अदालतों में क्षेत्रीय भाषाएं
दशकों से यह मांग की जाती रही है कि पेशेवर शिक्षा की प्रवेश परीक्षा में तथा शिक्षण के माध्यम के रूप में हिंदी समेत भारतीय भाषाओं को भी शामिल किया जाए.
प्रधान न्यायाधीश डीवाइ चंद्रचूड़ ने कहा है कि प्रभावी न्याय व्यवस्था के लिए स्थानीय भाषाओं को अपनाना चाहिए. एक गोष्ठी में उन्होंने बताया कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जब वे न्यायाधीश थे, तब उन्होंने महसूस किया था कि वकील अपनी मूल भाषा में बेहतर तरीके से बहस कर पा रहे थे. हमारे देश में दशकों से यह मांग की जाती रही है कि पेशेवर शिक्षा की प्रवेश परीक्षा में तथा शिक्षण के माध्यम के रूप में हिंदी समेत भारतीय भाषाओं को भी शामिल किया जाए.
लेकिन अभी तक पठन-पाठन में अंग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है. पिछले साल भी प्रधान न्यायाधीश ने कहा था कि विधि विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए आयोजित कॉमन लॉ एडमिशन टेस्ट (क्लैट) को केवल अंग्रेजी में आयोजित करना कानूनी पेशे को ग्रामीण और वंचित लोगों के विरुद्ध पक्षपातपूर्ण है. उनके कथन कानून के पेशे में सेवा हासिल करने तथा उसके समावेशी होने से संबंधित समस्या को इंगित करते हैं. कानून की पढ़ाई में अंग्रेजी का वर्चस्व है, तो दस्तावेज भी अंग्रेजी में होते है, सुनवाई में भी अंग्रेजी का ही बोलबाला रहता है. फैसले भी आम तौर पर अंग्रेजी में ही लिखे जाते हैं. निचली अदालतों में स्थानीय भाषाओं के लिए कुछ गुंजाइश रहती है, पर सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों, विशेष न्यायालयों और ट्रिब्यूनलों में अंग्रेजी ही चलती है.
कुछ दिन पहले उन्होंने न्यायाधीशों को सलाह दी थी कि वे सरल भाषा में निर्णय लिखें, जिसे समझने में सबके लिए आसानी हो. कई देशों में कानून की पढ़ाई और अदालती प्रक्रिया में क्षेत्रीय भाषाओं का इस्तेमाल होता है. ऐसी व्यवस्था से न्यायिक प्रक्रिया तक नागरिकों की पहुंच आसान होती है तथा उन्हें इस पेशे में आने के लिए भी प्रोत्साहन मिलता है. प्रधान न्यायाधीश ने यह भी कहा है कि यदि कानून के मुख्य सिद्धांतों को छात्र अपनी मूल भाषा और संदर्भ में पढ़ेंगे, तो वे सामाजिक रूप से अधिक जिम्मेदार वकील बनेंगे तथा अपने समुदायों से उनका जुड़ाव भी पुख्ता होगा. उनके प्रयासों से सर्वोच्च न्यायालय में तकनीक को अपनाने पर जोर दिया गया है.
जनवरी 2023 से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को विभिन्न भाषाओं में अनूदित करने की परियोजना चल रही है. इसके तहत हिंदी, गुजराती, उड़िया और तमिल भाषाओं में निर्णयों को उपलब्ध कराया जा रहा है. हाल के वर्षों में मेडिकल, प्रबंधन आदि कुछ पेशेवर पाठ्यक्रमों को हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़ाने की प्रक्रिया शुरू की गयी है, पर इसके विस्तार की गति बहुत धीमी है. इस महीने के शुरू से लागू किये गये तीन नये कानूनों का भी अभी तक विभिन्न भाषाओं में अनुवाद नहीं हुआ है. ऐसे अवरोधों को दूर किया जाना चाहिए.