आदिवासी चेतना के प्रति सम्मान
प्रधानमंत्री मोदी ने द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद के लिए नामित कर आदिवासी समाज में राजनीतिक क्रांति का सूत्रपात किया है. यह कालांतर में भारत की एकात्म परंपरा को शक्ति प्रदान करेगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नीत राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) द्वारा संताल समुदाय की आदिवासी महिला द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाना एक अभूतपूर्व निर्णय है, जो भारतीय राजनीति में एक क्रांतिकारी कदम साबित होगा. वर्ष 1857 के सैनिक विद्रोह से पूर्व 1855 में ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध स्वतःर्स्फूत संताल विद्रोह हुआ था, जिसका नेतृत्व सिदो-कान्हू, चांद-भैरो तथा फूलो-झानो ने किया था.
ये नेतृत्वकर्त्ता जनजातीय समूह के संताल समुदाय का प्रतिनिधित्व करते थे. द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाकर एनडीए ने अपनी प्रतिबद्धता को नया आयाम दिया है और यह चुनाव में उन्हें मिले अभूूतपूर्व समर्थन में भी दिखा है. यह प्रतिनिधित्व सही मायने में झारखंड, बिहार, ओडिशा एवं पश्चिम बंगाल में बसे संताल समुदाय की राजनीतिक चेतना के प्रति सम्मान के रूप में भी देखा जा सकता है. दलित, वंचित एवं शोषित समुदाय को देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन करने की इस पहल की जितनी भी सराहना की जाए, कम है.
इस उम्मीदवारी से यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि आदिवासी समाज का रातो-रात कायाकल्प हो जायेगा, लेकिन इतना तो तय है कि भारत दुनिया के सामने यह कह सकेगा कि उसने सत्ता की भागीदारी में उस वर्ग को भी हिस्सेदारी दी है, जिसे श्वेत और अभिजात्य माने जाने वाले समाज व राष्ट्र हीन भावना से देखते रहे हैं.
अमेरिका अपने को दुनिया का सबसे प्रगतिशील राष्ट्र तथा लोकतंत्र का सबसे बड़ा रक्षक बताता है, लेकिन आये दिन जब वहां की श्वेत अभिजात्य वर्चस्व वाली पुलिस किसी अश्वेत पर नाहक व गैरकानूनी तरीके से गोलियां चलाती है, तो मानवता तार-तार होती दिखती है. कैथोलिक चर्च का दुनियाभर में बोलबाला है, लेकिन आज भी उसके मुख्यालय वेटिकन पर श्वेतों का कब्जा है. इस्लाम के पैगंबर मोहम्मद ने साफ शब्दों में कहा कि कुरैशियों और अफ्रीकियों में कोई भेद नहीं है, लेकिन वहां आज भी कुरैशियों की बादशाहत कायम है.
भारत में भी शताब्दियों से आदिवासी समाज वंचित रहा है. सल्तनत काल से अंग्रेजी शासन तक इस समाज को कई प्रकार के कष्टों का सामना करना पड़ा. स्वतंत्र भारत में भी इसका सांस्कृतिक और साहित्यिक शोषण तक किया गया, लेकिन भारतीय पुनर्जागरण के तीसरे चरण में अब इनके महत्व को समझा जाने लगा है.
भारत में लगभग 700 से अधिक छोटे-बड़े आदिवासी समूह हैं. माना जाता है कि आदिवासी ही भारत के मूल निवासी हैं. हालांकि इस पर विद्वान एकमत नहीं है, लेकिन यह तो है ही कि आदिवासियों की जो धार्मिक मान्यता है, वही भारत की मूल अवधारणा है. आदिवासी समुदाय के लोग ज्यादातर पहाड़ी इलाकों या जंगलों में वास करते हैं. ब्रिटिश भारत में 1871 से लेकर 1941 तक हुई जनगणनाओं में आदिवासियों की अन्य धर्मों में गिनती की गयी थी. आजाद भारत में वर्ष 1951 की जनगणना के बाद से आदिवासियों को अलग धर्म में गिनना बंद कर दिया गया.
वर्ष 1951 की जनगणना के अनुसार आदिवासियों की संख्या 1,91,11,498 थी, जो 2001 में 8,43,26,240 हो गयी. तब आदिवासी समाज देश की जनसंख्या का 8.2 प्रतिशत था. आदिवासियों की संस्कृति की दृष्टि से उनके चार प्रमुख वर्ग हैं- परसंस्कृति प्रभावहीन समूह, परसंस्कृतियों द्वारा अल्प प्रभावित समूह, परसंस्कृति द्वारा प्रभावित, किंतु स्वतंत्र सांस्कृतिक अस्तित्व वाले समूह तथा वे आदिवासी समूह, जिन्होंने परसंस्कृतियों का स्वीकरण इस मात्रा में कर लिया है कि अब वे केवल नाम मात्र के आदिवासी रह गये हैं.
आदिवासियों का प्रकृति से गहरा संबंध है, जो उन्हें एक अलग दृष्टिकोण देता है. वर्तमान में प्रकृति पूजक आदिवासी मौजूदा शैक्षणिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों एवं क्रियाकलापों के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पा रहे हैं क्योंकि विकास योजनाएं तथा नीतियां आदिवासियों के मूल स्वभाव तथा अस्मिता के विपरीत बनाये जाते रहे हैं.
आदिवासी क्षेत्रों में अन्य सामाजिक व आर्थिक पक्षों की भांति शिक्षा की कमी गंभीर समस्या रही है. वर्ष 1950 के पूर्व आदिवासियों को शिक्षित करने हेतु भारत सरकार के पास कोई प्रत्यक्ष योजना नहीं थी, लेकिन स्वतंत्रता के बाद विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों द्वारा उनकी शिक्षा में प्रगति तो हुई है, लेकिन राजनीतिक और धार्मिक संवेदना का उद्गार आज भी देखने को नहीं मिलता है. साक्षरता में वृद्धि के बावजूद आज भी कई दुर्गम क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी शिक्षा से वंचित हैं.
भारतीय संविधान में आदिवासी समाज को विशेष दर्जा उनकी पहचान, संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपराओं को बनाये रखने तथा उनके संरक्षण के लिए दिया गया है. आदिवासियों के लिए संविधान में 5वीं अनुसूची है क्योंकि आदिवासी इलाके आजादी के पहले से ही कई मामलों में स्वतंत्र थे.
द्रौपदी मुर्मू का भारत के प्रथम नागरिक के रूप में चुना जाना झारखंड, बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल एवं समस्त भारत के आदिवासी समाज में राजनीतिक क्रांति का सूत्रपात है. यह कालांतर में भारत की एकात्म परंपरा को न केवल शक्ति प्रदान करेगा, अपितु यह समाज सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रहरी के रूप में उठ खड़ा होगा. बाबासाहब आंबेडकर को आत्मसंतोष मिल रहा होगा कि भारत को जो उन्होंने दिया, उनके उत्तराधिकारी उस पर खरे उतर रहे हैं.