जिस प्रकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मानचित्रण लुटियन के प्रारूप को सेंट्रल विस्टा से विस्थापित कर रहा है, उनकी मुहर एक बार फिर रायसीना पहाड़ी पर स्थित राष्ट्रपति भवन में दिखेगी. फिर भी, मीडिया के गणमान्य, राजनीति के जानकार और कद्दावर राजनेता नये राष्ट्रपति के नाम का कयास लगाने से बाज नहीं आ रहे, जो अगले माह पदमुक्त हो रहे राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद (यदि उन्हें फिर से नामित नहीं किया जाता है) की जगह लेगा.
दिल्ली के ये शौकिया ज्योतिषी अच्छी तरह जानते हैं कि ये लोग बस चर्चा ही कर रहे हैं. राष्ट्रपति का कार्यकाल समाप्त होने के ठीक पहले अनुमान लगाने वाले ये ज्ञानी जुटते हैं और उम्मीदवार चुनते हैं. पर जीत उसी की होती है, जो प्रधानमंत्री की पसंद हो. यह भी आवश्यक नहीं कि वह सत्तारूढ़ दल द्वारा नामित हो. वर्ष 1967 से भारतीय गणराज्य का राष्ट्रपति प्रधानमंत्री द्वारा तय होता है. ऐसी ही एक पसंद के कारण 1969 में कांग्रेस का विभाजन हो गया था. भारत की सशस्त्र सेनाओं के भावी मुख्य सेनापति और भारत के राष्ट्रपति के विचारधारात्मक रंग का निर्णय केवल मोदी द्वारा होगा और वह रंग मोदी के प्रभाव वाला केसरिया होगा.
इस पद का संवैधानिक चक्र हर पांच साल में पूरा होता है. राष्ट्रपति पद के लिए कवायद केवल 330 एकड़ जमीन, 340 कमरे, ढाई किलोमीटर लंबे गलियारों वाले परिसर पर कब्जे के लिए नहीं होती है. प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी पसंद के बारे में कोई संकेत नहीं दिया है और उन्होंने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को सर्वसम्मति के लिए विपक्ष को मनाने की जिम्मेदारी दी है.
लेकिन विपक्ष, जिसकी पसंद शरद पवार थे और उन्होंने मना कर दिया है, अपनी प्रतिक्रिया देने से पहले सत्ताधारी दल से नाम मांग रहा है. उनके अनुसार, नाम का सुझाव देना प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है. लेकिन सिंह और नड्डा भाजपा की पसंद जाहिर न कर सके. फिर भी, प्रधानमंत्री ने दो मुख्यमंत्रियों- नवीन पटनायक और जगन मोहन रेड्डी से बात की है, जिनका कुछ महत्व विधायकों के गणित में है.
वर्ष 2017 में मोदी ने आखिरी समय में कोविंद का नाम लाकर सबको अचरज में डाल दिया था, जो उत्तर प्रदेश के एक दलित हैं और तब बिहार के राज्यपाल थे. यह चयन निश्चित रूप से 2019 के आगामी चुनाव से प्रभावित था. इस बार भी 2024 का चुनाव महत्वपूर्ण कारक है. हालांकि मोदी की तीसरी जीत पर शायद ही कोई संदेह है, भाजपा नेतृत्व वैसी स्थिति में कोई जोखिम नहीं लेना चाहता, जब बहुमत से संख्या कुछ कम रह जाए.
प्रधानमंत्री की नियुक्ति में राष्ट्रपति अहम भूमिका निभा सकता है. सांसदों के बहुमत समर्थन की सूची दिखाने के बाद भी केआर नारायणन ने अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने से मना कर दिया था. उन्होंने जयललिता के अलग पत्र के लिए जोर डाला था. यह उनके पूर्ववर्ती डॉ शंकर दयाल शर्मा के रुख से बिल्कुल उलट था, जिन्होंने सबसे बड़ी पार्टी के नेता के तौर पर वाजपेयी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था.
