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सत्ताभोगियों को कर्मयोगियों से बदलें

जब तक नुकसानदेह अफसरशाही के चरित्र को बदला नहीं जायेगा, तब तक कोई भी मिशन, यहां तक किसी बड़े विजन के साथ भी, बेहतर शासन नहीं ला सकता है.

By प्रभु चावला | September 16, 2020 6:03 AM

प्रभु चावला, एडिटोरियल डायरेक्टर, द न्यू इंडियन एक्सप्रेस prabhuchawla@newindianexpress.com

अल्बर्ट आइंस्टीन ने एक गंभीर और दार्शनिक बात कही है कि नौकरशाही किसी भी उपलब्धि की मृत्यु है. फिर भी, ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री मोदी को विश्वास है कि अक्षम नौकरशाही को उपयोगी बनाया सकता है. परिवर्तनकारी पहल करते हुए उन्होंने बाबूशाही में बदलाव शुरू किया है. हाल ही में प्रधानमंत्री ने एक डिजिटल अभियान आइजीओटी-कर्मयोगी की शुरुआत की है. सरकार के मुताबिक, मिशन कर्मयोगी का उद्देश्य भविष्य के भारतीय प्रशासनिक सेवकों को तैयार करना है, जिसके लिए उन्हें रचनात्मक, सृजनात्मक, कल्पनाशील, नवोन्मेषी, सक्रिय, पेशेवर, प्रगतिशील, ऊर्जावान, सक्षम, पारदर्शी और तकनीकी तौर पर निपुण बनाया जायेगा.

विशिष्ट भूमिका-दक्षताओं से युक्त, सिविल सेवक उच्चतम गुणवत्ता मानकों के साथ प्रभावी सेवाओं को सुनिश्चित करेंगे. इसे ‘प्रशासनिक सेवाओं के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम क्षमता निर्माण (एनपीसीएससीबी)’ के तौर पर नये प्रशासनिक आर्किटेक्चर के रूप में प्रस्तावित किया गया है. अत्यधिक कॉरपोरेट शब्दजाल केवल सरकार के उद्देश्य को दर्शाता है. वह उम्मीद करती है कि सिविल सेवक कॉरपोरेट संस्कृति और उसके तौर-तरीके अपनायें. सत्ताभोगी सिविल सेवकों को कर्मयोगियों में बदलने के लिए नये विधेयक में कई नयी एजेंसियों के गठन का प्रावधान है. मुख्य रूप से प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली एचआर-काउंसिल, क्षमता निर्माण आयोग, डेटा संग्रह तथा प्रबंधन के लिए सरकारी स्वामित्व वाले विशेष प्रयोजन वाहन के साथ-साथ कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक समन्वय इकाई के गठन का प्रावधान है.

यह सरकार द्वारा भूमिका-आधारित डिलीवरी सिस्टम को सुनिश्चित करने के संकल्प को दर्शाता है न कि शासन-आधारित. इसके लिए ढांचागत और वित्तीय सहायता उपलब्ध करायी गयी है. एनपीसीएससीबी का इरादा और सामग्री प्रशंसनीय है. हालांकि, भारत की आर्थिक नीति की ही तरह मिशन कर्मयोगी भी दोषपूर्ण है. बीते 40 वर्षों से देश की मौद्रिक और वित्तीय नीतियां ‘आपूर्ति अर्थशास्त्र’ से संचालित हो रही हैं. वर्ष 1991 से वामदलों को छोड़कर लगभग सभी पार्टियों ने अत्यधिक क्षमता निर्माण को आंख मूंदकर समर्थन दिया है. चार दशक बाद, मांग में आयी गिरावट की वजह से अर्थव्यवस्था संकट में है. मौजूदा व्यवस्था में क्षमता बढ़ोतरी पर अत्यधिक जोर देकर, एनडीए सरकार कुटिल सिविल सेवा के ट्रैप में फंस गयी है. नये फ्रेमवर्क में जवाबदेही और समयबद्ध डिलिवरी सिस्टम की उम्मीद शायद ही की जा सकती है.

