राजनीति शास्त्री प्रोफेसर पॉल रिचर्ड ब्रास का निधन समाज विज्ञान के लिए एक बड़ी क्षति है. सत्तर के दशक में में उनके संपर्क में आया था. बाद में उनके लेखन से मेरा जुड़ाव लगातार बना रहा. प्रोफेसर ब्रास उन गिने-चुने विद्वानों में हैं, जो आजीवन अध्ययन और शोध में समर्पित भाव से लगे रहे. वे जमीन पर उतर कर काम करते थे, जिसमें उनका अध्ययन आंकड़ों पर आधारित न होकर, एथनोग्राफी से संबद्ध होता था.
वे जाति और समुदाय के अंतरसंबंधों की पड़ताल करते थे. इसी क्रम में उनका संपर्क साठ के दशक में चौधरी चरण सिंह जैसे नेता से हुआ. चौधरी साहब की मृत्यु तक दोनों व्यक्तियों की आत्मीयता बनी रही और परस्पर पत्राचार भी होता रहा. उन्होंने प्रोफेसर ब्रास को बहुत सारी सामग्री भी उपलब्ध करायी थी, जिसका इस्तेमाल उनकी जीवनी में हुआ है. प्रोफेसर ब्रास द्वारा तीन भागों में लिखी यह जीवनी एक महत्वपूर्ण अध्ययन है. मेरठ और अलीगढ़ के क्षेत्रों पर बहुत कम लोगों ने काम किया है. जाट समुदाय के बारे में उनका लेखन भी अहम है.
अपने अध्ययन के क्रम में प्रोफेसर ब्रास गांव-गांव घूमते थे और लोगों से मिलते थे. वे पंचायतों और खापों को भी सीधे समझने की कोशिश करते थे. इस प्रकार वे एक ऐसे विद्वान थे जो जमीन से जुड़े थे और पुस्तकालयों व अभिलेखागारों पर कम निर्भर करते थे. वे विश्वविद्यालय प्रणाली से बाहर निकालकर शोध करते थे. साठ के दशक में उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन परिदृश्य पर लिखा.
उनकी एक महत्वपूर्ण किताब 1974 में आयी, जिसमें उन्होंने उत्तर भारत में भाषा, धर्म और राजनीति की पड़ताल की. यह किताब हमारे वर्तमान के लिए बहुत प्रासंगिक है. इसमें उन्होंने यह देखा कि गांव-कस्बों में, शहरों में भी, धार्मिक समुदायों के बीच संबंध गहरे होने के बावजूद यह संबंध कमजोर है. उन्होंने दिखाया कि इन संबंधों की कमियों का फायदा राजनीतिक दल उठाते रहे हैं.
कई किताबों में उन्होंने सांप्रदायिकता को लेकर खूब लिखा. ध्यान रहे, कि ये सब वे सत्तर और अस्सी के दशक में लिख रहे थे. बाद में इनको आधार बना कर क्रिस्टोफर जाफ्रलौ जैसे अनेक विद्वानों ने काम किया है. ये विद्वान पॉल ब्रास के काम के प्रति कृतज्ञता जताते हैं. भारत में सांप्रदायिकता पर जब भी विचार होता है या आगे होगा, तो उनकी किताबों और लेखों की जरूरत पड़ेगी.
प्रोफेसर ब्रास ने लगभग पंद्रह किताबें लिखीं. इनके अलावा उन्होंने विभिन्न संपादित किताबों के लिए भी अध्याय लिखे. उनके एक लेख की विशेष चर्चा करना चाहूंगा, जो पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों के बारे में है. इस विषय पर उन्होंने किताब नहीं लिखी, पर यह लेख महत्वपूर्ण है. इसमें उन्होंने आयुर्वेद, यूनानी और अन्य पद्धतियों पर विस्तार से विचार किया है.
तो, यह सब ऐसे विद्वान का काम है, जो ठहर कर अध्ययन करने में विश्वास करते थे. आज जल्दी का जमाना है. हम लोग कई साल तक तो शोध पत्रिकाओं में लेख लिखते रहे और करीब दो दशक बाद किताब लिखने का विचार आया. आज के बौद्धिक जगत में लोग शुरुआत ही किताब की परियोजना से करते हैं. इसके लिए युवा समाज विज्ञानियों को दोष भी नहीं दिया जा सकता है क्योंकि सब कुछ करियर से जुड़ा हुआ है.
स्थिति यह है कि किताब प्रकाशित नहीं होगी, तो नौकरी पक्की नहीं होगी, नौकरी मिलेगी नहीं. यह एक अकादमिक दुश्चक्र है. इससे हमारी अकादमिक नींव कुछ कमजोर हुई है. प्रोफेसर पॉल ब्रास ऐसे तंत्र से अलग थे. उन्हें याद करते हुए इस पहलू का भी ध्यान रखा जाना चाहिए. आज समाज भी बदला है और राजनीति भी. इसका असर शोध और अध्ययन पर पड़ना स्वाभाविक है. प्रोफेसर ब्रास जैसे विद्वान जिस दौर में काम कर रहे थे, अकादमिक जगत में ठहराव का वातावरण था.
उस माहौल में ऐसे लोग पैदा हुए. उस कड़ी में अमेरिका, यूरोप और भारत के कई पुराने विद्वानों को शुमार किया जा सकता है. निश्चित रूप से नयी पीढ़ी के समाज विज्ञानी उनकी अध्ययन पद्धति और विश्लेषण के तौर-तरीकों से बहुत कुछ सीख सकते हैं, पर मौजूदा अकादमिक माहौल को देखते हुए प्रोफेसर ब्रास सरीखे विद्वानों की अपेक्षा करना मुश्किल काम है.