर किया था.
निश्चित रूप से पंडित नेहरू ने स्वाधीनता संग्राम में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. उन्होंने ही 1933 में पहली बार संविधान सभा की अवधारणा प्रस्तुत की थी. संविधान की बात तो बहुत से नेता करते थे, पर उन्होंने एक लेख में निर्वाचित प्रतिनिधियों की एक संविधान सभा की चर्चा की थी. संविधान सभा में ही सत्ता का हस्तांतरण हुआ.
देश का विभाजन एक बेहद दुखद परिघटना है, पर बंटवारे में पंडित नेहरू का दोष नहीं है. उसके लिए जिन्ना और अन्य कुछ नेता तथा अंग्रेजी साम्राज्यवाद जिम्मेदार हैं. पंडित नेहरू एक देशभक्त राजनेता थे, इसमें कोई दो राय नहीं है. उनके त्याग और बलिदान को नकारा नहीं जा सकता है. उन्होंने अगर शासन में गांधी जी की सादगी अपनायी होती, तो इतिहास कुछ अलग होता.