यह और बात है कि वह सरकार एक पखवाड़े में गिर गयी थी. राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री में तनातनी के अनेक उदाहरण भी हैं. इंदिरा गांधी के जाने-माने भक्त ज्ञानी जैल सिंह राजीव गांधी के लिए दु:स्वप्न बन गये थे. निर्वाचित शासनाध्यक्ष और राष्ट्राध्यक्ष के बीच असंभावित तकरार के बारे में कोई सत्तारूढ़ दल किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा है. ऐसा इसलिए कि विपक्ष के उम्मीदवार प्रधानमंत्री की पसंद के उम्मीदवार के वैचारिक रूप से घोर विरोधी होते हैं.
साल 1982 में जैल सिंह के सामने विपक्ष ने न्यायाधीश एचआर खन्ना को खड़ा किया था, जिन्होंने आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के दबाव के कारण इस्तीफा दे दिया था. केवल वाजपेयी ने, थोड़ा चुनावी मजबूरियों और ज्यादा अपने निश्चय के कारण, प्रतिष्ठित लोगों को चुनने की विलुप्त परंपरा को जीवित करते हुए एपीजे कलाम को राष्ट्रपति बनाया था.
अफसोस की बात है कि इस चुनाव में आम सहमति एक मरीचिका है. सभी दलों ने सहमति की बात करते हुए टकराव को ही चुना है. साल 1952 से 14 में से 13 चुनाव जोरदार टक्कर के रहे थे. इसकी मुख्य वजह प्रधानमंत्री और उनके विरोधियों का कठोर रवैया थी. प्रधानमंत्री के चयन की जीत आम तौर पर हो जाती है, पर इंदिरा गांधी के उम्मीदवार वीवी गिरी दूसरी पसंद के वोटों में जीत सके थे. इंदिरा सामान्य नेताओं को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाती रही थीं.
साल 1974 में उन्होंने फखरुद्दीन अली अहमद को उतारा था, जिन्होंने कैबिनेट द्वारा पारित प्रस्ताव मांगे बिना ही आपातकाल की घोषणा पर हस्ताक्षर कर दिया था. साल 1982 में पूर्ण निष्ठा के कारण जैल सिंह चुने गये. इसी सिद्धांत पर चलते हुए सोनिया गांधी ने प्रतिभा पाटिल को यूपीए गठबंधन का उम्मीदवार बना दिया.
यह एकमात्र उदाहरण है, जब राष्ट्रपति के उम्मीदवार के चयन में प्रधानमंत्री की कोई भूमिका नहीं थी. जैसे-जैसे चुनाव निकट आता जा रहा है, लोगों को बिना मांगे इस पर सलाह दी जा रही है कि कैसा राष्ट्रपति देश को चाहिए. लेकिन क्या इन ज्ञानजीवियों ने कभी गांधी परिवार से पूछा, जिन्होंने अहमद और पाटिल जैसे राष्ट्रपति दिये?
इंदिरा की तरह मोदी अपना एजेंडा तय करते हैं और राजनीति अपनी शर्तों पर करते हैं. हालांकि वे जाति, समुदाय, धर्म, क्षेत्र आदि का ध्यान रखते हुए आम व्यवहार और परंपराओं का पालन करते हैं. अभी राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के पद पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक आसीन हैं. क्या मोदी इस संरचना में बदलाव करेंगे? निश्चित ही वे पूरी तरह से भरोसेमंद व्यक्ति का ही चयन करेंगे, पर क्या इसमें जाति या क्षेत्र का प्रभाव होगा?
अब तक के 14 राष्ट्रपतियों में आधे से अधिक या तो दक्षिण से रहे हैं या उच्च जाति से. चूंकि वर्तमान राष्ट्रपति दलित हैं, तो क्या मोदी फिर दक्षिण से दलित या महिला उम्मीदवार को चुनेंगे? उन्होंने राज्यपाल, मंत्री और सलाहकारों के रूप में अनजान लोगों को चुना है. राज्यपाल बनाने पर आरिफ मोहम्मद खान, जगदीप धनकड़ और गणेशी लाल को भी अचरज हुआ था. नवोन्मेषी मोदी बाधक परंपराओं व चलन को तोड़ने में विश्वास रखते हैं. उनके पास संख्या बल है. इसलिए भारत का अगला राष्ट्रपति मोदी का, मोदी द्वारा और मोदी के लिए होगा तथा उनका जुड़ाव एकसमान विचारों और विचारधारा पर होगा.