‘रेणु’ : पहले उपन्यास से ही मच गयी थी धूम

कहते हैं कि ‘मैला आंचल’ उपन्यास में रेणु उस अंचल के जनजीवन का बेहद सजीव व मर्मस्पर्शी चित्रण इसलिए कर पाये कि उनका उससे गुल से लिपटी हुई तितली जैसा कभी अलग न किया जा सकने वाला जुड़ाव था.

By कृष्ण प्रताप सिंह | March 4, 2024 5:12 AM

आंचलिक उपन्यासों की अप्रतिम सर्जना की बिना पर कथा सम्राट प्रेमचंद की परंपरा को नयी पहचान दिलाकर ‘आजादी के बाद का प्रेमचंद’ कहलाने वाले फणीश्वरनाथ रेणु हिंदी के बिरले कथाकार हैं. आलोचकों द्वारा उन्हें उनके पहले उपन्यास ‘मैला आंचल’ के अलावा ‘परती परिकथा’ और ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गये गुलफाम’ जैसी अनेक कृतियों के लिए सराहा जाता है, लेकिन सच यही है कि 1954 में पहली बार प्रकाशित ‘मैला आंचल’ ने उनको जैसी प्रतिष्ठा और ख्याति दिलायी, उनकी दूसरी कृतियों से वैसा कोई कारनामा संभव नहीं हुआ. उनकी महत्वाकांक्षी कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गये गुलफाम’ पर सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेंद्र ने बासु भट्टाचार्य द्वारा निर्देशित ‘तीसरी कसम’ जैसी फिल्म बनायी. अपने वक्त में मील के पत्थर सरीखी मानी गयी इस कालजयी फिल्म ने कहानी के पात्रों- हीरामन व हीराबाई- की अनूठी प्रेमकथा को अमर कर दिया. फिर भी रेणु का प्रतिनिधि उपन्यास ‘मैला आंचल’ को ही माना जाता है, जो उत्तर-पूर्वी बिहार के एक पिछड़े ग्रामीण इलाके की पृष्ठभूमि पर आधारित है.


वर्ष 1970 में इस उपन्यास की लोकप्रियता ने उन्हें ‘पद्मश्री’ दिलायी, पर सरकार विरोधी आंदोलनों के निर्मम दमन से चिढ़कर उन्होंने उसे ‘पापश्री’ करार देकर लौटा दिया. कहते हैं कि इस उपन्यास में रेणु उस अंचल के जनजीवन का बेहद सजीव व मर्मस्पर्शी चित्रण इसलिए कर पाये, क्योंकि उनका उससे गुल से लिपटी हुई तितली जैसा कभी अलग न किया जा सकने वाला जुड़ाव था. उन्हीं के शब्दों में कहें, तो मैला आंचल में फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है… गरीबी, रोग, भुखमरी, जहालत, धर्म की आड़ में हो रहे व्याभिचार, शोषण, आडंबरों व अंधविश्वासों आदि का चित्रण भी है, क्योंकि ‘मैं किसी से दामन बचाकर निकल ही नहीं पाया’. निकल भी कैसे पाते, उनका नाल जो गड़ा था वहां. वरिष्ठ पत्रकार देवप्रकाश चौधरी ने कभी बिहार के अररिया जिले में फारबिसगंज के पास स्थित उनके गांव औराही हिंगना से लौटकर लिखा था- रेणु जी के बड़े बेटे पदम पराग राय ‘वेणु’ फारबिसगंज से विधायक हो गये उनकी जीवनसंगिनी लतिका रेणु नहीं रहीं औराही हिंगना में और भी बहुत कुछ बदल गया है लेकिन भले ही गांव बदल जाये, वक्त बदल जाये, हालात बदल जायें, लेकिन एक चीज कभी नहीं बदलने वाली-उस गांव और उस इलाके के परिवेश में फणीश्वरनाथ रेणु की मौजूदगी.


चार मार्च, 1921 को औराही हिंगना में जन्म और 11 अप्रैल, 1977 को पटना में निधन के बीच के कोई 56 वर्षों के जीवन में स्वतंत्रता संग्राम, साहित्य, व राजनीति के क्षेत्र में उनकी सक्रियताओं के अनेक आयाम रहे हैं. साहित्य सेवा की ओर तो उनका गंभीर झुकाव 1952-53 में हुआ, जब वे बीमार होकर रुग्णशय्या पर थे. वर्ष
1942 में अभी उनकी इंटर की पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई थी कि वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे और दो वर्ष जेल में काटने के बाद 1944 में रिहा हुए थे. साल 1950 में उन्होंने नेपाल में जनतंत्र की स्थापना के लिए चलाये जा रहे क्रांतिकारी आंदोलन में भी हिस्सा लिया था. बाद में पटना विश्वविद्यालय के छात्रों की संघर्ष समिति और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन में भी सक्रिय रहे थे. साल 1941 में विवाह के बाद वे एक बेटी के बाप बने ही थे कि उनकी पत्नी रेखा देवी को लकवा मार गया और असहाय होकर वे अपने मायके में रहने लगीं. उन्होंने 1951 में पद्मा देवी से विवाह किया. जब वे गंभीर रूप से बीमार होकर अस्पताल में भर्ती हुए, तो वहां काम कर रहीं लतिका राय चौधरी की सेवा से अभिभूत होकर उनसे प्यार कर बैठे. अगले ही बरस 1952 में उन्होंने लतिका को भी पत्नी बना लिया.


प्रसंगवश, रेणु हिंदी की उन गिनी-चुनी शख्सियतों में से भी एक हैं, जो स्वतंत्रता के बाद सक्रिय राजनीति का हिस्सा भी रहे. नामवर सिंह ने उत्तर प्रदेश में साठ के दशक में उत्तर प्रदेश की चकिया-चंदौली लोकसभा सीट से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा था, तो रेणु ने 1972 में बिहार की फारबिसगंज विधानसभा सीट से नाव चुनाव चिह्न पर निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा, हालांकि वे सोशलिस्ट पार्टी की राजनीति भी करते रहे थे. विडंबना यह रही कि चुनावी राजनीति उन्हें कतई रास नहीं आयी. फारबिसगंज के मतदाताओं ने उन्हें तीसरे पायदान पर धकेल दिया, जिसके बाद वे सक्रिय राजनीति से अलग होने को मजबूर हो गये और आखिरी सांस तक साहित्य की साधना करते रहे.

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