दुर्भाग्य से, भारतीय अर्थव्यवस्था और इसका प्रभावी प्रशासन दो करोड़ पब्लिक अधिकारियों की गुणवत्ता और प्रतिबद्धता पर निर्भर है, जिन्हें लगभग 15,000 आइएएस अधिकारियों द्वारा नियंत्रित किया जाता है. यद्यपि बाबू लोग प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और अन्य लोकतांत्रिक तरीके से चुने गये प्रतिनिधियों को रिपोर्ट करते हैं. निर्वाचित कार्यकारिणी द्वारा पास नीतियों और योजनाओं को पूर्णरूप से तथा ईमानदारी के साथ लागू करने में वे शायद ही कभी जवाबदेह होते हैं. यहां तक कि खराब प्रदर्शन के कारण अगर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री मतदाताओं द्वारा बेदखल कर दिये जाते हैं, तो भी डीएम की प्रोन्नति हो जाती है. नौकरशाही को सफलता के लिए नहीं, बल्कि स्पष्ट विफलता के लिए पुरस्कृत किया जाता है. चूंकि, उन्हें जानकारियां सबसे पहले मिलती हैं, रुतबा बचाये रखने के लिए वे अक्सर इसका इस्तेमाल राजनीतिक नेतृत्व के खिलाफ करते हैं.

भारत पहले से ही लालची बाबूगिरी के बोझ से दबा है. एक चालाक सिविल सेवक हमेशा ऐसे किसी बदलाव या रचनात्मक परिवर्तन का विरोध करता है, जो उसकी ताकत को सीमित करता हो और लापरवाही के लिए कार्रवाई तय करता हो. प्रधानमंत्री ने सही कहा था कि उनकी सरकार, न्यूनतम सरकार के साथ अधिकतम शासन को सुनिश्चित करेगी, क्योंकि वे जानते हैं कि भारत की व्यवस्था बाह्य दिखावा है. गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए वे सतर्क थे कि उनकी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं को कैसे ये लोग नुकसान कर सकते हैं.

पांच साल बाद, उन्हें संकुचन के बजाय वृद्धि पर अधिक ध्यान केंद्रित करने की सलाह दी गयी है. आजादी के 75 साल बाद भी ग्रामीण भारत में संपर्क मार्ग, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, व्यवस्थित विद्यालय और स्वच्छ जलापूर्ति का अभाव है, तो इसके लिए जवाबदेह कौन है? इसमें गलती केवल नेताओं की नहीं है. राज्यों और केंद्र के बजटों से पर्याप्त धन का आवंटन किया गया है. लेकिन, इस राशि के सही इस्तेमाल के लिए नौकरशाहों की कोई जवाबदेही नहीं है. राजीव गांधी ने कहा था कि विकास कार्यों के लिए आवंटित एक रुपये में से केवल 15 पैसा ही लोगों तक पहुंचता है. जब सीएजी परियोजनाओं में वित्तीय अनियमितता और खरीद में हेराफेरी बताते हैं, तो क्यों निर्वाचित प्रतिनिधि ही केवल न्यायिक जांच और दंड का सामना करते हैं? वहीं फाइल बढ़ानेवाले छूट जाते हैं, जबकि वे फाइल को एक टेबल से दूसरे टेबल बढ़ाते हुए उनकी बात से सहमत होते हैं.

अंग्रेज ऐसा प्रशासनिक ढांचा छोड़ गये हैं, जो किसी अन्य के बजाय खुद को रिपोर्ट करता है. केवल आइएएस अधिकारी ही आइएएस अधिकारियों के चयन और तैनाती करने के हकदार हैं. मंत्रिमंडल की नियुक्ति समिति का सचिव हमेशा आइएएस ही होता है. आरबीआइ गवर्नर और अन्य डायरेक्टर से लेकर बैंकों के प्रमुख, खुफिया एजेंसियों, पीएसयू के प्रमुखों तक सब इसी ताकतवर समूह के हिस्से होते हैं. बेहतर अधिकारियों का चयन सुनिश्चित करने में नौकरशाही एक बार फिर से असफल रही है.

मोदी ने संवेदनशील पदों को संभालने हेतु बाहरी और अंदर के लोगों की 360 डिग्री की चयन प्रक्रिया शुरू की है. वास्तव में, भारत में अच्छे अधिकारी हो सकते हैं, बशर्ते कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के कार्यालय बाह्य पेशेवरों द्वारा संचालित हों, जो अंदर के लोगों को नियंत्रित कर सकते हों. जब तक नुकसानदेह अफसरशाही के चरित्र को बदला नहीं जायेगा, तब तक कोई भी मिशन, यहां तक किसी बड़े विजन के साथ भी, बेहतर शासन नहीं ला सकता है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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