बोधि वृक्ष : साक्षी की तलाश
ईश्वर की तलाश अध्यात्म नहीं है. पुराने योग सूत्रों ने ईश्वर की चर्चा ही नहीं की, कोई जरूरत न थी. बाद में योग सूत्रों ने ईश्वर की चर्चा भी की
ईश्वर की तलाश अध्यात्म नहीं है. पुराने योग सूत्रों ने ईश्वर की चर्चा ही नहीं की, कोई जरूरत न थी. बाद में योग सूत्रों ने ईश्वर की चर्चा भी की, तो उसको भी अध्यात्म की खोज का एक साधन कहा, साध्य नहीं. कहा कि यह साधना में सहयोगी होता है इसलिए ईश्वर को मान लेना अच्छा है.
सबकुछ इनकार किया जा सकता है, लेकिन अध्यात्म की जो आत्यंतिक आधारशिला है वह साक्षी है, उसे इनकार नहीं किया जा सकता. साक्षी का मतलब है देखने वाला, गवाह. वह जो देख रहा है, वही है साक्षी. जो दिखाई पड़ रहा है, वही है जगत. इसलिए, अगर किसी भी धर्म में साक्षी की कोई बात हो, तो समझना कि वह धर्म है. साक्षी की बात ही न हो, तो समझना कि उसका धर्म से कोई भी संबंध नहीं है.
और सब बातों में मतभेद हो सकता है, साक्षी के मामले में मतभेद नहीं हो सकता. इसलिए अगर किसी दिन दुनिया में धर्म का विज्ञान निर्मित होगा, उसमें ईश्वर, आत्मा, ब्रह्म, इन सबकी चर्चा नहीं होगी, लेकिन साक्षी की चर्चा जरूर होगी. धर्म ही नहीं हो सकता बिना साक्षी के. साक्षी भर एक वैज्ञानिक आधारशिला है समस्त धर्म अनुभव की, समस्त धर्म की खोज और यात्रा की.
इस साक्षी के इर्द-गिर्द ही सारे उपनिषद घूमते हैं. सारे सिद्धांत और सारे इशारे इस साक्षी को दिखाने के लिए हैं. थोड़ा हम समझने की कोशिश करें. हमारा जो मन है, वह एक तीर की तरह है, जिसमें एक तरफ फल लगा हुआ है तीर का. तीर दो तरफ नहीं चल सकता. अगर आप तीर को चला दें, तो एक ही तरफ जायेगा. जब प्रत्यंचा पर कोई तीर चढ़ाता है और प्रत्यंचा से तीर छूटता है, तो जहां वह चढ़ा था, वहां से दूर हटने लगता है.
और जहां वह नहीं था, उस तरफ बढ़ने लगता है. ध्यान में हम पूरे समय यही कर रहे हैं कि जब भी हमारे ध्यान का तीर छूटता है, हमारी प्रत्यंचा से खाली हो जाता है और जिसकी तरफ जाता है उस पर जाकर टिक जाता है. तीर तो एकतरफा ही हो सकता है, लेकिन ध्यान दोतरफा हो सकता है. और वही हो जाये, तो साक्षी का अनुभव होता है.
– ओशो