इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर सवाल

अगर इलेक्ट्रॉनिक माध्यम ने अपनी जिम्मेदारी को नहीं समझा, भूमिका को संयमित करने की कोशिश नहीं की, तो देर-सवेर उस पर न्यायपालिका का चाबुक चल सकता है.

By उमेश चतुर्वेदी | August 4, 2022 8:05 AM
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मीडिया भले ही तमाम रूपों में सूचनाओं और विचारों का प्रसार कर रहा है, लेकिन मौजूदा दौर में वर्चस्व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया यानी टीवी चैनलों का ही है. आज इंटेलिजेंसिया हो या फिर लोकप्रियता, सबका पैमाना इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर उपस्थिति से तय होता है. इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में मसाला पत्रकारिता अब चरम दौर में है. दिलचस्प है कि समाज का बौद्धिक और संजीदा वर्ग इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से दूरी बनाकर रखता है.

लेकिन, उस आम जनता का क्या करें, जो अब भी मीडिया साक्षरता से दूर है. वह वितंडावादी दृश्यों को ही हकीकत मान लेती है. शायद यही वजह है कि देश के सर्वोच्च न्यायाधीश तक को अब मीडिया पर टिप्पणी करनी पड़ रही है. न्यायमूर्ति एनवी रमन्ना के संदेशों को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कर्ताधर्ताओं को अब समझना चाहिए.

आमतौर पर, न्यायपालिका किसी मुद्दे पर सार्वजनिक विचार व्यक्त करने से बचती है. जब वह खुलकर बोलने लगे, तो समझना चाहिए कि वह उस मुद्दे को लेकर क्या सोच रही है. मीडिया को खुद अपने अंदर झांकने की कोशिश करनी चाहिए. शुरुआती दौर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने रिपोर्टिंग पर ज्यादा ध्यान दिया. लेकिन, बाद के दिनों में रिपोर्टिंग पर होनेवाले भारी-भरकम खर्च में कटौती करते हुए इलेक्ट्रॉनिक चैनलों ने बहसों की शुरुआत की.

अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान 2011 में इस चलन को गति मिली. एंकर की भूमिका ऐसे रिंग मास्टर में तब्दील होती चली गयी, जिसका काम स्टूडियो या स्क्रीन पर उपस्थित दो-चार राजनीतिक बिल्लियों को लड़ाना हो गया. राजनीतिक विषयों की चैनली बहसों और उसके संचालनकर्ताओं की कामयाबी, कुकुरझौंझ की लंबाई और हंगामे की बुनियाद पर तय होने लगी. आनंद की बात है कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के संपादकीय आका रहे लोग भी इसे अब गड़बड़ बताने से नहीं हिचक रहे. जबकि, उनके हाथ में जब कमान थी तो टेलीविजन रेटिंग प्वॉइंट के बहाने टेलीविजन के स्क्रीन को गड़बड़ और भ्रष्ट बनाते वक्त अपनी सारी संपादकीय नैतिकता वे भूल गये थे.

रांची में देश के प्रधान न्यायाधीश का यह कहना कि टीवी पर होने वाली बहसें ‘पक्षपाती’, ‘दुर्भावना से भरी’ और ‘एजेंडा चलित’ हैं, यह मामूली बात नहीं है. उनका कहना है कि मीडिया पर पक्षपात से भरी बहसें लोगों, व्यवस्था और जनतंत्र को नुकसान पहुंचा रही हैं, जिससे न्याय व्यवस्था पर भी बुरा असर पड़ता है. समाज का संजीदा तबका तो पहले से ही मान रहा था कि चैनलों की बहसों में गहराई नहीं होती, संचालन कर्ताओं को विषयों की गहरी जानकारी कम ही होती है. न्यायमूर्ति रमन्ना भी इसे स्वीकार कर रहे हैं.

उनका कहना है कि मीडिया में गलत जानकारी और एजेंडा पर आधारित बहसें, कंगारू अदालतों के समान हैं जो ‘जनतंत्र को दो कदम पीछे’ ले जा रही हैं. इलेक्ट्रॉनिक वर्चस्व के दौर में भी एक बात सर्व स्वीकार्य है- छापे यानी प्रिंट का माध्यम इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की तुलना में अब भी ज्यादा संजीदा और जवाबदेह है. चाहे समाचार हो या विचार, वह संतुलित रुख अख्तियार करने की कोशिश करता है.

चूंकि, छापे के माध्यम का जन्म गुलाम भारत में हुआ और उसका विकास स्वाधीनता आंदोलन के साथ हुआ है. इस वजह से स्वाधीनता आंदोलन के दौरान हमारे लोकवृत्त ने जिन जीवन मूल्यों को आत्मसात किया, उससे छापे का माध्यम अछूता नहीं है. स्वाधीनता आंदोलन की कोख से उपजे छापे के माध्यम में इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की तुलना में संजीदगी कहीं ज्यादा नजर आती है.

यहां अतिवादी दृष्टिकोण अपवाद के तौर पर दिख सकता है. प्रिंट माध्यम ने घोषित-अघोषित तरीके से अपने दिशा-निर्देश तय कर रखे हैं. ये उसके कर्ताधर्ताओं के जीन में इस कदर रच-बस गया है कि उनका अवचेतन लगातार सक्रिय रहता है. इसे प्रधान न्यायाधीश भी रेखांकित करते हैं. व्याख्यान में उन्होंने कहा भी है कि प्रिंट मीडिया में अभी भी कुछ हद तक जवाबदेही बाकी है. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कोई जवाबदेही नहीं है और सोशल मीडिया तो और भी बदतर है.

सोशल मीडिया तो ज्यादा बेलगाम और अशिष्ट हो गया है. फेक न्यूज, भ्रामक जानकारी के साथ ही तोड़े-मरोड़े तथ्यों को प्रस्तुत करने में उसका कोई सानी भी नहीं है. सोशल मीडिया को नियंत्रित करने की मांग होती रही है. सोशल मीडिया पर लगाम की किंचित कोशिशें भी हो रही हैं, लेकिन पारंपरिक मीडिया के विस्तार के तौर पर स्थापित इलेक्ट्रॉनिक माध्यम पर रोक लगाने की सीधी कोशिश से बचा जाता रहा है.

स्वनियमन और स्वनियंत्रण की अवधारणा के तहत इलेक्ट्रॉनिक माध्यम कथित रूप से खुद को संयमित और नियंत्रित करता रहा है. लेकिन देश के प्रधान न्यायाधीश ने जिस तरह टिप्पणियां की हैं, उससे साफ है कि अगर इलेक्ट्रॉनिक माध्यम ने अपनी जिम्मेदारी को नहीं समझा, भूमिका को संयमित करने की कोशिश नहीं की, तो देर-सवेर उस पर न्यायपालिका का चाबुक चल सकता है.

अगर न्यायपालिका का चाबुक चला तो फिर कार्यपालिका को खुली राह मिल जायेगी. पहले से ही माध्यमों की मुश्क कसने की फिराक में बैठी कार्यपालिका भी अपना करतब दिखाने से नहीं चूकेगी, इसलिए जरूरी है कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के कर्ता-धर्ता आसन्न खतरे को समझ लें और जिम्मेदार बनने की कोशिश करें, ताकि टीवी के पर्दे पर खीझ, झल्लाहट, चिखमचिल्ली की बजाय संयत बहसें दिखें, जिससे लोग कुछ सीख सकें, महज मनोरंजन ना करें.

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