अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए निजी निवेश जरूरी
Economy : अर्थव्यवस्था को ऊपर ले जाने के लिए निजी निवेश में वृद्धि करना सबसे ज्यादा जरूरी है. सरकार द्वारा पूंजीगत खर्च में अंधाधुंध वृद्धि करने से वित्तीय घाटा बढ़ने की आशंका रहेगी, ऐसे में, निजी क्षेत्र का निवेश के लिए आगे आना जरूरी है.
Economy : मौजूदा वित्त वर्ष की पहली तिमाही यानी अप्रैल-जून में आर्थिक विकास दर जब 6.7 प्रतिशत आंकी गयी, तब अनेक विशेषज्ञों ने कहा था कि दुनिया की दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में अपनी विकास दर मजबूत है. यह भी कहा गया था कि लोकसभा चुनाव के कारण सरकारी और निजी क्षेत्रों की आर्थिक गतिविधियां रुक गयी थीं, इसलिए केंद्र में नयी सरकार आने के बाद अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन और बेहतर होगा. परंतु जुलाई-सितंबर की दूसरी तिमाही में विकास दर घटकर 5.4 फीसदी रह गयी. इस दौरान मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की विकास दर मात्र 2.2 फीसदी और खनन क्षेत्र में तो नकारात्मक यानी 0.1 प्रतिशत रही. जबकि पिछले वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में विकास दर 8.1 प्रतिशत थी.
बेहतर मानसून के बावजूद अर्थव्यवस्था के प्राथमिक क्षेत्र की- जिनमें कृषि और उसकी सहायक गतिविधियां प्रमुख हैं- विकास दर मात्र तीन प्रतिशत रही. सेकेंडरी यानी द्वितीयक क्षेत्र में बिजली, गैस और दूसरी सार्वजनिक जरूरतों के क्षेत्र में आर्थिक विकास दर पिछले वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही के 10.5 प्रतिशत से घट कर इस साल महज 3.3 फीसदी रह गयी. जबकि टर्शियरी यानी तृतीयक क्षेत्र में व्यापार, होटल, परिवहन, संचार और प्रसारण के क्षेत्र में भी विकास दर में गिरावट आयी. अलबत्ता वित्तीय सेवाओं, रियल एस्टेट और पेशेवर सेवाओं के क्षेत्र में विकास दर तुलनात्मक रूप से बेहतर 6.7 प्रतिशत रहीं. हालांकि लोक प्रशासन, रक्षा और दूसरी सेवाओं में आर्थिक दर पिछले साल की इसी अवधि की 7.7 फीसदी की तुलना में कहीं ज्यादा 9.2 प्रतिशत रही. सीधे शब्दों में कहें, तो पूंजीगत खर्च के क्षेत्र में सरकार का निवेश जारी है, और इसी कारण विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों में आयी गिरावट के बावजूद कमोबेश भरपाई हो जा रही है. यह सार्वजनिक क्षेत्र के अंतिम उपभोग खर्च, यानी जीएफसीइ में 4.4 प्रतिशत की विकास दर से भी स्पष्ट है.
अच्छी बात यह है कि निजी क्षेत्र में अंतिम उपभोग खर्च, यानी पीएफसीइ की विकास दर अपेक्षाकृत बेहतर छह फीसदी रही. हालांकि निवेश के मोर्चे पर पिछले वित्त वर्ष की इस अवधि की तुलना में प्रदर्शन फीका रहा. ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉरमेशन (जीएफसीएफ) या निवेश की विकास दर 5.4 प्रतिशत रही. पिछले वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में यह 10.2 फीसदी थी.
आंकड़ों से स्पष्ट है कि उपभोग की मांग में कमोबेश वृद्धि हो रही है, पर उम्मीदों के अनुरूप निजी निवेश रफ्तार नहीं पकड़ पा रहा. अप्रैल-मई में लोकसभा चुनाव होने के कारण अप्रैल से सितंबर तक पूंजीगत खर्च में भी 15.4 फीसदी की कमी देखी गयी. एक हालिया अध्ययन बताता है कि मौजूदा वित्त वर्ष की दूसरी छमाही में 11.11 लाख करोड़ रुपये खर्च करने के बजटीय लक्ष्य को पूरा करने के लिए पूंजीगत खर्च में 52.04 फीसदी की तेज वृद्धि करनी होगी, जो मुश्किल लगती है. दूसरी तिमाही की आर्थिक विकास दर को स्तब्ध करने वाला बताया जा रहा है, लेकिन यह कमोबेश प्रत्याशित ही थी, जो हमारी अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति के बारे में बताती है. कम पूंजीगत खर्च, निजी क्षेत्र के निवेश में कमी और उपभोग के सामान्य रहने से अर्थव्यवस्था के असली चेहरे को सामने आना ही था. यह उम्मीद करनी चाहिए कि कुल राष्ट्रीय उत्पादन, बिक्री और राजस्व के मोर्चे पर अक्तूबर-दिसंबर की तिमाही में अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन बेहतर हो. लेकिन अब लगता यही है कि मौजूदा वित्त वर्ष की आर्थिक विकास दर छह फीसदी से नीचे चली जायेगी.
