बैंकिंग जगत में नॉन-परफॉर्मिंग ऐसेट्स या एनपीए के बारे में यह चर्चा सामान्य लग सकती है कि एनपीए बैंकिंग के कारोबार का एक हिस्सा है. कुछ कर्ज तो डूब ही जाएंगे, और कर्ज देने के कारोबार में यह हो ही सकता है. बात जायज लगती है, बस अंतर यह है कि जो बात सिद्धांत में सही लगती हो, जरूरी नहीं कि उसका पालन भी उसी भावना से होता है. कम-से-कम भारत के बैंकिंग जगत में तो यह नहीं हो रहा.
यह वह पेशा है, जिसमें छोटे कर्जदारों को पकड़ने में तो गजब की फुर्ती दिखाई जाती है, मगर बड़े कर्जदारों को छोड़ दिया जाता है. यह इस मशहूर कहावत को साकार करने के जैसा है – ‘अगर आपको बैंक को 100 डॉलर चुकाना है, तो यह आपकी समस्या है. लेकिन, अगर आपको बैंक को 10 करोड़ डॉलर लौटाने हैं, तो यह बैंक की समस्या है.’
क्या यह तस्वीर हाल के समय में बदली है? पिछले कुछ हफ्तों से मीडिया में आयी रिपोर्टों से तो ऐसा ही लगता है, जिनमें बताया गया है कि एनपीए में नाटकीय रूप से कमी आयी है. इनमें 28 जून को रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि पिछले 10 साल में यह सबसे कम रह गया है. रिपोर्ट के अनुसार वित्त वर्ष 2023 में कुल एनपीए 3.9% था, जो 2018 में 11.5% हुआ करता था.
लेकिन, इसी अवधि में कर्ज की राशि में भी वृद्धि हुई, जो वर्ष 2018 में 83.6 करोड़ रुपये से बढ़ कर 135 लाख करोड़ हो गयी है. ऐसे में, जब कर्ज का आकार बढ़ रहा है तो एनपीए में कमी को प्रतिशत के हिसाब से आंकने से शायद पूरी तस्वीर नहीं निकल सकती. फिर भी, सकल एनपीए में गिरावट होना एक बदलाव है. आंकड़ों के आधार पर, आरबीए की रिपोर्ट में कहा गया है, ‘एक ठोस बैंकिंग व्यवस्था की अगुआई में, भारत की वित्तीय व्यवस्था स्थिर बनी हुई है और अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं में सहायक है.’
हालांकि, यह तस्वीर थोड़ी अलग लगेगी यदि एनपीए के मुद्दे को एनपीए के नये मामलों की संख्या के आधार पर समझा जाए. यदि पुराने एनपीए की संख्या इसलिए घट गयी क्योंकि बड़ी संख्या में कर्जों को माफ कर दिया गया, और उसके बाद नए एनपीए बनते रहे, तो ऐसे में अलग तरह के सवाल पैदा होते हैं. बैंकों के पास जितना भी पैसा है, वह भारत के आम नागरिकों का पैसा है. लोगों की बचत के पैसे से बैंक कारोबारियों को पूंजी उपलब्ध कराते हैं, और कारोबारियों को इस पैसे का निवेश करना चाहिए,
ताकि आर्थिक वृद्धि जारी रहे. तो फिर सकल एनपीए कैसे कम हो गया? कर्ज की सख्ती से उगाही अच्छा है, उसे माफ कर देना बुरा है. कर्ज अदायगी को लेकर सख्ती से तगादा करना, और जहां जरूरी हो वहां आपराधिक कार्रवाई करने से ऐसा लगेगा कि एनपीए के बढ़ते संकट पर लगाम लगाने के लिए गंभीरता दिखाई जा रही है.
बहुत मुमकिन है कि कर्ज में फंसे कारोबार वास्तव में मुश्किल में हों. लेकिन अक्सर होता यह है, कि या तो कर्ज की उगाही में ढिलाई बरती जाती है या फिर लोग जानकर कर्ज नहीं चुकाते. वर्ष 2021-22 में सकल एनपीए 5.8 फीसदी था जो राशि में 7.44 लाख करोड़ रुपये होती है. यह संख्या उस वर्ष की शुरुआत के 8.35 लाख करोड़ के एनपीए की राशि से कम है. कमी की सबसे बड़ी वजह कर्जों का माफ किया जाना था. माफ किये गये कर्ज की राशि 1.79 लाख करोड़ रुपये थी.
