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राष्ट्रीय चेतना के शायर थे चकबस्त

चकबस्त की कई रचनाओं में मीर अनीस के मर्सियों का अक्स नजर आने लगा था. पर सच पूछिए तो उनकी काव्य प्रतिभा की जड़ें उनकी राष्ट्रीयता की भावना में ही है.

आधुनिक उर्दू शायरी के निर्माता व प्रकाशस्तंभ पं बृजनारायण ‘चकबस्त’ को उनके तीन बड़े योगदानों के लिए याद किया जाता है. पहला देश के स्वतंत्रता संघर्ष में उनकी भूमिका से जुड़ा है. दूसरा उर्दू में आधुनिक कविता स्कूल की स्थापना से और तीसरा कश्मीरियत की खुशबू बिखेरने से. यूं तो उन्होंने उर्दू की आलोचना, संपादन व शोध के क्षेत्रों में भी कुछ कम नयी जमीन नहीं तोड़ी है.

जहां तक उनके कश्मीरियत की खुशबू बिखेरने की बात है, वह इस मायने में महत्वपूर्ण है कि उनके कश्मीरी मूल के सारस्वत ब्राह्मण पुरखे पंद्रहवीं शताब्दी में ही कश्मीर छोड़ आये थे. अठारहवीं शताब्दी में नवाब शुजाउद्दौला के वक्त कभी उनके पूर्वज अवध की राजधानी फैजाबाद आये और जब उनके बेटे आसफउद्दौला ने सूबे की राजधानी लखनऊ स्थानांतरित कर दी, तो वहां चले गये.

कहते हैं, वे जहां भी गये अपनी काबिलियत की बदौलत राजदरबारों में बड़े-बड़े ओहदे और हुक्मरानों का भरपूर संरक्षण पाया. यह सिलसिला अंग्रेजों के राज में भी थमा नहीं और 19 जनवरी, 1882 को फैजाबाद में बृजनारायण का जन्म हुआ तो उनके पिता पं उदितनारायण वहीं डिप्टी कलेक्टर थे. इसके बावजूद इस परिवार ने अपनी उस पुश्तैनी सांस्कृतिक खुशबू को बचाकर रखा, जो उसके पुरखे पंद्रहवीं शताब्दी में कश्मीर से साथ लाये थे.

यह खुशबू चकबस्त की शायरी को भी जगह-जगह सुवासित करती दिखाई देती है. बहरहाल, चकबस्त अभी पांच वर्ष के ही थे कि उनके सिर से पिता का साया उठ गया और उन्हें मां के साथ लखनऊ के प्रसिद्ध कश्मीरी मुहल्ले में ठौर लेनी पड़ी.

लखनऊ से प्राथमिक शिक्षा के बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध कैनिंग कॉलेज से कानून की पढ़ाई पूरी की और जीविका के लिए वकालत आरंभ कर दी. पर जल्दी ही वे उर्दू के प्रसिद्ध निबंधकार व पत्रकार अब्दुल हलीम ‘शरर’ से एक बड़े साहित्यिक विवाद में उलझ गये. बाद में यह मामला अदालत तक गया, जिसमें ‘चकबस्त’ ने अपना सफल बचाव तो किया ही, अपनी कानूनी प्रतिभा की धाक भी जमा ली. पर वकालत में हासिल सफलता उन्हें वह खुशी नहीं दे पायी, जिसकी उन्हें तलाश थी.

कारण यह कि वे शिद्दत से महसूस करने लगे थे कि जहालत के गुरूर से भरे लोगों के हाथों देश बरबादी की ओर बढ़ा चला जा रहा है. उन्हीं के शब्दों में, ‘गुरूरो जहल ने हिन्दोस्तां को लूट लिया, बजुज निफाक के अब खाक भी वतन में नहीं.’ फिर तो उन्होंने खुद को स्वतंत्रता संघर्ष, साहित्य सेवा व अध्ययन को समर्पित कर स्वराज समेत अपने वक्त के तमाम राजनीतिक व सामाजिक आंदोलनों में भागीदारी शुरू कर दी.

जानकारों के अनुसार, समाज सुधार के आंदोलनों में उनकी दिलचस्पी सबसे गहरी थी और इसके लिए उन्हें ‘दीन की बरबादी’ का भी गम नहीं था. ‘गम नहीं दिल को यहां दीन की बरबादी का, बुत सलामत रहे इंसाफ की आजादी का.’ इंसाफ की इस आजादी के लिए वे महात्मा गांधी से तभी से बहुत उम्मीदें लगा बैठै थे, जब वे दक्षिण अफ्रीका में सक्रिय थे. उन्होंने यह लिखकर महात्मा को बुलावा भी भेजा था, ‘वतन से हैं तो दूर पर निगाह कर लें, इधर भी आग लगी है जरा खबर कर लें.’

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