राम कुमार मल्लिक : ध्रुपद व विद्यापति के गायक का मौन होना

राम कुमार मल्लिक को पिछले महीने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने पद्मश्री से सम्मानित किया था. वे दरभंगा घराने की 12वीं पीढ़ी के गायक थे.

By अरविंद दास | June 10, 2024 1:07 PM

पिछले महीने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने राम कुमार मल्लिक को पद्मश्री से सम्मानित किया था. जनवरी में जब शास्त्रीय संगीत में योगदान के लिए उन्हें पद्मश्री दिये जाने की घोषणा हुई, तब मैंने उनसे एक लंबी बातचीत की थी. उनके स्वर की बुलंदी और गायकी को सुनकर तब ऐसा आभास नहीं था कि वे इतनी जल्दी मौन हो जायेंगे, उनकी अचल गायकी शांत हो जायेगी. वे दरभंगा घराने की 12वीं पीढ़ी के गायक थे, जो गायन की अन्य शैलियों में भी उतने ही सिद्धहस्त थे, जितने ध्रुपद में. विद्यापति के पदों को गाने में उन्हें महारत हासिल थी.

दरभंगा-अमता घराने में ध्रुपद गायकी की परंपरा 18वीं सदी से फलता-फूलता रहा है. दरभंगा राज के विघटन के बाद संरक्षण के अभाव में यह घराना इलाहाबाद, वृंदावन, दिल्ली आदि जगहों पर फैलता गया. बिहार में इसके कद्रदान नहीं रहे, पर राम कुमार मल्लिक दरभंगा में ही रह कर पंडित विदुर मल्लिक गुरुकुल में छात्र-छात्राओं को ध्रुपद में प्रशिक्षण दे रहे थे. वहीं पर उन्होंने अंतिम सांस भी ली. उनके पास कोई स्थायी नौकरी नहीं थी. उनके निधन से दरभंगा-अमता घराने की गायकी का एक अध्याय समाप्त हो गया. जब मैंने उनसे पूछा था कि आपने ध्रुपद गायन किनसे सीखा, तब उन्होंने कहा था, ‘पहले तो अपने दादा जी (पंडित सुखदेव मल्लिक) से सीखा, फिर अपने पिता एवं गुरु विदुर मल्लिक से.’ दरभंगा घराने के अन्य प्रसिद्ध गायक पद्मश्री रामचतुर मल्लिक का भी उन्हें आशीर्वाद मिला था, जो रिश्ते में उनके दादा लगते थे. बातचीत में वे रामधीन पाठक और पद्मश्री सियाराम तिवारी जैसे संगीतज्ञों का भी जिक्र करते थे, जो दरभंगा घराने में ही प्रशिक्षित थे.

उनके पिता पंडित विदुर मल्लिक अस्सी के दशक में वृंदावन चले गये और वहां उन्होंने ध्रुपद एकेडमी की स्थापना की थी. अपने पिता के साथ राम कुमार मल्लिक ने अमेरिका, यूरोप सहित पूरी दुनिया में गायन किया था. उन्होंने कहा था कि ‘विद्यापति गाने की सीख मुझे पिताजी से मिली. उनके संग्रह से मैंने राग-रागनियों को चुना. दरभंगा आकाशवाणी के लिए भी हमने गाया है. साथ ही मेरे पिताजी के कैसेट ‘नाइटिंगल ऑफ मिथिला’ में विद्यापति के पद आपको मिलेंगे.’ ध्रुपद गायकी की चार शैलियां- गौहर, डागर, खंडार और नौहर में दरभंगा गायकी गौहर शैली को अपनाये हुए है. इसमें आलाप चार चरणों में पूरा होता है और जोर लयकारी पर होता है. ध्रुपद के साथ-साथ इस घराने में ख्याल और ठुमरी के गायक और पखावज के भी चर्चित कलाकार हुए हैं. जिस तरह कबीर के पदों के लिए कुमार गंधर्व और मीरा के पदों के लिए किशोरी अमोनकर विख्यात हैं, उसी तरह दरभंगा घराने के गायक विद्यापति के पदों के लिए प्रसिद्ध हैं. उन्होंने फख्र के साथ कहा था कि ‘ध्रुपद के साथ मैं ख्याल, दादरा, ठुमरी, गजल-भजन, लोकगीत भी गाता हूं. चारों पट की गायकी दरभंगा घराने में आपको मिलेगी.’

जब मैंने उनसे पूछा कि आपकी गायकी ध्रुपद के अन्य चर्चित घराने डागर से किस रूप में अलग है, तो उन्होंने गाकर इसकी बारीकी को बताया था. साथ ही कहा कि वे ‘री त न न तोम नोम’ करते हैं. हम ‘ओम, हरि ओम अनंत हरि ओम’ से आलाप शुरु करते हैं. इसके बाद नोम-तोम त न री.’ अपने पूर्वजों की गायकी की परंपरा को उन्होंने कुशलता से आगे बढ़ाया और अपने पुत्रों को भी प्रशिक्षित किया. अपने पुत्रों और दरभंगा घराने के 13वीं पीढ़ी के गायक समित, संगीत के लिए वे इस घराने की नींव समान थे. मैथिली भाषी होने के कारण मैं उनसे मैथिली मिश्रित हिंदी में बात करता था. मुझे विधुर मल्लिक, अभय नारायण मल्लिक का गाया विद्यापति का पद पसंद है, लेकिन विद्यापति के इस पद- ‘सुंदरी तुअ मुख मंगल दाता’ को जिस समधुर अंदाज में राम कुमार मल्लिक ने गाया है, वह दिल को छूता है. शास्त्रीय संगीत में पारंगत होने के बावजूद लोक के पदों को गाना आसान नहीं है, पर राम कुमार मल्लिक इसे गाने में कुशल थे. उनका गाया ‘कखन हरब दुख मोर हे भोलानाथ’ और विद्यापति की नचारी ‘आजु नाथ एक व्रत महासुख लागत हे, तू शिव धरु नटभेस हम डमरू बजायब हे’ भी इंटरनेट पर खूब सुना जाता है.

पिछली सदी में ख्याल गायकी का बोलबाला रहा, ऐसे में ध्रुपद गायकी पिछड़ गयी. जब मैंने उनसे पूछा कि 21वीं सदी में इसका क्या भविष्य आप देखते हैं, तब उन्होंने कहा था, ‘ध्रुपद को कोई हटा नहीं सकता है. यह अचल पद है. सारी दुनिया की संगीत का तत्व समझिए इसे. ख्याल विचलित हो सकता है, ध्रुपद नहीं.’ पिछले दशकों में जब बिहार में अन्य संगीत घरानों की गायकी सुनाई नहीं पड़ी, राम कुमार मल्लिक दरभंगा में रह कर दरभंगा घराने की अलख जगाये हुए थे. वे पूरी तरह संगीत को समर्पित थे. उनके जाने से जो बिहार के सांगीतिक परिवेश में जो शून्यता आयी है, उसे पूरा करना असंभव है.

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