PM Modi Ukraine visit: भारत बुद्ध और गांधी की धरती है. लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध में कई पेंच हैं. इसमें अनेक पक्ष हैं, जिनके निहित स्वार्थ हैं. जब तक उनकी मंशा साफ नहीं होगी, शांति बहाली मुश्किल है. दुनिया को मालूम है कि यह युद्ध क्यों शुरू हुआ और किसका दोष ज्यादा है. क्या अमेरिका के निहित स्वार्थ को समझे बिना युद्ध थम जायेगा? भारत अमेरिका के साथ-साथ रूस का भी मित्र है. भारत किसी भी शक्ति के प्रभाव में अपनी सोच और नीति से समझौते के पक्ष में नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी की यूक्रेन यात्रा ऐतिहासिक है. कूटनीतिक नजरिये से भी इसकी बड़ी अहमियत है. उन्होंने युद्ध में मारे गये बच्चों के बारे में जानकर कहा कि किसी भी सभ्य समाज में घटनाओं को स्वीकार नहीं किया जा सकता. उन्होंने कहा कि वे यूक्रेन की धरती पर शांति का संदेश लेकर आये हैं. उन्होंने कहा कि हम दृढ़ता से युद्ध से दूर रहे हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम तटस्थ हैं.
प्रधानमंत्री मोदी की यूक्रेन यात्रा से पहले बड़ा सवाल यह था कि क्या यह पिछले महीने उनकी मास्को यात्रा पर पश्चिमी देशों की नाराजगी के बाद भू-राजनीतिक क्षति नियंत्रण की कवायद है और क्या यह भारत के पश्चिमी साझेदारों को संदेश है कि भारत रूस के पक्ष में नहीं है. अब जब यह यात्रा समाप्त हो चुकी है, यह अधिक प्रासंगिक प्रश्न प्रतीत होता है कि क्या इस यात्रा ने मास्को को कोई संदेश दिया है. रूस और भारत के रक्षा सहयोग के बारे में सभी जानते हैं. पर यूक्रेन के साथ रक्षा सहयोग की दिशा में पहल का उल्लेख आश्चर्यजनक था.
यह संभव है कि इससे रूस में भौहें चढ़ गयी हों. यह पहलू और ध्यान देने योग्य हो गया कि जब प्रधानमंत्री मोदी यूक्रेन की राजधानी कीव में थे, भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन में थे और दो नये समझौतों पर हस्ताक्षर कर रहे थे. प्रधानमंत्री मोदी ने इससे पहले रूस का दौरा किया था और इसलिए वैश्विक मीडिया की नजरें उनकी यूक्रेन यात्रा पर टिकी हुई थीं. उनके इस दौरे को बीबीसी ने ‘कूटनीतिक संतुलन का परीक्षण’ बताया. विदेशी मीडिया प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा का चित्रण जिस रूप में भी करे, पर कुछ बातें स्पष्ट हैं.
पहला, युद्ध केवल भारत के कहने से नहीं रुकेगा. युद्ध केवल यूरोप में ही नहीं है, बल्कि मध्य-पूर्व एशिया में भी चल रहा है. ताइवान और दक्षिण चीन समुद्र के मुहाने पर युद्ध की स्थिति बन रही है. दुनिया के सभी महत्वपूर्ण देश इन तीनो संघर्षों में शामिल हैं. भारत की बात कौन सुनेगा! न तो चीन से ऐसी अपेक्षा की जा सकती है और न ही अमेरिका से, जिसकी भूमिका बांग्लादेश के हालिया घटनाक्रम में संदिग्ध रही है. अमेरिका के अपने निहित स्वार्थ हैं. युद्ध के जरिये वह यूरोप को नाटो के मजबूत धागे से बांधकर रखना चाहता है, जिससे वह महाशक्ति बना रहे. चीन अपना वजूद मजबूत बनाने के लिए अमेरिकी ताकत को चुनौती देता रहा है. क्या ये दोनों देश भारत की सलाह मानने के लिए तैयार होंगे?
दूसरा, विश्व पुनः दो भागों में विभाजित होता दिख रहा है. एक तरफ अधिनायकवादी राजनीतिक शक्तियों वाले देश हैं, जिनमें रूस, चीन, ईरान और उत्तर कोरिया को एक साथ देखा जा सकता है. लैटिन अमेरिका के कुछ देश भी इसमें शामिल हो सकते है. दूसरी तरफ नाटो से जुड़े हुए देश हैं, जिनकी अगुवाई अमेरिका कर रहा है. तीसरा खेमा तटस्थ देशों का है, जिसमें भारत सहित दुनिया के ज्यादातर देश शामिल हैं. ग्लोबल साउथ के इन देशों की अपनी दरकार है. वे शांति के पक्ष में हैं. वे मजबूत अंतरराष्ट्रीय संगठन की गुहार भी लगा रहे रहे हैं, जो युद्ध की विभीषिका को रोक सके. पर यह ढांचा बनाने में समय लगेगा.
तीसरा, यूरोप की मानसिकता एक-दूसरे के विरोध में बनकर तैयार हुई है. अंधकार युग के बाद राष्ट्र-राज्य की उत्पत्ति एक-दूसरे के विरोध में हुई थी. उपनिवेशवाद ने इसे और हवा दिया. एंग्लो-फ्रेंच युद्ध उसी का नतीजा था. रूस में कम्युनिस्ट क्रांति ने जले पर नमक का काम किया. लेनिन की आम सहमति वाला संघ स्टालिन काल में बदल गया. पूर्वी और मध्य यूरोप के देशों के पैर जकड़ दिये गये. साल 1990 के बाद के परिवर्तन ने आपसी नफरत को कम नहीं किया. इसलिए शांति की बात इन देशों में अंग्रेज भू-राजनीतिक विद्वान मैकिंडर के सिद्धांत पर चलती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि जो पूर्वी यूरोप को कब्जे में लेगा, वह मुख्य भूमि का मालिक होगा और जो मुख्य भूमि का मालिक होगा, वह दुनिया पर राज करेगा. रूस और अमेरिका इसी सोच के साथ चल रहे है, जहां मूल्य और मानवीय संवेदना किताबी बातें हैं. नियम तो ताकत से तय होते हैं. इसलिए प्रधानमंत्री मोदी की ऐतिहासिक पहल इतिहास की किताबों में जरूर याद की जायेगी, लेकिन इससे युद्ध नहीं थमेगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)