संभावना यह भी है कि वित्त वर्ष की आखिरी छमाही में अर्थव्यवस्था की स्थिति बेहतर होगी, पर यह भी सच है कि मौजूदा आर्थिक चुनौतियां बरकरार रहेंगी. रिजर्व बैंक ने मौजूदा वित्त वर्ष की आर्थिक विकास दर पहले 7.2 फीसदी आंकी थी. लेकिन मौद्रिक नीति समिति की अगली बैठक में वह विकास दर का अपना आकलन बदलेगा. नवंबर की बुलेटिन में देश के केंद्रीय बैंक ने दूसरी तिमाही की विकास दर 6.7 फीसदी तथा तीसरी तिमाही में 7.6 प्रतिशत आंका था. उससे पहले उसने चौथी तिमाही में 7.4 फीसदी की विकास दर का अनुमान लगाया था. गौरतलब है कि स्टेट बैंक ने मौजूदा वित्त वर्ष की विकास दर का अपना आकलन पहले ही घटा कर 6.5 प्रतिशत कर दिया है. हालांकि पिछले अनुभव बताते हैं कि वित्त वर्ष की आखिरी दो तिमाहियों में सरकार अमूमन ढांचागत खर्च में वृद्धि कर देती है. चूंकि इस बार दूसरी तिमाही का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है, ऐसे में, सरकारी निवेश में वृद्धि की संभावना और अधिक है. अच्छी बात यह है कि तीसरी तिमाही में मैन्युफैक्चरिंग, यानी विनिर्माण क्षेत्र ने रफ्तार पकड़ ली है. अक्तूबर के त्योहारी सीजन में कारों की बिक्री में वृद्धि देखी गयी.
विकास दर में आयी गिरावट के बाद से ही निर्मला सीतारमण और पीयूष गोयल जैसे केंद्रीय मंत्री ब्याज दर में कमी लाने की मांग कर रहे हैं, जिससे कि व्यापार और उद्योग क्षेत्र ज्यादा कर्ज लेने को प्रोत्साहित हों. लेकिन रिजर्व बैंक ने लगातार 10 बार से रेपो दर को, जिस दर पर वह व्यावसयिक बैंकों को कर्ज देता है, 6.5 फीसदी पर अपरिवर्तित रखा है. चूंकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित खुदरा मुद्रास्फीति सितंबर के 5.49 प्रतिशत से बढ़कर 6.21 प्रतिशत पर पहुंच चुकी है, जो 14 महीने का रिकॉर्ड और रिजर्व बैंक से लक्ष्य से काफी ज्यादा है, ऐसे में, केंद्रीय बैंक के लिए ब्याज दर में कटौती करना मुश्किल होगा. इसके बावजूद रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति की अगली बैठक पर नजर रखना दिलचस्प होगा कि विकास दर में गिरावट और मुद्रास्फीति में वृद्धि के बीच समिति के सदस्यों का रुख क्या रहता है. ऐसे ही, वर्षांत की कॉरपोरेट आय की स्थिति जानना भी जरूरी होगा, क्योंकि सबकी निगाह अब निजी निवेश पर है.
अर्थव्यवस्था को ऊपर ले जाने के लिए निजी निवेश में वृद्धि करना सबसे ज्यादा जरूरी है. सरकार द्वारा पूंजीगत खर्च में अंधाधुंध वृद्धि करने से वित्तीय घाटा बढ़ने की आशंका रहेगी, ऐसे में, निजी क्षेत्र का निवेश के लिए आगे आना जरूरी है. कर्ज की लागत में वृद्धि और मजदूरी की वृद्धि दर में ठहराव आने से शहरी क्षेत्र में निजी उपभोग में भी, जीडीपी में जिसकी हिस्सेदारी लगभग 60 फीसदी है, कमी आयी है. ग्रामीण क्षेत्र में मांग में वृद्धि हालांकि कमोबेश बरकरार है, लेकिन यह देखना होगा कि यह वृद्धि जारी रहती है या नहीं. अर्थव्यवस्था की सेहत की दृष्टि से शेष दो तिमाहियों का प्रदर्शन इस कारण बहुत महत्वपूर्ण रहने वाला है. उपभोग बढ़ाने और अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए इस दौरान सरकार की अधिक सक्रियता दिख सकती है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)