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संभव है टमाटर संकट का समाधान

टमाटर जैसी सब्जियों के संकट को टालने के लिए कुछ कदम उठाये जा सकते हैं. जैसे, सबसे पहले तो इनके उत्पादन का स्पष्ट आंकड़ा उपलब्ध होना चाहिए. प्याज, आलू जैसी सब्जियों में तो काफी हद तक इसका पता चल जाता है.

टमाटर की कीमतों का संकट शुरू हुए एक महीने हो रहा है. इस संकट की वजह को समझने की जरूरत है. रबी के मौसम में नवंबर के महीने में टमाटर की बुवाई होती है और फरवरी तक फसल तैयार हो जाती है. इस वर्ष फरवरी में पैदावार एकदम सामान्य थी. टमाटर की ज्यादातर खेती उत्तर भारत के राज्यों के अलावा महाराष्ट्र, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में होती है. गर्मियों में कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में टमाटर की खेती होती है.

टमाटर किसान अपनी पैदावार आढ़ती के पास रख आते हैं और अगले दिन वह उन्हें बताता है कि उनका टमाटर इतने में बिका. लेकिन, जब रबी की फसल आयी तो उसकी कीमत बहुत कम मिल रही थी. जून के महीने तक किसानों को टमाटर की प्रति किलोग्राम चार या पांच रुपये की कीमत मिल रही थी. जबकि, उस समय बाजार में इसकी कीमत 35-40 रुपये किलो थी. इसकी वजह से बहुत सारे किसानों ने अपनी 15-20 फीसदी फसलें खेतों में ही छोड़ दीं. टमाटर की खेती में हाथ से काम ज्यादा होता है क्योंकि इसमें टमाटर तोड़ने पड़ते हैं.

इसलिए किसानों को लगा कि उन्हें फायदा नहीं हो रहा, और फसल खेतों में बर्बाद हो गयी. इससे रबी मौसम की फसलों की आपूर्ति कम हो गयी. दूसरी ओर, बारिश और भूस्खलन आदि की वजह से दक्षिण भारत से जो सप्लाई आती थी, उसमें भी बाधा आने लगी. आपूर्ति घटने की एक और वजह यह रही कि कर्नाटक के जिन इलाकों में टमाटर की खेती होती है, वहां बारिश नहीं हुई, जिससे उस इलाके की फसल प्रभावित हो गयी. तो, इन दो मुख्य कारणों से टमाटर की आपूर्ति कम हो गयी. इसके साथ-साथ कुछ गैरजरूरी कारण भी जुड़ गये. जैसे, व्यापारियों और बिचौलियों ने सांठ-गांठ कर दाम अचानक से बढ़ा दिये.

दरअसल, टमाटर एक ऐसी फसल है जो जल्दी नष्ट हो जाती है. किसानों के पास ऐसी कोई सुविधा नहीं है जिससे वह फसल का भंडारण कर सकें और बाद में जरूरत के हिसाब से उसे बेच सकें. इसके साथ ही, टमाटर की कोई न्यूनतम कीमत तय नहीं होती. सरकार भी इस पर कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित नहीं करती. ऐसे में टमाटर या सब्जियों जैसी फसलों की कीमतों के निर्धारण की कोई व्यवस्था अभी तक नहीं है.

इसलिए उसमें उतार-चढ़ाव आते रहते हैं. टमाटर की खेती में लागत बहुत ज्यादा है. किसान को प्रति हेक्टेयर उत्पादन के लिए डेढ़ लाख रुपये लगाने पड़ते हैं. एक अन्य कारण यह भी है कि टमाटर की खेती करने वाले किसानों की संख्या बहुत अधिक नहीं है. ऐसे में जब तक इन्हें लेकर कोई निश्चित व्यवस्था नहीं होगी तब तक कीमतों की यह समस्या बनी रहेगी.

समस्या के हल के इरादे से सरकार ने 2019 में एक योजना बनायी थी. इसका नाम टॉप था- यानी टोमैटो, अनियन और पोटैटो. उसमें आलू, प्याज, टमाटर जैसी बड़े पैमाने पर खपत होने वाली सब्जियां उगाने वाले किसानों को प्रोत्साहन और मदद देने का प्रयास किया गया. उसमें फसल के भंडारण और उनकी ढुलाई पर सब्सिडी जैसे प्रावधान रखे गये थे. लेकिन, वह योजना बहुत कामयाब नहीं हो पायी और जमीनी स्तर पर उनका कोई असर नहीं हो सका.

