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हथिनी की मौत से उठते सवाल

इंसान समझता है कि पृथ्वी पर रहने का अधिकार केवल उसी को है. यह सोच प्रकृति और कानून के खिलाफ है. हमें अपनी इस मानसिकता को बदलना होगा.

आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर

ashutosh.chaturvedi@prabhatkhabar.in

वर्ष 1971 में एक फिल्म आयी थी ‘हाथी मेरे साथी’. फिल्म सुपर हिट रही थी. फिल्म के हीरो उस समय के सुपरस्टार राजेश खन्ना और हीरोइन तनुजा थीं. कहानी सलीम-जावेद की जोड़ी ने लिखी थी. यह फिल्म इंसान और हाथी की दोस्ती पर आधारित थी. फिल्म के अंत में हीरो की खातिर हाथी जान तक दे देता है. यह उस दौर की किसी दक्षिण भारतीय निर्माता द्वारा बनायी सबसे सफल हिंदी फिल्म थी. फिल्म के गाने भी सुपर हिट हुए थे. लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का संगीत था.

गीत आनंद बख्शी ने लिखे थे. फिल्म में ‘चल चल मेरे साथी’ जैसा लोकप्रिय गाना तो था ही, हाथी की मौत पर अंतिम गीत बेहद मार्मिक था. इसे मोहम्मद रफी की आवाज ने जज्बातों से भर दिया था- ‘जब कोई जानवर इंसान को मारे, कहते हैं दुनिया में वहशी उसे सारे, इक जानवर की जान आज इंसानों ने ली है, चुप क्यों है संसार… नफरत की दुनिया को छोड़ के, प्यार की दुनिया में खुश रहना मेरे यार.’

करीब पांच दशक बाद यह फिल्म एक बार फिर याद आ रही है. वजह है इसी साल 27 मई को केरल के पलक्कड़ जिले में हुई एक लोमहर्षक घटना, जिसमें कई दिनों से भूखी एक हथिनी खाने की तलाश में गांव की तरफ आ गयी और कुछ लोगों ने उसे अनानास में भर कर पटाखे खिला दिये. इसे खाते ही हथिनी के मुंह में जोरदार विस्फोट हुआ और उसका जबड़ा, पेट सब क्षतिग्रस्त हो गया. उसके दांत तक टूट गये. जख्म और जलन से परेशान हथिनी पास की नदी में तीन दिनों तक तड़पती रही. वन्यकर्मियों ने उसे बाहर लाने की बहुत कोशिश की, मगर उन्हें सफलता नहीं मिली. अंतत: दर्द से कराहती हुई हथिनी ने दम तोड़ दिया.

पोस्टमार्टम रिपोर्ट से पता चला कि वह गर्भवती थी. बीबीसी रिपोर्ट के मुताबिक यह घटना चर्चा में तब आयी, जब रेपिड रेस्पांस टीम के वन अधिकारी मोहन कृष्णनन ने फेसबुक पर इसके बारे में भावुक पोस्ट लिखी. उन्होंने लिखा कि घायल होने के बाद हथिनी एक गांव से होकर भागती हुई निकली, लेकिन उसने किसी को चोट नहीं पहुंचायी. वह नेकदिल थी. उसकी तस्वीरों में उसका दर्द सामने नहीं आ पाया है. वन विभाग ने हाथियों की मदद से हथिनी को नदी से बाहर निकालने के प्रयास किये, लेकिन वे सफल नहीं रहे. आखिरकार उसने दम तोड़ दिया.

इस घटना ने पूरे देश को उद्वेलित कर दिया है. इस मामले में कुछ गिरफ्तारियां हुई हैं. सोशल मीडिया पर घटना को लेकर लोग गुस्सा जता रहे हैं. जाने-माने उद्योगपति रतन टाटा ने ट्वीट किया कि वह यह जान कर दुखी और स्तंभित हैं कि कुछ लोगों ने एक बेकसूर गर्भवती हथिनी को पटाखे भरा अनानास खिला कर मार दिया. निर्दोष पशुओं के खिलाफ ऐसे आपराधिक कृत्य किसी इंसान की हत्या से कम नहीं है. हालांकि हाथियों का केरल की संस्कृति और परंपरा में महत्वपूर्ण स्थान है. वहां कोई भी धार्मिक उत्सव बिना हाथियों के पूरा नहीं होता है.