अहम बात यह है, कि 2021-22 में 2.83 लाख करोड़ रुपये के नये एनपीए शामिल हो गये. यह अभी तक का उपलब्ध नवीनतम आंकड़ा है. दरअसल, पिछले पांच वर्षों में (2018-2022), जब सकल एनपीए 9.2 फीसदी से घट कर 5.8 फीसदी रह गया, कुल 10.25 लाख करोड़ का कर्ज माफ किया गया. इसी अवधि में, 20 लाख करोड़ से थोड़े कम, नये एनपीए जुड़ गये.
इसी अवधि में, माफ कर दिये गये कर्जों, या चुका दिये गये कर्जों की तुलना में, नये एनपीए की संख्या ज्यादा हो गयी. यानी, बैंकिंग व्यवस्था के जहाज में पुराने छिद्रों की मरम्मत तो कर ली गयी, लेकिन नये छिद्र बनते गये जो ना केवल नये हैं बल्कि शायद बड़े भी हैं. ऐसे में, समुद्र में तैरता जहाज स्थिर नहीं रह सकता.
एनपीए की समस्या के हल के लिए, व्यवस्था के तौर पर भी बहुत सुधार नहीं हो रहा. ना तो इनके आकलन में सुधार हो रहा है, ना निगरानी में, ना नियंत्रण में और ना ही इनके प्रबंधन में. बैंकिंग व्यवस्था को यदि सेहतमंद कहलाना है, तो उसे इन पर काम करना होगा. अभी जिस तरह से आंकड़ों को लेकर ढिलाई बरती गयी है, और इनके रख-रखाव को लेकर जिस तरह की चिंता का अभाव दिखता है, उससे ऐसे संकेत मिलते हैं,
जैसे एनपीए को लेकर स्थिति सामान्य हो गयी है, और बैंकिंग व्यवस्था में मान लिया गया है कि भारत में तो ऐसे ही होता है. इससे एक ढीली व्यवस्था को और ढीला होते जाने के लिए बढ़ावा मिलता है, बजाय सख्त और कुशल होने के. कम-से-कम यह तो किया ही जा सकता है कि जानकर कर्ज नहीं चुकाने वाले लोगों के नाम सार्वजनिक किये जाएं, मगर इन्हें लेकर भी कोई ललक नहीं दिखाई देती.
बल्कि इसकी जगह, बैंकों को आपराधिक कार्रवाई करने की जगह ऐसे कर्जदारों से ‘सुलह’ कर कर्ज निपटाने के लिए कहा जा रहा है. ‘सुलह’ का यह खयाल ही ऐसे कर्जदारों को यह संकेत देने के लिए काफी है कि बैंक मामला निपटाने के लिए तैयार है, और एक निश्चित अवधि के बाद आप फिर से कर्ज लेने आ सकते हैं. बैंकिंग जगत में यह बात सामान्य लगे, लेकिन इससे आम लोगों में भरोसा नहीं बढ़ेगा.
सरकारी नीतियों के मामले में राजनेताओं-कारोबारियों की सांठ-गांठ की छवि के साथ इन कदमों से बैंकिंग संस्थाओं की एक ऐसी छवि भी जुड़ जाएगी जो सड़ चुकी है. इससे देश कमजोर होता है और ऐसा लगता है कि यहां केवल उनकी चलती है, जो नियम तोड़ सकते हैं. ऐसे देश में जहां जरूरतमंद बाशिंदों को छोटी सब्सिडी पर भी सवाल उठाये जा रहे हैं, वहां एनपीए को लेकर रवैया दुखद प्रतीत होता है. यह भारत के लोगों का पैसा है, और यदि बैंक इसके समुचित इस्तेमाल की निगरानी नहीं कर सकते, तो कर्जदाता और कर्जदार, दोनों को जवाबदेह बनाया जाना चाहिए. वरना यह गरीबों का पैसा लूट अमीरों की दौलत बढ़ाने के जैसा लगेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)