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सुशासन की कसौटी है रामराज्य

रामायण से शिक्षा मिलती है कि धर्माचरण में रत अकेला व्यक्ति भी संपूर्ण अन्यायी साम्राज्य का विनाश कर सकता है. उसमें सामर्थ्य होता है कि प्रतिकूल परिणाम को निरस्त कर दे और श्रेय तथा लक्ष्य प्राप्त कर ले.

निरंकार सिंह, वरिष्ठ टिप्पणीकार

nirankarsi@gmail.com

रामराज्य को सुशासन की कसौटी माना जाता है. यद्यपि रामराज्य राजतंत्र था, लेकिन एक आदर्श लोकतंत्र के सभी गुण उसमें पाये जाते हैं. समाज के अंतिम व्यक्ति की आवाज भी रामराज्य में सुनी जाती थी. रामराज्य का आदर्श वस्तुतः एक नयी विश्व व्यवस्था का राज्यादर्श है. यह एक ऐसा चिरप्राचीन राज्यादर्श है, जो अपने विश्वव्यापी दृष्टिकोण के अनुसार मानवीय समस्याओं का शाश्वत समाधान प्रस्तुत करता है. प्राचीन भारत को ऐश्वर्य तथा वैभव के उच्चतम शिखर पर पहुंचाने का श्रेय इस उदात्त राज्यादर्श को ही रहा है. कालचक्र ने अनेक सभ्यताओं को अपने गर्भ में विलीन कर लिया और उनके स्मृति-चिह्न भी मिटा दिये हैं, किंतु दैवीय अवधारणा और वैदिक पृष्ठभूमि से संपन्न भारत का यह राज्यादर्श न केवल आज भी जीवंत है, वरन् अपने प्रकाश से वर्तमान की पराभव-ग्रस्त मानवता का मार्ग-दर्शन कर रहा है.

इसमें आदर्श राज्य-व्यवस्था के और जनता को वास्तविक तथा सार्थक कल्याणकारी शासन प्रदान करने के सूत्र और विधान सन्निहित हैं. महर्षि वाल्मीकि ने दो दृष्टांत देकर श्रीराम के उदात्त चरित्र और आदर्श व्यक्तित्व को विशेष रूप से उजागर किया है. पहला, जब श्रीराम का राजतिलक रोक दिया जाता है और उन्हें वन गमन का निर्देश दिया जाता है. दूसरा, जब वनवास-काल में सीता का अपहरण हो जाता है और दैव के दुर्विपाक का राम दृढ़ साहस तथा धैर्य से सामना करते हैं.

अंततः सीता के परित्राण और पुनरुद्धार के बाद राम उनसे कहते हैं, ‘हे देवि! आज मेरा पराक्रम कृतकृत्य हो उठा है. मेरे पराक्रम पर जो लांछन लगा था, उसे मैंने अपने पुरुषार्थ से मिटा दिया है. इन दो घटनाओं और दो दृष्टांतों का शाश्वत संदेश यह है कि धर्ममय तथा पुण्यमय व्यक्ति अपने भाग्य को भी बदल सकता है. यही किसी वीर पुरुष का वास्तविक पौरुष है. इन दृष्टांतों से सिद्ध होता है कि यदि कोई व्यक्ति स्वयं में जागरूक है, तो वह अपने श्रेष्ठ कर्मों के पुरुषार्थ से दैव के दुर्विपाक द्वारा उपस्थित विपदा का अंत कर सकता है.

यदि भारत में आज कोई ईमानदारी, अतिथि सत्कार, सतीत्व, परोपकार, मूक पशुओं के प्रति दया भाव, पाप से घृणा तथा भलाई की भावना है, तो वह जनमानस में रामचरित्र के प्रति आस्था के ही कारण है. यह केवल हिंदुओं या भारतीयों के लिए नहीं, बल्कि समूचे संसार के लिए सार्थक है. भारत की धार्मिक स्वतंत्रता तथा सहनशीलता की परंपरा अद्वितीय है.

ऋग्वेद का यह वाक्य विश्व प्रसिद्ध है- ‘आदर्श विचारों को हर दिशा से आने दो.’ पर वर्तमान युग आध्यात्मिक अज्ञान एवं आत्मा की निर्धनता का युग है. जब मनुष्य अपनी आत्मा को झूठे भौतिक वैभव से धोखा देकर उसके कवित्वमय बोध को नष्ट करता है, तो यह स्मरण करना आवश्यक हो जाता है कि सभ्यता आत्मा की ही देन है. भौतिक उन्नति को आत्मा की उन्नति नहीं समझना चाहिए. जब टेक्नोलॉजी नैतिक उत्थान से श्रेष्ठ हो जाती है, तो सभ्यता लुप्तप्राय होने लगती है.

