रेटिंग एजेंसियां भरोसेमंद नहीं
कुछ दिन पहले अंतरराष्ट्रीय एजेंसी मूडीज ने भारतीय बैंकों के दृष्टिकोण को स्थिर से बदलकर ऋणात्मक घोषित कर दिया है. उसका कहना है कि कोरोना वायरस की त्रासदी के चलते होनेवाली हानि के चलते भारतीय बैंकों की परिसंपत्तियों की गुणवत्ता बिगड़नेवाली है.
डॉ अश्विनी महाजन, एसोसिएट प्रोफेसर,दिल्ली विवि
ashwanimahajan@rediiffmail.com
कुछ दिन पहले अंतरराष्ट्रीय एजेंसी मूडीज ने भारतीय बैंकों के दृष्टिकोण को स्थिर से बदलकर ऋणात्मक घोषित कर दिया है. उसका कहना है कि कोरोना वायरस की त्रासदी के चलते होनेवाली हानि के चलते भारतीय बैंकों की परिसंपत्तियों की गुणवत्ता बिगड़नेवाली है. उसके मुताबिक यह बिगाड़ कारपोरेट, मझौले और छोटे, खुदरा सभी क्षेत्रों में होने का अंदेशा है. इस वजह से बैंकों की पूंजी और लाभप्रदता दोनों पर प्रभाव पड़ेगा. मूडीज ने यह भी कहा है कि सरकारी बैंकों में फंडिंग और तरलता स्थिर रह सकती है, लेकिन पिछले दिनों एक निजी क्षेत्र के बैंक (यस बैंक) में आये संकट के चलते व्यवस्था में जोखिम लेने से बचने की प्रवृत्ति के कारण छोटे ऋणदाताओं पर तरलता का संकट आ सकता है. मूडीज की इस घोषणा के बाद भारतीय भारतीय बैंकों के शेयरों में भारी गिरावट आयी है. यह पहली बार नहीं है कि मूडीज या किसी दूसरी रेटिंग एजेंसी ने इस प्रकार से रेटिंग गिरायी है.
ये एजेंसियां अक्सर ऐसा करती रहती हैं और कई बार तो ऐसा होता है कि इस प्रकार की कार्यवाही का कोई कारण भी नहीं होता.इस संदर्भ में ध्यान देना होगा कि शेयर बाजार के नियामक ‘सेबी’ द्वारा दी गयी सलाह को भी मूडीज ने किनारे कर दिया है. ‘सेबी’ ने यह कहा था कि ऋण और ब्याज अदायगी में तीन महीने की छूट को ऋण अदायगी में कोताही नहीं माना जाना चाहिए, यह एक अल्पकालिक व्यवस्था मात्र है. समझना होगा कि मूडीज द्वारा बैंकों की रेटिंग की गिरावट से केवल शेयर बाजार में ही उथल-पुथल नहीं हुई, बल्कि फंसी हुई परिसंपत्तियां (एनपीए) की समस्या से उबरते बैंकों के लिए और अधिक कठिनाई उत्पन्न हो सकती है.
‘स्टैंडर्ड एंड पूअर्स’, ‘मूडीज’ और ‘फिच’ नाम की तीन प्रमुख रेटिंग एजेंसियां दुनिया में स्थापित हैं. पहली दोनों कंपनियां मिलकर 81 प्रतिशत रेटिंग बिजनेस करती हैं और बाकी में से 13.5 प्रतिशत हिस्सा ‘फिच’ के पास है. ये रेटिंग एजेंसियां (कंपनियां) दुनिया भर के देशों और वित्तीय संस्थानों की रेटिंग करती हैं, उनकी रेटिंग के आधार पर ही सरकारों द्वारा लिये जानेवाले ऋणों का ब्याज निर्धारित होता है. विभिन्न वित्तीय संस्थाओं पर लोगों का भरोसा इन एजेंसियों की रेटिंग पर निर्भर करता है.इन एजेंसियों की साख भी बहुत अच्छी नहीं है. साल 2008 में जब अमरीका के बड़े-बड़े बैंक और वित्तीय संस्थान डूबे थे, उसके कुछ समय पहले ही ये एजेंसियां उन्हें उच्च रेटिंग दे थीं. तब इनकी विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगना शुरू हो गया था.
