Loading election data...

कृष्ण भक्त भी थे विद्रोही कवि काजी नजरुल इस्लाम

अगर तुम राधा होते श्याम, मेरी तरह बस आठो पहर तुम रटते श्याम का नाम...' 'आज बन-उपवन में चंचल मेरे मन में मोहन मुरलीधारी, कुंज-कुंज फिरे श्याम...

By कृष्ण प्रताप | August 29, 2023 8:31 AM

बांग्ला के महानतम कवियों में से एक, काजी नजरुल इस्लाम की दो रचनाओं के भावानुवादों के ये दोनों अंश पढ़कर आपके मन-मस्तिष्क में भी कहीं कोई बांसुरी बजने लगी हो तो आइए, आज उनकी पुण्यतिथि पर एक साथ उन्हें याद करें. उनकी कृष्ण भक्ति व काली भक्ति को भी, क्रांति कामना को भी और उनके समूचे साहित्य में समाये इन सबके अद्भुत समन्वय को भी. हां, इस बात को भी कि वे कवि भर नहीं थे, उनके व्यक्तित्व के कई और भी अद्भुत आयाम थे.

नजरुल का परिवार तत्कालीन पश्चिम-मध्य बिहार के हाजीपुर शहर का मूल निवासी था और मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के समय उसे छोड़कर पश्चिम बंगाल के तत्कालीन वर्धमान जिले में आसनसोल के पास स्थित चुरुलिया नामक गांव में जा बसा था. इसी गांव में 25 (कुछ अभिलेखों के अनुसार 24) मई, 1899 को नजरुल का जन्म हुआ. नजरुल अभी छोटे ही थे कि पिता का साया उठ गया, जिसके बाद का उनका सारा जीवन संघर्षों में ही बीता.

नाना प्रकार के दुख व तकलीफें झेलते-झेलते प्राथमिक शिक्षा के बाद, हालात के दबाव में वे एक मदरसे में मरहूम पिता की जगह मस्जिद में मुअज्जिन बन गये और व्यवधानों के बीच अरबी व फारसी की शिक्षा ग्रहण करते रहे. वर्ष 1917 में यह सब छोड़कर ब्रिटिश सेना में शामिल होने से पहले वे घरेलू सहायकों जैसे छोटे-मोटे काम करने और एक घुमक्कड़ लोक संगीत मंडली का हिस्सा बनने को भी मजबूर हुए.

हां, कुछ दिनों तक बेकरियों में काम करने को भी. ब्रिटिश सेना में उन्होंने उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत के नौशेरा क्षेत्र और कराची में अपनी सेवाएं दीं. कराची में ही 1919 में साओगाट (द गिफ्ट) नामक पत्रिका में प्रकाशित एक छोटी कहानी के जरिये उनका बांग्ला साहित्यिक परिदृश्य में प्रवेश हुआ. लेकिन जैसे ही पहला विश्वयुद्ध समाप्त हुआ, अंग्रेजों ने वह रेजीमेंट ही भंग कर दी, जिसमें वे हवलदार थे. फिर तो वे कलकत्ता लौट आये और भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के संस्थापकों में से एक मुजफ्फर अहमद के साथ मिलकर लेबर स्वराज पार्टी स्थापित की, उसका पैंपलेट लिखा और उसके मुखपत्र लैंगोल का संपादन किया. उन्हीं दिनों उन्होंने अपना पहला उपन्यास ‘बंधन हारा’ भी लिखा.

वर्ष 1919 में पंजाब के जलियांवाला बाग में भीषण नरसंहार से विचलित हो वे स्वतंत्रता संघर्ष में कूद पड़े. तदुपरांत, ‘अग्निवीणा’ नाम से उनका पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ, तो उसकी ‘विद्रोही’ शीर्षक कविता ने पूरे बंगाली समाज में क्रांति की भावनाएं भर दीं. असहयोग आंदोलन की पृष्ठभूमि में रची गयी इस कविता में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के खिलाफ विद्रोह के जोरदार आह्वान के बाद उन्हें ‘विद्रोही कवि’ कहा जाने लगा.

उन्होंने अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में अपने व्यक्तित्व का बहुमुखी उन्नयन किया और कृष्ण व काली के भक्त, श्यामा संगीत के सर्जक, हिंदू-मुस्लिम सौहार्द के अग्रदूत, विद्रोह तथा क्रांति के कवि, संगीतकार, नाटककार, उपन्यासकार, पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी आदि विविध रूपों में अपनी पहचान बनायी.

आज की तारीख में उनके रचे कई भक्ति गीत लोकगीतों में बदल गये हैं, जो पश्चिम बंगाल के दुर्गा पूजा उत्सवों में बिना यह जाने खूब गाये जाते हैं कि उन्हें किसने रचा है. उन्होंने कुल मिलाकर तीन हजार गीतों की रचना की है, जिनसे निर्मित शैली को ‘नजरुलगीति’ नाम से जाना जाता है.

अपनी ‘आनंदमोइर अगोमोन’ (आनंदमोई का स्वागत) शीर्षक बहुचर्चित कविता में उन्होंने भारत को गुलाम बनाने वाले ब्रिटिश साम्राज्य को कसाई तक बता डाला था. जैसे ही यह कविता उनके द्वारा संपादित ‘धूमकेतु’ नामक बांग्ला पत्रिका में छपी, गोरे सत्ताधीशों ने कार्यालय पर छापा मार उन्हें पकड़ लिया और माफी मांगने को कहा. उनके इनकार करने पर उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया, जिसमें मजिस्ट्रेट द्वारा उन्हें एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गयी. सजा काटकर भी वे नहीं टूटे और विद्रोही बने रहे.

ज्ञातव्य है कि जहां टैगोर को भारत व बांग्लादेश के राष्ट्रगान लिखने का गौरव हासिल है, वहीं नजरुल भारत के 1960 के पद्मभूषण विजेता हैं. वर्ष 1971 में बांग्लादेश ने अपने जन्म के बाद नजरुल को अपना राष्ट्रकवि बनाया. इसके अगले ही बरस 1972 में बांग्लादेश ने भारत सरकार की सहमति लेकर उन्हें बुलावा भेजा, तो वे सपरिवार उसकी राजधानी ढाका चले गये. वहीं चार वर्ष बाद 1976 में आज ही के दिन उनका निधन हो गया.

Next Article

Exit mobile version