आंकड़ों के मुताबिक केरल में 486 हाथी हैं. इनमें 48 हाथी गुरुवायुर मंदिर में हैं, त्रावणकोर देवासम बोर्ड और मालाबार देवासम बोर्ड के पास 30-30 हाथी हैं. लोगों ने हाथियों के सोशल मीडिया एकाउंट भी बना रखे हैं, जिनके बड़ी संख्या में फॉलोअर हैं. सिविल सोसाइटी और सोशल मीडिया के विस्तार के कारण हाथियों पर अत्याचार की घटनाओं में कमी आयी है. यह बात दीगर है कि हाथियों और किसानों का संघर्ष काफी पुराना है. इस साल जनवरी में संसद में दिये एक प्रश्न के उत्तर में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री महेश शर्मा ने बताया था कि वर्ष 2015 से 2018 तक, तीन सालों में इंसान और हाथियों के संघर्ष में 1713 लोगों की मौत हुई. वहीं 373 हाथियों को भी असामान्य परिस्थितियों में जान गंवानी पड़ी.

2018 में हाथियों ने 227 लोगों को मार दिया. इनमें असम में 86 लोग निशाना बने थे. दूसरी ओर हाथियों की सबसे ज्यादा मौतें करंट लगने से हुई हैं. झारखंड में भी किसान हाथियों से फसल बचाने के लिए खेतों के चारों ओर बाड़े में करंट दौड़ा देते हैं, जिनसे हाथी की मौत हो जाती है. 2015 से 2018 तक के सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग 60 फीसदी हाथियों की मौत इससे हुई हैं. इसके अलावा ट्रेन से कटने, शिकारियों का निशाना बनने और जहर खिला कर मार देने की घटनाएं भी सामने आयीं हैं. विशेषज्ञ कहते हैं कि वनों पर इंसानों का कब्जा बढ़ा है और हाथियों के कॉरिडोर पर इंसानी गतिविधियां बढ़ी हैं, नतीजतन संघर्ष के मामले बढ़े हैं.

झारखंड के संदर्भ में दो प्रसंग हैं. पहला कि दलमा में हाथियों का स्थायी निवास है, पर इसके आसपास इंसानी गतिविधियां बढ़ी हैं. इससे के कारण कई बार हाथी आक्रामक हो जाते हैं. यह वैज्ञानिक तथ्य है कि हाथी अपने पूर्ववर्ती मार्गों पर वर्षों बाद भी लौटते हैं. अगर मार्ग में कोई अवरोध मिलता है, तो वे उसे तहस-नहस कर डालते हैं. दूसरा प्रसंग दुमका जिले का है. करीब दो दशक पहले 13-14 जंगली हाथियों का झुंड यहां पहुंचा. इससे पहले यहां हाथियों का झुंड नहीं था. लिहाजा, यहां के लोग न तो हािथयों के व्यवहार से परिचित थे, न उससे बचाव के उपायों से.

परिणाम यह हुआ कि सालों तक यहां हाथी को लेकर आतंक रहा. हाथियों ने जान-माल को खूब नुकसान पहुंचाया. कई लोगों को कुचल कर मारा. कई इलाकों में लोग पेड़ों पर झोपड़ी बना कर रहने को मजबूर हुए. राष्ट्रीय स्तर पर इन घटनाओं पर चिंता जतायी गयी. हाथी दुमका में चुनावी मुद्दा बन गये. प्रशासन हाथियों को जिले के सीमा से खदेड़ने में कई सालों तक लगा रहा, मगर हाथी बार-बार लौट कर आते रहे. अंत में तय हुआ कि यह हाथियों का पूर्ववर्ती मार्ग रहा होगा. इसलिए हाथी यहीं रहेंगे. लोगों ने भी हाथियों के साथ जीना सीख लिया. इससे पता चला है कि समस्या हाथी से नहीं, उसके प्रति हमारे व्यवहार से है.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51(A) के मुताबिक हर जीवित प्राणी के प्रति सहानुभूति रखना हर नागरिक का मूल कर्तव्य है. पशुओं के प्रति क्रूरता की रोकथाम के लिए पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 है. आइपीसी की धारा 428 और 429 के मुताबिक किसी जानवर को यातना देना दंडनीय अपराध है. जागरूकता और सोशल मीडिया के कारण पशुओं के प्रति क्रूरता की घटनाएं छुप नहीं पाती हैं.

कुछ समय पहले एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें एक शख्स ने बालकोनी से अपने कुत्ते को उछाल दिया था और उसके गिरने का वीडियो बनाया. इस पर लोगों की तीखी प्रतिक्रिया आयी. दरअसल, दिक्कत मानसिकता की है. इंसान समझता है कि पृथ्वी पर रहने का अधिकार केवल उसी को है, बाकी प्राणियों का जीवन उसकी मनमर्जी पर निर्भर हैं. यह सोच प्रकृति और कानून, दोनों के खिलाफ है. सबसे पहले हमें अपनी इस मानसिकता को बदलना होगा.

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