सुविधाओं का लाभ संभवतः बड़े किसानों और व्यापारियों तक ही सीमित रहा. सामान्य किसानों को कोई खास लाभ नहीं हो सका. इसलिए आज उस योजना की कोई चर्चा भी नहीं होती. जबकि, उस योजना की घोषणा प्रधानमंत्री ने की थी और बजट में भी उसका उल्लेख किया गया था. इसके अलावा, सरकार ने मार्केट इंटरवेंशन या एमआइ योजना भी शुरू की थी.

उसके तहत यह प्रावधान रखा गया था कि ऐसी फसलों की कीमतों के गिरने पर, जिनके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा नहीं की गयी हो, उन फसलों के लिए मदद की जायेगी. इसमें बाजार में जाकर खरीदारी करने जैसे उपायों से कीमतों को नियंत्रित करने के प्रयास जैसे उपाय सुझाये गये थे. लेकिन, वह योजना भी लगभग निष्क्रिय हो चुकी है. इसलिए यह एक बड़ी चुनौती है कि इस समस्या को लेकर ना तो केंद्र के स्तर पर और ना ही राज्य सरकारों के स्तर पर कोई व्यवस्था बनायी जा सकी है.

इस तरह की फसलों की उम्र कम होती है, इसलिए उनके भंडारण की व्यवस्था की जानी चाहिए. इसके बाद एक बड़ी चुनौती मार्केटिंग की है. एक बेहतर व व्यवस्थित मार्केटिंग व्यवस्था के अभाव में किसान इन फसलों के मामले में पूरी तरह से आढ़ती व्यवस्था पर निर्भर होता है. इस वजह से ही बीच-बीच में इस तरह से कीमतें ऊपर-नीचे जाने लगती हैं.

पिछले दिनों रिजर्व बैंक की एक रिपोर्ट आयी थी, जिसमें बताया गया था कि आलू, प्याज और टमाटर की कीमतों में आपसी संबंध होता है. इस रिपोर्ट में पिछले आंकड़ों के अध्ययन के आधार पर बताया गया था कि यदि इन तीनों सब्जियों में से किसी एक की कीमत बढ़ती है, तो बाकियों के भी दाम बढ़ने लगते हैं. एक और खास बात यह है कि जल्दी खराब होने वाली सब्जियों की कीमतों का संकट तो पैदा होता रहता है.

लेकिन दूध जैसा उत्पाद तो इन सब्जियों से भी जल्दी खराब होने वाला उत्पाद है, यह कुछ ही घंटे में खराब हो जाता है. मगर दूध की कीमतों में वैसा उतार-चढ़ाव नहीं आता. ऐसा नहीं होता कि 50 रुपये में बिकने वाला दूध अचानक से 200 रुपये में बिकने लगे. ऐसा इसलिए होता है कि दूध की प्रोसेसिंग, वितरण और मार्केटिंग का काम काफी हद तक संगठित है. दुग्ध उत्पादन में एक व्यवस्था बनी हुई है.

टमाटर जैसी सब्जियों के मामले में सहकारिता जैसी कोई व्यवस्था नहीं बन पाती क्योंकि चुनिंदा किसान ही इनकी खेती करते हैं, जिनमें से अधिकतर छोटे किसान होते हैं, और जो बड़े किसान होते हैं, वह भी इसकी खेती मुख्य फसल के तौर पर नहीं करते. हालांकि, मदर डेयरी जैसे संगठनों ने किसानों से सीधे सब्जियां लेकर बेचने के प्रयास शुरू किये, लेकिन वह दूध की तरह कामयाब नहीं रह सका.

टमाटर जैसी सब्जियों के संकट को टालने के लिए कुछ कदम उठाये जा सकते हैं. जैसे, सबसे पहले तो इनके उत्पादन का स्पष्ट आंकड़ा उपलब्ध होना चाहिए. प्याज, आलू जैसी सब्जियों में तो काफी हद तक इसका पता चल जाता है. साथ ही, इनकी बेहतर तरीके से खेती की भी कोशिश से फायदा होगा. मगर ऐसी सब्जियों के मामले में सबसे बड़ी चुनौती उनके भंडारण और उनके यातायात की है, जिसकी व्यवस्था होनी चाहिए. (बातचीत पर आधारित)

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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