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पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र का प्रश्न

सांसद या विधायक लोगों के प्रतिनिधि होते हैं. उनका किसी पार्टी से संबद्ध होना या न होना केवल संयोग है. उनका उद्देश्य निर्वाचकों के हितों की रक्षा करना होता है, न कि कुछ नेताओं के.

By मोहन गुरुस्वामी | February 24, 2022 7:19 AM
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मोहन गुरुस्वामी

mohanguru@gmail.com

चुनाव सुधारों से संबंधित बहस लगभग पूरी तरह से राजनीतिक दलों के चंदे और प्रचार में खर्च पर केंद्रित होती है, मानो केवल इन पर ध्यान देकर राष्ट्रीय राजनीति को साफ-सुथरा बनाया जा सकता है. हमेशा की तरह हम गलत दिशा में अंगुली उठा रहे हैं. किसी चर्चा में दलों के आंतरिक लोकतंत्र तथा उनकी संवैधानिक कार्यशैली का मसला शायद ही कभी आता है. हम शायद ही कभी यह सोचते हैं कि बहुत सारे हमारे दल सही में राजनीतिक दल हैं या फिर आदिम इच्छाओं से प्रेरित असंगठित झुंड हैं. जब प्रधानमंत्री राजीव गांधी ‘दल बदल विरोधी’ विधेयक लेकर आये थे, तब मधु दंडवते ने इसका स्वागत करते हुए कहा था कि उन्हें लगा कि वे फिर जवाहरलाल नेहरू की आवाज सुन रहे हैं. उन्हें जल्दी ही यह अहसास होना था कि इस विधेयक का उद्देश्य पार्टी को एक छोटे गुट के अधीन रखना था.

उन्होंने अपने शुरुआती उत्साह की भरपाई करते हुए अदालत में इसके विरुद्ध दायर याचिका में अपना नाम जोड़ा था. कई लोगों ने दंडवते पर तंज करते हुए कहा था कि उन्हें जो आवाज जवाहरलाल नेहरू की लगती थी, वह असल में इंदिरा गांधी की थी. उन्होंने अपने शुरुआती समर्थन को सही ठहराते हुए कहा था कि तब विधेयक के विरोध का सही समय नहीं था क्योंकि जनभावना उसके समर्थन में थी.

केवल चंद्रशेखर एवं मधु लिमये में विधेयक के वास्तविक उद्देश्य को रेखांकित करने की दृष्टि थी और उन्होंने साहस के साथ विरोध किया कि यह विधेयक लोगों द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों पर अलोकतांत्रिक ढंग से थोपे गये पार्टी नेतृत्व की अवैध शक्ति को संस्थागत बनाने का प्रयास है. तब मूल विधेयक में कुछ बदलाव कर विभाजन और दल बदल के बीच अंतर को कुछ हद तक स्पष्ट किया गया, पर इस संशोधन से विधेयक के विरोध के मुख्य कारणों का समाधान नहीं हुआ.

भारतीय संविधान राजनीतिक दलों की संस्था को मान्यता नहीं देता है. ऐसा ही अन्य बड़े लोकतंत्रों में है. उनके संविधानों में ‘राजनीतिक दल’ का उल्लेख एक बार भी नहीं आता. इस प्रकार राजनीतिक दल संविधान से इतर साझा विचारों, दर्शन, सोच और हितों के आधार पर लोगों को संगठित करने की व्यवस्था हैं. सांसद या विधायक लोगों के प्रतिनिधि होते हैं. उनका किसी पार्टी से संबद्ध होना या न होना केवल संयोग है. उनका उद्देश्य निर्वाचकों के हितों की रक्षा करना होता है, न कि कुछ नेताओं के.

ऐसे में यदि कोई प्रतिनिधि पार्टी व्हिप का उल्लंघन करता है, तो पार्टी के बड़े हिस्से को उसे पार्टी की सदस्यता से हटाने की अनुमति होनी चाहिए. सदन से किसी का निष्कासन सदन या लोगों का ही अधिकार होना चाहिए. जब भी इस अधिकार को लागू किया जाए, तो वह रिश्वत लेने जैसे मामलों या संस्था की मर्यादा के अनादर करने के लिए होना चाहिए. हमारे यहां प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार (राइट टू रिकॉल) नहीं है, क्योंकि संभवत: यह व्यावहारिक नहीं है. यदि इस अधिकार का प्रस्ताव भी आये, तो कौन वर्तमान सांसद इसे कानून बनाना चाहेगा.

