हाल में चुनाव सुधार की दिशा में जितने भी कदम उठे हैं, उनमें सबसे ज्यादा भूमिका या तो सर्वोच्च न्यायालय की रही है या फिर चुनाव आयोग की. तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों की रणभेरी बजने ही वाली है. इन चुनावों में वायदों की बाढ़ आना स्वाभाविक है. उसकी आहट दिखने भी लगी है. ऐसे में चुनाव आयोग के एक दिशा-निर्देश की याद आना स्वाभाविक है.
साल 2015 में चुनाव आयोग ने कहा था कि चुनावी मैदान में उतरते वक्त मतदाताओं से वायदे करते राजनीतिक दलों को यह भी बताना होगा कि वे सत्ता में आने के बाद उन्हें किस स्रोत से पूरा करेंगे. आगामी विधानसभा चुनावों में चुनाव आयोग से यह उम्मीद रखी जा सकती है कि वह अपने उस दिशानिर्देश का पालन करवाने की शुरुआत करे.
भारत में चुनाव लोकप्रतिनिधित्व कानून 1951 के तहत निर्वाचन आयोग कराता है. साल 1990 में जब टीएन शेषन मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनाए गए तो उन्होंने तब तक के उपलब्ध चुनाव कानूनों की बुनियाद पर ही चुनाव सुधार की दिशा में तब असंभव समझे जाने वाले कदम उठाए. इनके बाद पहली बार देश को अहसास हुआ कि चुनाव आयोग नामक कोई दमदार संस्था भी होती है, जो चाहे तो बंदूकों के दम पर बूथ लूटने वाले महाप्रतापी आपराधिक तत्वों पर लगाम लगा सकती है.
ऐसा नहीं कि चुनावों में धन और बाहुबल के प्रयोग, सत्ताधारी दल द्वारा प्रशासनिक मशीनरी के उपयोग को लेकर सवाल नहीं उठते थे. और शायद इसलिए भारतीय चुनावी परिदृश्य में शेषन के उभार के पहले भी चुनाव सुधार के लिए न्यायमूर्ति तारकुंडे समिति और दिनेश गोस्वामी जैसी उच्च समितियां गठित हुईं. इन समितियों ने अपनी रिपोर्टें भी दीं, मगर बात आगे नहीं बढ़ी.
शेषन के बाद अगर चुनाव सुधार में प्रभावी पहल दिखती भी है तो उसमें सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की बड़ी भूमिका है. उसने इस दिशा में सबसे अहम फैसला साल 2002 में दिया, जिसके तहत चुनावों के उम्मीदवारों के लिए आपराधिक मामलों, देनदारी, कर्ज, संपत्ति आदि की जानकारी देना अनिवार्य कर दिया गया.
इसी कड़ी में सर्वोच्च अदालत का सबसे अहम फैसला 13 फरवरी, 2020 को आया, जिसमें उसने संविधान के अनुच्छेद 129 और 142 की शक्तियों का उपयोग करते हुए राजनीतिक दलों से उम्मीदवारों के पूरे आपराधिक इतिहास को प्रकाशित करने का आदेश दिया, और दिशा-निर्देश जारी किया. सभी उम्मीदवारों और उनके परिवार की आर्थिक हैसियत को लेकर हलफनामा देना भी अनिवार्य कर दिया गया.
बहरहाल 2020 के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि उम्मीदवारों के चयन का आधार उसकी योग्यता और उपलब्धियां होनी चाहिए, जीतने की संभावना नहीं. लेकिन दुर्भाग्यवश राजनीतिक दलों के लिए अब भी सबसे पहली योग्यता उम्मीदवार के जीतने की संभावना ही ज्यादा होती है. वैसे कहा जा सकता है कि इस फैसले के आलोक में चुनाव आयोग ऐसा कोई दिशा-निर्देश नहीं जारी कर पाया है, जिससे राजनीतिक दल उम्मीदवारों की योग्यता और उपलब्धियों पर जोर दे सकें. आयोग ऐसी व्यवस्था भी नहीं बना सका है, जिससे उम्मीदवार के येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने की संभावना को महत्वहीन किया जा सके.
