Political Fight Between Congress BJP : संविधान बचाने की सियासी लड़ाई किस मंजिल पर पहुंच गयी है, इसका अंदाजा बीते 19 दिसंबर को संसद परिसर में हुई घटनाओं से लगाया जा सकता है. संसदीय इतिहास में यह पहला मौका रहा, जब सत्ता पक्ष और विपक्ष के सांसद न सिर्फ आमने-सामने आये, बल्कि धक्का-मुक्की भी हुई, जिसमें भाजपा के दो सांसद चोटिल हो गये. धक्का-मुक्की का आरोप नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी पर लगा है. उन पर नगालैंड की महिला भाजपा सांसद फांगनान कोन्याक ने बदसलूकी करने का आरोप लगा.
Political Fight Between Congress BJP : संसदीय राजनीति में नरेंद्र मोदी अजेय योद्धा के रूप में उभरे
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से संसदीय राजनीति में नरेंद्र मोदी अजेय योद्धा के रूप में उभरे हैं. इसके बाद भाजपा जैसे चुनाव जीतने की मशीन बन गयी. उत्तर पूर्व के कुछ राज्यों, कर्नाटक, तेलंगाना, हिमाचल, झारखंड, पश्चिम बंगाल आदि को छोड़ दें, तो नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा चुनाव जीतने का रिकॉर्ड बनाती गयी है. स्वाधीनता के बाद के करीब चार दशक तक ऐसी स्थिति सिर्फ कांग्रेस की ही रही. भाजपा इस दौर में तकरीबन अजेय पार्टी के रूप में उभरी है. ऐसे में स्वाभाविक है कि उसे सियासी मात देने के लिए विपक्षी खेमा मुद्दों और मौकों की खोज करता. विपक्ष की खोज ‘खतरे में संविधान’ के मुद्दे पर खत्म हुई. इस कथित खतरे को विपक्ष ने बीते लोकसभा चुनाव में इतना तूल दिया कि भाजपा बहुमत के आंकड़े से दूर रह गयी. इस मुद्दे को जिंदा रखने की कोशिश तब से विपक्ष लगातार कर रहा है.
लोकसभा सांसदों के शपथ लेने के वक्त देश ने देखा कि विपक्षी सांसदों ने संविधान हाथ में लेकर प्रदर्शित किया. हालांकि विपक्षी खेमे में संविधान की किताब के रंग का अंतर रहा. कांग्रेस के सांसदों ने संविधान के लाल रंग की प्रति प्रदर्शित करते हुए शपथ ली, तो गैर कांग्रेसी सांसदों के हाथों में नीले रंग वाली संविधान की प्रति थी. वायनाड से जीतकर संसद पहुंची प्रियंका ने भी इस परंपरा को जिंदा रखा. बहरहाल यह सवाल उठना लाजमी है कि क्या सचमुच संविधान खतरे में है. भारत का संसदीय जनतंत्र जिस मुकाम पर पहुंच गया है, भारत की न्याय व्यवस्था ने जिस तरह की स्वायत्त ताकत हासिल कर ली है, मौजूदा परिस्थितियों में किसी भी राजनीतिक दल के लिए संविधान को खारिज कर पाना संभव नहीं है.
Political Fight Between Congress BJP : इमरजेंसी लागू करने की हिमाकत नहीं करेगी कोई सरकार
संवैधानिक ताकत और प्रावधान होने के बावजूद अपार बहुमत प्राप्त सरकार भी शायद ही दोबारा आपातकाल लगाने की हिम्मत दिखा सके. ऐसे में ‘खतरे में संविधान’ की बात करना ही बेमानी है. लेकिन विपक्ष ने जिस तरह का हल्ला मचा रखा है,उससे इतना जरूर हुआ है कि आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर तबके के एक वर्ग को विपक्षी रट में सच्चाई दिखने लगी है. इस सच्चाई का ही प्रतीक है बीते लोकसभा चुनाव के नतीजे. विपक्षी खेमा अक्सर प्रधानमंत्री मोदी को जुमलेबाज बताकर उनकी आलोचना करता है. लेकिन‘संविधान बचाने की रट’भी एक तरह की जुमलेबाजी ही है. विपक्ष ऐसा कर क्यों रहा है? इसके लिए कांग्रेस की राजनीतिक कामयाबी के इतिहास को देखना होगा.
इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर को छोड़ दें, तो मोटे तौर पर कांग्रेस जातीय गणित का समीकरण साधकर राजनीतिक जीत हासिल करती रही. अतीत में कांग्रेस का आधार वोट बैंक दलित, ब्राह्मण और मुस्लिम समुदाय रहा. देश में करीब सात से आठ प्रतिशत ब्राह्मण मतदाता हैं, जबकि करीब 17 फीसदी दलित और करीब 14 प्रतिशत मुस्लिम वोटर हैं. समाजवादी राजनीति के उभार के बाद देश के अन्य पिछड़ा वर्ग के करीब 45 फीसदी वोटरों में से ज्यादा पर समाजवादी राजनीति की पकड़ रही. समाजवादी राजनीति के तेज उभार के बाद मुस्लिम वोटरों का बड़ा हिस्सा जहां इस ओर बढ़ा, वहीं दलित वोट बैंक पर कांशीराम और दूसरे नेताओं की नयी सामाजिक कीमियागीरी ने कब्जा कर लिया. इसलिए पिछली सदी के 90 के दशक से कांग्रेस का वोट बैंक खिसकता चला गया.
नयी सदी के दूसरे दशक में मोदी और अमित शाह की अगुवाई में सामने आयी भाजपा ने इस पूरे वोट समीकरण को ही तहस-नहस कर दिया. भाजपा ने जहां इसके दलित वोट बैंक में सेंध लगायी, वहीं अति पिछड़े वर्ग को अपने पाले में किया. अब तो तकरीबन पूरे देश के सवर्ण समुदाय में उसकी पकड़ बन गयी है, बावजूद इसके कि उसकी पूरी राजनीति दलित और पिछड़ा केंद्रित हो गयी है. भाजपा की इस सामाजिक कीमियागीरी का ही असर रहा कि उसके करीब 75 सांसद चुनाव जीतकर संसद पहुंचे.
Political Fight Between Congress BJP : दलित वोट बैंक पर कब्जे की जंग
भाजपा को मात देने की कोशिश में जुटी कांग्रेस और उसकी अगुवाई वाले विपक्ष को लगता है कि जब तक वह दलित वोट बैंक को लेकर भाजपा पर निशाना साधेगी, तब तक वह विजेता बनकर नहीं उभर पायेगी. यही वजह है कि 2014 से ही दलित केंद्रित राजनीति को लेकर भाजपा को घेरने की कोशिश जारी है. हाल के कुछ वर्षों में डॉ भीमराव आंबेडकर दलित राजनीति के बड़े चेहरे के तौर पर स्वीकार्य हुए हैं. इसलिए आंबेडकर को लेकर भी राजनीति तेज हो गयी है. भाजपा ने आंबेडकर की वैचारिकी को स्वीकार कर लिया, तो कांग्रेस भी अब उसी ओर आगे बढ़ चुकी है. संसद सत्र में आंबेडकर को लेकर हुई राजनीतिक कुश्ती दरअसल इसी प्रक्रिया का परिणाम है.
चूंकि कांग्रेस और उसकी छतरी के नीचे खड़े विपक्ष को लगता है कि आंबेडकर का अपमान और संविधान की रक्षा का नारा दलितों के मर्म को छूता है, इसलिए वह इस मुद्दे को तूल दे रहा है. वहीं भाजपा को भी लगता है कि अगर उसने इस मुद्दे के साथ ढिलाई बरती और कांग्रेसी कठघरे में वह खड़ी दिखी, तो उसका सारा श्रम बेकार चला जायेगा. खून-पसीने से खड़ा उसका दलित और अति पिछड़ा वोट बैंक बिखर जायेगा. भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में आंबेडकर स्थापित हो चुके हैं. इसे स्वीकार किया जा चुका है. इस स्वीकार्यता में संविधान का मूल मसविदा तैयार करने वाले आंध्र प्रदेश के वकील बीएन राव की मेहनत कहीं किनारे खिसका दी गयी है. संविधान सभा के 389 सदस्यों का श्रम और उनके विचार भी भुला दिये गये. वैसे ये सब इतिहास के तथ्य हैं. इतिहास तथ्यों के साथ आगे बढ़ता है, तो उससे भविष्य की तसवीर साफ दिखती है. लेकिन वह जब धारणा पर चलने लगता है, तो उसकी अपने हिसाब से व्याख्या की गुंजाइश बन जाती है. इतिहास को इस तरह से अतीत में कांग्रेस की अगुवाई में प्रगतिशील खेमा प्रस्तुत करता रहा है, जो अब परिपाटी ही बन गयी है. इसी का नतीजा है कि ‘संविधान बचाओ’ के सच को जानने की कोशिश कम हो रही है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)