डॉ अश्विनी महाजन
एसोसिएट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय
ashwanimahajan@rediffmail.com
आत्मनिर्भर भारत का विचार भारतीय लोकाचार और जन-सामान्य से सीधे जुड़ा हुआ है. अंग्रेजों को हराने के लिए महात्मा गांधी ने स्वदेशी के विचार का इस्तेमाल किया था. उनके लिए स्वदेशी आत्मनिर्भरता की ही अभिव्यक्ति थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 12 मई के संबोधन को गांधी के विचार को अपनाने और सुधार के रूप में देखा जाना चाहिए, जिसमें स्थानीय को बढ़ावा देने का संकल्प है. यह विचार भारत को आर्थिक रूप से स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनाने का मार्ग प्रशस्त करता है. विकसित देशों ने विकास के लिए दूसरे देशों के मॉडल की नकल नहीं की है. उन्होंने स्वयं ही रणनीतियां बनायी हैं. लेकिन हमारे नीति-निर्माता विदेशी मॉडलों से अभिभूत रहे. न ही उन्हें कभी देशवासियों और उनकी उद्यमशील क्षमता पर भरोसा रहा, न ही लोकाचार व विचार प्रक्रिया पर. उन्हें कभी यह विश्वास ही नहीं रहा कि लोगों को केंद्र में रखकर विकास किया जा सकता है.
पिछले 70 वर्षों में नीति-निर्माताओं ने हमारे स्वदेशी उद्योगों, संसाधनों और उद्यमियों पर भरोसा ही नहीं किया. जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में नीति-निर्माताओं ने विकास के रूसी मॉडल पर विश्वास किया. सार्वजनिक क्षेत्र आधारित दर्शन इस मॉडल के मूल में था. माना गया कि सार्वजनिक क्षेत्र इस देश के विकास को गति देगा और उपभोक्ता वस्तुओं से जुड़े उद्योगों के विकास में भी योगदान देगा. लेकिन उस मॉडल में कृषि और सेवा क्षेत्र शामिल नहीं था. वर्ष 1991 में यह महसूस किया गया कि हमारी अर्थव्यवस्था जिस मॉडल पर आधारित थी, वह विफल रहा है. बढ़ते विदेशी ऋण के कारण देश मुसीबत में आ गया, विदेशी मुद्रा भंडार समाप्त हो गये थे और डिफॉल्ट का खतरा उत्पन्न हो गया था. सो, अर्थव्यवस्था को बचाने का एकमात्र तरीका वैश्वीकरण ही माना गया. इस प्रकार हमने देश को विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआइ) व बहुराष्ट्रीय निगमों के जरिये विदेशियों के हाथों सौंप दिया. यह नयी व्यवस्था पूंजी आधारित थी, विशेषकर विदेशी पूंजी आधारित. एकाधिकार और बाजार पर कब्जा बड़ी विदेशी कंपनियों की प्राथमिकता थी. तर्क दिया गया कि इस मॉडल के कारण विकास में तेजी आयी. सच तो यह है कि 1991 के बाद जीडीपी का जो विकास हुआ, उसका कारण विलासिता की वस्तुओं का अधिक उत्पादन और सेवा क्षेत्र में तेज वृद्धि रही. जीडीपी के विकास का लाभ भी कुछ लाभार्थियों तक ही सीमित रहा.
वस्तुतः यह विकास रोजगारहीन, जड़हीन और बेरहम था. एक तरफ अंधाधुन रियायतें देकर विदेशी पूंजी को हमारी उन कंपनियों के अधिग्रहण की छूट दी गयी, जो पहले ही अच्छा कर रही थीं. वहीं दूसरी तरफ वैश्वीकरण के नाम पर चीनी माल के आयात की अनुमति देकर हमने अपने रोजगार को नुकसान पहुंचाने और आर्थिक असमानता बढ़ाने का काम किया. इससे विदेशी व्यापार और चालू खाते पर भुगतान शेष में घाटा असहनीय होता गया. कई स्थानीय उद्योग-धंधे चौपट हो गये, क्योंकि उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण नीतियों में कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था सम्मिलित ही नहीं थी. बेरोजगारी और गरीबी ने लोगों को सरकारी मदद पर निर्भर बना दिया. रोजगार (मनरेगा) और भोजन के अधिकार के नये मानदंड बनने लगे. लेकिन ये नीतियां लोगों द्वारा सामाजिक-आर्थिक विकास में योगदान देने में बाधक हैं. विकास को अधिक भागीदार, समावेशी और रोजगारोन्मुखी बनाने के लिए ‘यूनिवर्सल बेसिक इनकम’ देने की बात भी हुई. मौजूदा आर्थिक व्यवस्था में यह एकमात्र समाधान बताया जाता है, लेकिन यह लंबे समय तक नहीं चल सकता है.
हालांकि, प्रधानमंत्री मोदी मेक इन इंडिया, स्टार्ट-अप, खादी आदि पर जोर देते रहे, पर कम टैरिफ और बिना सोचे-समझे एफडीआइ, एफपीआइ और आयात पर निर्भरता की नीति भी जारी रही. ज्ञात हो कि हमारे सामाजिक क्षेत्रों की खराब स्थिति का कारण स्वास्थ्य और शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय की कमी भी है. वर्तमान में प्रधानमंत्री का ‘वोकल फॉर लोकल’ पर जोर आत्मनिर्भरता की दिशा में उठाया गया एक ऐसा कदम है, जिसकी लंबे समय से जरूरत थी. आज उन स्थानीय उद्योगों को पुनर्जीवित करने का समय है, जो वैश्वीकरण के युग में नष्ट हो गये थे. यह उन आर्थिक नीतियों की शुरुआत करने का भी समय है, जो जन-कल्याण, स्थायी आय, रोजगार सृजन और सबके लिए मददगार हों और जो लोगों में विश्वास पैदा करें. प्रधानमंत्री ने अपने भाषण के साथ भारत के लिए न केवल ‘क्वांटम जंप’ की नींव रखी है, बल्कि स्वदेशी उद्यमों के लिए अधिक अवसर और सम्मान पैदा करने की ओर भी कदम बढ़ाया है. इससे स्थानीय ब्रांडों को वैश्विक ब्रांड बनने में सहायता मिलेगी. कोरोना महामारी से निपटने के लिए दुनियाभर की सरकारें प्रयासरत हैं. प्रधानमंत्री द्वारा 20 लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा, मजदूरों, छोटे व्यापारियों व उद्यमियों, किसानों, ईमानदार करदाताओं और अन्य व्यवसायों को राहत और अवसर दे सकती है. चीन के आर्थिक हमले, सरकारों की उदासीनता और विदेशी पूंजी के प्रभुत्व के कारण लंबे समय से पीड़ित छोटे व्यवसायों के पुनरुत्थान व प्रोत्साहन के लिए इसे एक उपाय के रूप में देखा जा सकता है. इस अवसर का उपयोग स्थानीय विनिर्माण और अन्य व्यवसायों के आधार पर अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण के लिए किया जाना चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)