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पूंजीवाद के जयघोष के बीच मार्क्स की याद

जो सबसे ज्यादा लोगों की खुशी के लिए काम करता है.’ वे मानते थे कि ‘पूंजीवादी समाज में पूंजी स्वतंत्र और व्यक्तिगत होती है, जबकि जीवित व्यक्ति उसका आश्रित होता है और उसकी कोई वैयक्तिकता नहीं होती.’

पूंजीवाद की जय और साम्यवाद की पराजय के उद्घोष के इस दौर में वैज्ञानिक समाजवाद के प्रणेता दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजविज्ञानी और पत्रकार कार्ल मार्क्स, 1818 में जिनका जन्म जर्मनी में आज के ही दिन हुआ था) की यादें बड़ी विडंबना की शिकार हैं. आम तौर पर उन्हें याद करना जरूरी नहीं समझा जाता, लेकिन भुलाना भी संभव नहीं हो पाता.

मार्क्स के अनुयायियों की परेशानी यह है कि वे उन्हें ‘स्थापित’ नहीं कर पाये हैं, तो ‘दुश्मनी’ पर आमादा रहने वालों की यह कि उन्होंने भले ही उनके विचारों का दुर्दिन से सामना करा दिया है, उन्हें पूरी तरह ‘विस्थापित’ नहीं कर पा रहे. इसे यों समझ सकते हैं कि जिस पूंजीवाद से मार्क्स आखिरी सांस तक दो-दो हाथ करते रहे, उसके सब कुछ अपनी मुट्ठी में कर लेने के बावजूद उसके पैरोकार मार्क्स द्वारा वर्णित पूंजी को मनुष्यमात्र को हृदयहीन बनाने के पुराने इतिहास को नकार नहीं पा रहे हैं.

कई बार अपने कमजोर क्षणों में उन्हें लगता है कि मार्क्स को उनके अनुयायियों से ज्यादा वही ‘सही’ सिद्ध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें गलत सिद्ध करने के लिए पूंजी को मनुष्यमात्र के प्रति सहृदय बनाने की शर्त उनसे पूरी नहीं हो रही. वर्ष 1837 में मार्क्स ने अपने पिता को एक पत्र में लिखा था, ‘संसार में सबसे ज्यादा खुशी उसी को मिलती है, जो सबसे ज्यादा लोगों की खुशी के लिए काम करता है.’

वे मानते थे कि ‘पूंजीवादी समाज में पूंजी स्वतंत्र और व्यक्तिगत होती है, जबकि जीवित व्यक्ति उसका आश्रित होता है और उसकी कोई वैयक्तिकता नहीं होती.’ उन्होंने तभी समझ लिया था कि अंधाधुंध उपभोग हमें खुशी के पास नहीं ले जाता, उससे और दूर करता है.

इसलिए उनका विचार था, ‘जरूरत तब तक अंधी होती है, जब तक उसे होश न आ जाये. आजादी जरूरत की चेतना होती है.’ राजनीति, अर्थशास्त्र, दर्शन, समाजशास्त्र, श्रम, इतिहास और प्रकृति के साथ वैज्ञानिक विश्लेषणों के विभिन्न मोर्चों पर सक्रिय रहे इस क्रांतिकारी को दुनिया खासतौर से मनुष्य की मुक्ति कामना को नया सैद्धांतिक आयाम देने वाली कृतियों- ‘दास कैपिटल’ और ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र’- के लिए जानती है.

उन्होंने मनुष्यता के इतिहास में धर्म की भूमिका को कभी भी एकतरफा तौर पर खारिज नहीं किया. उन्होंने कहा था, ‘धर्म दीन प्राणियों का विलाप है, बेरहम दुनिया का हृदय है और निष्प्राण परिस्थितियों का प्राण है. मानव का मस्तिष्क जो न समझ सके, उससे निपटने की नपुंसकता है. यह लोगों के लिए अफीम है और उनकी खुशी के लिए पहली आवश्यकता इसका अंत है.’

लेखकों के बारे में उनकी राय है, ‘जीने और लिखने के लिए लेखक को पैसा कमाना चाहिए. लेकिन किसी भी सूरत में पैसा कमाने के लिए जीना और लिखना नहीं चाहिए. …लेखक इतिहास के किसी आंदोलन को शायद बहुत अच्छी तरह से बता सकता है, लेकिन निश्चित रूप से वह उसे बना नहीं सकता.’

उनके साम्यवाद के सिद्धांत को उन्हीं के कुछ शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सकता है- ‘सारी निजी संपत्ति को खत्म किया जाए. …हर किसी से उसकी क्षमता के अनुसार काम लिया जाए और हर किसी को उसकी जरूरत के अनुसार दाम दिया जाए. …माना जाए कि नौकरशाहों के लिए दुनिया महज हेरफेर करने की वस्तु है.’

मजदूरों के संदर्भ में उनके इस प्रसिद्ध कथन को भी याद करना चाहिए कि उनके पास खोने को सिर्फ जंजीरें हैं, जबकि जीतने को सारी दुनिया. वे लोगों के विचारों को उनकी भौतिक स्थिति का सबसे प्रत्यक्ष उद्भव बताते हैं, जबकि लोकतंत्र को समाजवाद तक जाने का रास्ता मानते हैं और कहते हैं कि महिलाओं के उत्थान के बिना कोई भी महान सामाजिक बदलाव असंभव है.

दिलचस्प है कि एक समय उन्होंने कहा था कि ‘अगर कोई एक चीज निश्चित है, तो यह कि मैं खुद मार्क्सवादी नहीं हूं.’ लेकिन 14 मार्च, 1883 को लंदन में अंतिम सांस लेने तक संसार समर में लड़ते हुए उन्होंने मनुष्य को उसमें जीतने और मुक्त होने की जो राह सुझायी, उसे मार्क्सवाद नाम से ही जाना जाता है. एक विचारक के शब्दों में कहें, तो कार्ल मार्क्स के दुश्मन तो वैसे ही हैं, जैसा वे उन्हें समझते थे. लेकिन अपने अनुयायियों को पहचानने में उन्हें धोखा हुआ है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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