यह तर्क कि अधिकतर सदस्य पार्टी की वजह से निर्वाचित होते हैं, कुछ हद तक सही है, पर यह तभी सही है, जब पार्टी का गठन व संचालन समुचित तौर पर किया गया है. यदि राजनीतिक दल को एक संवैधानिक संस्था के रूप में संविधान में शामिल करना है, तो पहले इसका कानून बनाना होगा. भाजपा और माकपा जैसी कुछ पार्टियों, जहां नियमित चुनाव के माध्यम से एक हद तक आंतरिक लोकतंत्र की व्यवस्था है और शायद सामूहिक रूप से निर्णय भी लिये जाते हैं, को छोड़कर अधिकतर पार्टियां लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली का बेहद खराब उदाहरण हैं.

हम जानते हैं कि कांग्रेस कैसे अपने ‘चुनाव’ कराती है या ‘आला कमान’ के जरिये फैसले करती है. बादल, ठाकरे, लालू यादव, के चंद्रशेखर राव, स्टालिन, अखिलेश यादव और मायावती जैसे ‘नेता’ ऐसी प्रक्रियाओं को दिखावा मानते हैं. फिर भी इनके पास अपने निजी हितों व मर्जी के अनुरूप निर्देश देने या व्हिप जारी करने की शक्ति और वैधता है. याद करें, कैसे एक नामित कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने कांग्रेस संसदीय दल के निर्वाचित नेता पीवी नरसिंहा राव को 24 घंटे के भीतर इस्तीफा देने का निर्देश दे दिया था. कुछ अन्य पहलुओं पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए.

क्या हो, अगर सभी संपत्ति के राष्ट्रीयकरण करने का वादा कर निर्वाचित हुए किसी प्रतिनिधि को धनी लोगों के अनुकूल बजट को समर्थन देने के लिए कहा जाए. यह तर्क कि अगर सदस्यों को कानून से नियंत्रित नहीं किया जाए, तो अराजकता फैल सकती है, कुछ हद सही हो सकता है. इसके लिए व्हिप को केवल विश्वास प्रस्ताव पर मतदान तक सीमित किया जा सकता है. इसमें यह व्यवस्था की जा सकती है कि व्हिप के विरुद्ध वोट करनेवाले सदस्य को छह माह या निर्धारित अवधि में जनता का भरोसा फिर से जीतना होगा. दल बदल करनेवाले सदस्य को मंत्री पद नहीं देना भी ठीक नहीं है क्योंकि इससे इंगित होता है कि मंत्री पद एक पुरस्कार है, योग्यता का रेखांकन या सेवा का उत्तरदायित्व नहीं. सभी मंत्री भ्रष्ट नहीं हैं. इसी तरह दल बदल का न्यूनतम प्रतिशत भी बेमतलब है.

चुनाव आयोग इन दलों तथा इनके नेताओं के अधिकारों को चिह्नित करता है, पर विभिन्न मामलों में उसका बेबसी एक शर्मनाक मुद्दा है. दल बदल कानून को अगर मामूली राजनीतिक और दार्शनिक वैधता भी देनी है, तो सबसे पहले पार्टियों में उचित आंतरिक लोकतंत्र सुनिश्चित करना होगा. पार्टियों ने जता दिया है कि वे स्वयं ऐसा कर पाने में अक्षम हैं. पहले चुनाव आयोग इस मुद्दे को उठा चुका है, पर उसे तेज आवाज में बोलना होगा तथा संसद से अधिक अधिकार पाने पर जोर देना होगा.

पार्टियों को सरकारी फंडिंग को देने के विकल्प को एक समाधान के रूप में अक्सर रखा जाता है. पर क्या हम ऐसे दलों को धन देना स्वीकार करेंगे, जिनके यहां न तो आंतरिक लोकतंत्र है और न ही लोकतांत्रिक ढांचा. उनके आलाकमान में पारिवारिक सदस्य हैं. किसी भी भारतीय राजनीतिक दल में साफ-सुथरे ढंग से आंतरिक चुनाव नहीं होते हैं. उन्हें राजकीय फंडिंग देने का मतलब सरकारी पैसे को निजी उद्देश्यों के लिए देना होगा. हमारे यहां दल बदल का मुद्दा हमेशा रहेगा. लेकिन कोई इस पर आवाज उठायेगा, शायद कोई नहीं. किस्सा कुर्सी का है!

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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