यही नहीं, भारत में ‘सत्यम’ नाम की साॅफ्टवेयर कंपनी के कारनामों को छुपाने में ऑडिट फर्मों की भूमिका भी कम नहीं थी, जिन्हें इन एजेंसियों ने उच्च रेटिंग दी थी. हालांकि रेटिंग एजेंसियों ने कोरोना के आर्थिक प्रभाव के चलते अपनी रेटिंग को दुनियाभर के वित्तीय संस्थानों के लिए घटाया है, लेकिन आलोचकों का मानना है कि इन कंपनियों ने पहले ही अपनी ग्राहक कंपनियों की रेटिंग को बेजा ही ऊपर रखा हुआ था. ऐसा इसलिए है कि ये रेटिंग एजेंसियां सामान्यतः स्वयं रेटिंग नहीं करतीं, बल्कि कंपनियां इन एजेंसियों को रेटिंग के लिए भुगतान करती हैं. इसलिए ग्राहक छूटने के भय से ये एजेंसियां कंपनियों के आर्थिक हालात बिगड़ने के बावजूद भी उनकी रेटिंग नहीं गिरातीं.
फाइनांशियल टाइम्स अखबार के अनुसार, 2015 में ‘स्टैंडर्ड एण्ड पूअर्स’ इस आरोप को स्वीकारा था कि वे बिजनेस की प्रतिस्पर्धा जीतने के उद्देश्य से ऊंची रेटिंग देते रहे हैं. अमरीकी सरकार और अमरीकी राज्यों को उन्होंने 1.4 अरब डालर का हर्जाना दिया था. मूडीज ने भी 2017 में 3640 लाख डालर का हर्जाना दिया था. समझा जा सकता है कि इन एजेंसियों की रेटिंग की सच्चाई क्या है.जानकारों का मानना है कि 2008 के वित्तीय संकट और उसमें रेटिंग एजेंसियों के घालमेल के बावजूद भी उनकी कार्यप्रणाली में कोई सुधार नहीं आया है. वास्तव में दोष व्यवस्था का है, जिसमें एजेंसियों को कंपनियां ही भुगतान करती हैं और उसके कारण उन्हें ऊंची रेटिंग भी प्राप्त होती है. यह विषय ‘हितों के टकराव’ का है.
आज जरूरत इस बात की है कि इन एजेंसियों के एकाधिकार पर अंकुश लगे, ताकि हितों के टकराव को रोकते हुए कंपनियों की साख का सही आकलन हो सके. आज निवेशकों को जो झूठी साख रेटिंग के कारण नुकसान हो रहा है, उस हिसाब से जुर्माना बहुत कम है. यह सही है कि कई मामलों में रेटिंग एजेंसियों के पास भी पूर्ण जानकारी होना सभव नहीं है, पर प्राप्त जानकारियों को छुपाना किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता. पूरी दुनिया में इन एजेंसियों का एकाधिकार है और इनमें से अधिकतर अमेरिका आधारित हैं. इस कारण यह भी देखने में आया है कि अमेरिका एक देश के नाते और वहां की कंपनियों की रेटिंग हमेशा बेहतर दिखायी जाती है.
जरूरी है कि अधिक से अधिक रेटिंग एजेंसियों को मान्यता मिले. भारत की अपनी रेटिंग एजेंसियां क्यों नहीं हो सकतीं? उसी प्रकार विभिन्न देशों ऐसी एजेंसियां हो सकती है. ऐसे में मौजूदा एजेंसियों का एकाधिकार समाप्त होगा. कंपनियों द्वारा इन रेटिंग एजेंसियों को शुल्क देने पर भी पाबंदी होनी चाहिए. (ये लेखक के निजी विचार हैं)