धर्म का पथ
अध्यात्म के पथ पर चलने वाला मनुष्य सबसे अधिक किसे चाहता है? अथवा मनुष्य का सबसे अधिक प्रिय कौन है? प्रत्येक व्यष्टि सत्ता में ही एक ‘मैं भाव’ है. सभी ‘मैं भाव’ फिर परमसत्ता के मैं भाव’ का ही प्रकाश हैं
अध्यात्म के पथ पर चलने वाला मनुष्य सबसे अधिक किसे चाहता है? अथवा मनुष्य का सबसे अधिक प्रिय कौन है? प्रत्येक व्यष्टि सत्ता में ही एक ‘मैं भाव’ है. सभी ‘मैं भाव’ फिर परमसत्ता के मैं भाव’ का ही प्रकाश हैं, तो प्रत्येक व्यष्टि सत्ता में ही दो प्रकार का ‘मैं रहता है. एक को अगर कहें ‘क्षुद्र मैं’ तो दूसरा है ‘वृहत मैं’. तो जो ‘वृहत मैं’ है, वही हुए परमपुरुष. क्षुद्र में हुआ क्षुद्र सुख और वृहत में हुआ वृहत सुख.
क्षुद्र सुख प्रत्येक व्यष्टि सत्ता के लिए प्रिय है, किंतु वृहत सुख सभी के लिए सबसे अधिक प्रिय है. तो क्षुद्र सुख जहां व्यष्टिगत चीज है, वृहत सुख वहां सार्विक सुख है. अतः वह वृहत सुख ही हैं परमपुरुष, जिसे सामान्य भाषा में कहा जाता है ‘व्यक्तिगत ईश्वर’. दर्शन कहता है कि विश्व ब्रह्मांड का जो नियंत्रणकारी बिंदु है, वही हैं परमपुरुष.
वे सृष्टि चक्र के केंद्र में अवस्थान करते हैं. किंतु वह जो दार्शनिक पुरुष हैं- उस विश्व ब्रह्मांड के प्राण केंद्र स्वरूप जो हैं- वे तो रूपहीन, एक निराकार तत्व हैं, यानी दर्शन की दृष्टि से वे व्यक्तिगत ईश्वर तत्व नहीं हैं. मनुष्य व्यक्तिगत ईश्वर को चाहता है, जिसे वह प्यार कर सकेगा, जिनको वह अपना सुख-दुख, आनंद-निवेदन कर सकेगा. दर्शन के निराकार सत्ता के प्रति मनुष्य का चरम प्रेम, उसकी चरम ममता आ नहीं सकती है.
क्योंकि वह एक भावगत चीज है, भावगत चीज के साथ हृदय का परिपूर्ण मिलन संभव नहीं है, क्योंकि भाव के समक्ष मनुष्य अपना सुख-दुख, व्यथा-वेदना का इतिहास, अपना जो कुछ संशय, जो कुछ ममता या जो कुछ आनंद है, उसे व्यक्त नहीं कर सकता है. वह एक ऐसे पुरुष को चाहता है, एक ऐसी वैयष्टिक सत्ता को चाहता है, जिसको वह अपने अंतर की आकुति संपूर्ण भाव से निवेदन कर सके.तो यही है वैयष्टिक पुरुष की प्रयोजनीयता. मनुष्य आकाश की निहारिका में, उल्का में, ईश्वर की खोज नहीं करता है. वह उन्हीं के बीच में, उन्हीं की अभिव्यक्तियों में, ईश्वर को खोजता है. वह चाहता है, ईश्वर को सोलह आना आश्रय बनाने के लिए. स्वप्न का जाल बुनकर, मनुष्य अल्प क्षण के लिए सुख-शांति पाता है, स्थायी शांति नहीं पाता है. श्री-श्रीआनंदमूर्ति