इसके बावजूद कह सकते हैं कि देश में जितने भी चुनाव सुधार हुए हैं, वे चुनाव आयोग को अब तक प्राप्त कानूनी और संवैधानिक ताकतों के दायरे में ही हुए हैं. बेशक सर्वोच्च अदालत ने इसमें वक्त-वक्त पर हस्तक्षेपकारी भूमिका जरूर निभाई है. इन्हीं संदर्भों में चुनाव आयोग पर ही एक बार प्रबुद्ध लोगों की निगाह है. जिस तरह वक्त और हैसियत से आगे निकलकर राजनीतिक दल जनता को सुविधाएं देने के लिए वायदों का पिटारा खोल रहे हैं, उनके साइड इफेक्ट सामने आने लगे हैं.
मुफ्त देने के वायदे के साथ पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार तो आ गई, लेकिन अब उसके बोर्डों और निगमों को पैसे की कमी से जूझना पड़ रहा है. पंजाब राज्य परिवहन निगम का घाटा बढ़ता जा रहा है. राज्य बिजली बोर्ड को लेकर राज्य सरकार के दावे और हकीकत में अंतर है. पंजाब में हर महिला को हजार रुपये देने का वादा अब तक पूरा नहीं हो पाया.
यही हाल दिल्ली का भी है. दिल्ली परिवहन निगम में सालों से नयी बसें नहीं आयीं और निगम करीब 45 हजार करोड़ के घाटे में है. यही स्थित दिल्ली जल बोर्ड की है, जो 70 हजार करोड़ के घाटे में है. इसी तरह पुरानी पेंशन योजना लागू करना भी कठिन हो गया है. हिमाचल में भी पुरानी पेंशन और महिलाओं को मासिक भत्ता देने का वादा करके कांग्रेस सत्ता में आई.
लेकिन बढ़ते आर्थिक बोझ के चलते उसे भी इन वायदों को लागू करना मुश्किल पड़ता जा रहा है. मई में कर्नाटक में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पांच गारंटियों का वादा करके जीत गई. लेकिन अब गारंटी पूरा करना उसके लिए कठिन होता जा रहा है. सामान्य विकास के लिए भी धन की कमी पड़ती जा रही है.
इस बीच राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी वायदों की झड़ी लग रही है. राजस्थान में भविष्य में कांग्रेस की ओर से युवाओं को लैपटॉप मिलना है तो मध्य प्रदेश में महिलाओं को हजार रुपये महीना मिलने लगा है. लेकिन यह भी सच है कि इसका दबाव दोनों ही राज्यों की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है. राजस्थान में पुरानी पेंशन योजना का कांग्रेस ने वादा किया, लेकिन उसे लागू करना उसके लिए भी चुनौती बना हुआ है.
हम जिस दौर में रह रहे हैं, उसमें सत्ता और पद ही व्यक्ति और राजनीतिक दलों के रसूख का पैमाना बन गया है. इसलिए हर दल को अगर वायदों का पिटारा खोलना पड़ता है तो वे खोलते हैं. लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में अंतत: घाटा जनता को ही होता है. या तो उसके साथ किए वायदे पूरा नहीं हो पाते या कुछ वर्गों के वायदे पूरे भी हो जाते हैं, तो बाकी वर्ग को उसका भार झेलना होता है.
अनाप-शनाप वायदों को कई बार जन-दबाव में पूरा भी किया जाता है तो उसका साइड इफेक्ट समूचे राज्य के आर्थिक तंत्र पर पड़ता है, और प्रकारांतर से आम लोगों को ही झेलना पड़ता है. चुनाव सुधार की दिशा में आगे बढ़ते रहे चुनाव आयोग को साल 2015 के अपने दिशा-निर्देश को कड़ाई से लागू करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए. वह राजनीतिक दलों से यह जानने की कोशिश करे कि जो वायदे वे कर रहे हैं, आखिरकार वे किस स्रोत से पूरा करेंगे. राजनीतिक दलों पर ऐसा करने का दबाव बढ़ेगा तो निश्चित तौर पर मतदाता भी इसके फायदे और नुकसान को समझ पाएंगे.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)