हमारे ऋषियों ने किसी राज्य की महानता आकार तथा धन-संपत्ति से नहीं, बल्कि उस राज्य में नागरिकों की भलाई के लिए होनेवाले न्याय संगत कार्यों के आधार पर आंकी थी. बलिदान सफलता से अधिक महत्वपूर्ण तथा त्याग सफलता का सर्वोच्च मापदंड था. किसी नागरिक का समाज में मान-सम्मान, धन संपत्ति के आधार पर नहीं, बल्कि ज्ञान, गुण तथा चरित्र के आधार पर होता था. हमारे ऋषियों ने राम के जीवन चरित्र को आदर्श रूप में निरुपित किया है. इसलिए, उसकी अवहेलना समाजद्रोही ही नहीं, बल्कि राष्ट्रदोही कहा जायेगा.

प्राचीनकाल के राजागण स्वयं सत्य और न्याय के मार्ग पर चलते हुए प्रजा को प्रेरित करते थे. इसलिए उनके राज्यों में शांति-प्रेम-संपन्नता के साथ-साथ समस्त ऐश्वर्य तथा वैभव सहज ही उपलब्ध थे. तुलसीदास ने इस स्थिति का प्रस्तुतीकरण श्रीरामचरितमानस के उत्तरकांड में ‘रामराज्य’ के रूप में किया है. इसका सार-तत्व है- ‘रामराज्य में कोई किसी से वैर नहीं करता है. विषमता का नामो-निशान नहीं है. अपने-अपने कर्तव्य-कर्म को सुंदर ढंग से संपन्न करते हुए सभी लोग सुख-शांति का जीवन व्यतीत करते हैं. भय, शोक, रोग आदि कहीं कुछ नहीं है. त्रयताप से कोई पीड़ित नहीं होता है.

सभी लोग एक-दूसरे से प्रेम करते हैं. सभी पुण्यात्मा और श्रेष्ठ सद्गति के अधिकारी हैं. किसी की अकाल मृत्यु नहीं होती है़ सभी लोग स्वस्थ, सुंदर, निरोग हैं. बुद्धिमान, ज्ञानवान चरित्रवान, कृतज्ञ और महिमान हैं. उदार, परोपकारी और विनम्र हैं. वनों में वृक्ष सदा फूलते-फलते रहते हैं. मनोरम उद्यान हैं, जिनमें शीतल पवन बहता है और पक्षी कलरव करते रहते हैं. नदियों में शीतल जल बहता है. सारांशतः रामराज्य में सदा-सर्वदा आनंद है. उसकी सुख-संपदा अवर्णनीय है. अधिक क्या कहा जाए, ‘राजा राम का प्रजारंजक आदर्श राज्य यथावत सतयुग के राज्य जैसा ही है.’

रामराज्य जैसे आदर्श राज्य की अभिलाषा की पूर्ति के लिए शासक द्वारा इनका अनुसरण अपेक्षित है- राजा में राजमद न हो. वह मर्यादा का पालक हो. मंत्रियों और विद्वानों के परामर्श से कार्य करनेवाला हो. जनता को सुखी बनाने से बढ़ कर अपना कोई धर्म न माने. आत्म विजय करे अर्थात इंद्रिय-जयी हो. जनता को कर्तव्य-पथ में प्रेरित करता रहे. विपत्ति में धीर और संपत्ति में शांत-संयमित रहे. श्रेष्ठ कर्मों के आदर्श उपस्थित करे. परस्त्री को माता माने. परधन का लोभ न करे. शूर से शूर होकर संग्राम करें. प्रजावर्ग में कोई भेदभाव न करे.

विषमता, दरिद्रता, अशिक्षा, भेद, दंड आदि से सर्वथा मुक्त सत्यमूलक समाज की संस्थापना और उसके संवर्धन के लिए एकनिष्ठ भाव से स्वयं को समर्पित कर दे. रामायण से यह शिक्षा मिलती है कि धर्माचरण में रत अकेला व्यक्ति भी एक संपूर्ण अन्यायी साम्राज्य का विनाश कर सकता है. ऐसे व्यक्ति में यह सामर्थ्य होता है कि नियति द्वारा लाये गये प्रतिकूल परिणाम को वह निरस्त कर दे और अपना श्रेय तथा लक्ष्य प्राप्त कर ले. ऐसा व्यक्ति अन्यायों का निराकरण तो करता ही है, वह प्रतिपक्ष का भी सुधार तथा उद्धार करने के साथ-साथ संपूर्ण विश्व का कल्याण करने में भी सक्षम होता है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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