Places of Worship Act 1991 : ‘जिधर देखो उधर खुदा है
जहां नहीं है, वहां भी खुद जायेगा.’
दिल्ली में मेट्रो निर्माण के वक्त पूरे शहर में चल रही खुदाई को लेकर यह चुटकुला सुना था. आज जहां देखो, खुदाई चल रही है, नहीं तो खुदाई की तैयारी चल रही है, या फिर खुदाई की मांग चल रही है. इतिहास में खुंदक खोजी जा रही है, जहां खोज से बात न बने, वहां आविष्कार किया जा रहा है. पहले मामला अयोध्या की बाबरी मस्जिद तक सीमित था. फिर बताया गया कि अयोध्या तो सिर्फ झांकी थी और काशी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद का मामला उठा. और अब तो जैसे परनाला ही खुल गया है- संभल की जामा मस्जिद, धार (मप्र) की कमाल मौला मस्जिद, चिकमंगलूर की बाबा बुदान गिरी दरगाह, ठाणे की हाजी मलंग दरगाह और अब अजमेर की दरगाह शरीफ. कोई एक दर्जन जगह जमीन के भीतर सर्वे चल रहे हैं.
क्या हमें एक बार रुक कर सोचना नहीं चाहिए? ये रास्ता हमें कहां ले जायेगा? कहां-कहां किस-किस को खोदेंगे हम? सब कुछ खोदने पर जो कुछ मिलेगा, उस पूरे सच का सामना कैसे करेंगे हम? आज हम जो चाहे मनमानी कर लें, इसका दीर्घकालिक परिणाम देख भी सकते हैं हम? एक बार ठंडे दिमाग से सोचिए. पिछले पांच हजार साल से इस देश में किस-किस राजा ने किस-किस धर्मस्थल को तोड़ा होगा? अगर उस सब का हिसाब बराबर करने पर तुल गये, तो इस देश में क्या कुछ खोदना पड़ेगा? बेशक आज हमें मुस्लिम राजाओं द्वारा हिंदू मंदिरों को तोड़ने की कहानी याद रहती है, चूंकि याद दिलायी जा रही है. लेकिन उससे पहले और उस दौरान भी कितने हिंदू राजाओं ने हिंदू मंदिरों को तोड़ा था, दूसरे राजा के कुलदेवता की मूर्ति को तोड़कर अपने कुलदेवता की प्राण प्रतिष्ठा की थी, एक संप्रदाय के मंदिर को ध्वस्त कर अपने संप्रदाय के मंदिर बनाये थे. उन सबका हिसाब करेंगे हम?
इतिहासकार बताते हैं कि शुंग वंश के ब्राह्मण राजा पुष्यमित्र शुंग ने पूर्व से पश्चिम तक अनगिनत बुद्ध और जैन धर्मस्थलों का ध्वंस किया था. मध्यकाल में भी मराठा फौज ने श्रीरंगपट्टनम के मंदिर को ध्वस्त किया था. विभाजन के दंगों में अगर सीमा के उस पार मंदिर और गुरुद्वारे तोड़े गये थे, तो इस पार न जाने कितनी मस्जिदें टूटी थीं. इतिहासकार डीएन झा के अनुसार, भूतेश्वर और गोकर्णेश्वर मंदिर संभवतः एक जमाने में बुद्ध विहार रहे थे. इतिहासकारों की छोड़ भी दें, तो स्वयं स्वामी विवेकानंद ने दर्ज किया है कि पुरी का जगन्नाथ मंदिर मूलतः एक बौद्ध मंदिर था. आज भले ही जैन धर्मावलंबी यह दावा न ठोंके, आज बौद्ध लोग इन धर्मस्थलों को वापस मांगने की स्थिति में न हों, लेकिन भविष्य में ऐसा नहीं होगा, इसकी क्या गारंटी है? आज भले ही शक्ति का संतुलन एक पक्ष में है, लेकिन आज से सौ साल बाद क्या होगा, कौन कर सकता है? अगर ऐतिहासिक अन्याय का बदला लेने और अपने-अपने धर्मस्थल को दुबारा हासिल करने का सिलसिला चल निकला, तो कौन बच पायेगा? इस खुदाई के उन्माद में मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, बौद्ध विहार निकलें या न निकलें, भारत की जड़ जरूर खुद जायेगी. न धर्म बचेगा न देश.
इस पागलपन से बचने का एक ही रास्ता है. सब भारतवासी मिलकर एक लकीर खींच दें और तय कर लें कि फलां तारीख से पुराने हर विवाद पर ढक्कन लगा कर उसे बंद कर दिया जायेगा. और वह तारीख एक ही हो सकती है- 15 अगस्त, 1947, जब हमने स्वतंत्र भारत की यात्रा शुरू की थी. यही काम भारत की संसद द्वारा पारित ‘पूजा स्थल अधिनियम, 1991’ ने किया था. उस समय विवादित बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि स्थल को छोड़कर देश के बाकी सब पूजा स्थलों के बारे में यह कानून बना था कि 15 अगस्त, 1947 के दिन जो धर्मस्थल जिस धर्म-संप्रदाय-समुदाय का था, वैसा ही रहेगा. उससे पुराने विवाद को किसी कोर्ट कचहरी में दुबारा खोला नहीं जा सकेगा.
पिछले 33 साल से यह कानून चल रहा है. अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस कानून की पुष्टि की. लेकिन फिर न जाने क्यों वह फैसला लिखने वाले मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने ही खुद ज्ञानवापी मामले में सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी कर दी कि पुराने मुकदमे को खोला भले ही न जाये, धर्मस्थल के स्वरूप की जांच के लिए सर्वे जरूर किया जा सकता है. यह अदालत का आदेश नहीं था, लेकिन उस विवादास्पद टिप्पणी की ओट लेकर जगह-जगह नित नये सर्वे और विवाद का सिलसिला शुरू हुआ है. फिलहाल मुख्य न्यायाधीश खन्ना के नेतृत्व वाली खंडपीठ ने 12 दिसंबर को इस मामले की पहली ही सुनवाई में देशभर में ऐसे सभी सर्वे या ऐसे किसी भी मामले में अदालती आदेश पर रोक लगा दी है. इस देश का भला चाहने वाला हर नागरिक सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का स्वागत करेगा और यह उम्मीद करेगा कि इस मामले की पूरी सुनवाई कर सुप्रीम कोर्ट 1991 के कानून की पुष्टि करते हुए गड़े मुर्दे उखाड़ने के सिलसिले को हमेशा के लिए रोक देगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)