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लैपटॉप आयात की नयी नीति पर हो पुनर्विचार

अच्छे कंप्यूटरों से दूरी बनाने से अपना ही नुकसान होगा, जो बाहर से ही मिल सकते हैं. याद रखें, भारत की सॉफ्टवेयर और आउटसोर्सिंग क्षेत्र में कामयाबी इसलिए संभव हो पायी क्योंकि कंप्यूटरों के आयात के मामले में 1991 से बहुत पहले ही उदारीकरण लागू हो चुका था.

वर्ष 1991 के आर्थिक सुधार का सबसे बड़ा फैसला लाइसेंस परमिट राज का खात्मा था. तब 24 जुलाई, 1991 की एक दोपहर, तत्कालीन उद्योग मंत्री ने एक झटके में एक नयी औद्योगिक नीति की घोषणा कर, 18 उद्योगों को छोड़ सारे उद्योगों के लिए लाइसेंस की व्यवस्था खत्म कर डाली. उस दिन शाम को वित्त मंत्री ने एक ऐतिहासिक भाषण दिया, जिससे आर्थिक सुधारों का एक युग आरंभ हुआ. इसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से लेकर बैंकिंग विनियमन, शुल्क कटौती और कीमतों को बाजार से जोड़ने जैसी चीजें शामिल थीं.

लेकिन सबसे बड़ा फैसला उद्योग मंत्रालय का भार संभालने वाले मंत्री का था. वह मंत्री स्वयं प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव थे. वह सबसे बड़ा सुधार था, जिसने ऑटो, स्टील, पेट्रोकेमिकल्स व फार्मास्युटिकल्स तथा टेलीकॉम से जुड़े बहुतेरे उद्योगों के लिए कामयाबी का रास्ता तैयार किया. लाइसेंस समाप्ति से नौकरशाहों की शक्ति समाप्त हो गयी, जो यह तय करते थे कि कौन कहां और कितना उत्पादन कर सकता है.

सुधार से पहले लाइसेंस व्यवस्था की बुराइयों की न जाने कितनी ही कहानियां सुनी जाती थीं. बस इतना कहना पर्याप्त होगा कि तब बहुत सारी कंपनियों और गुटों ने लाइसेंस हासिल करने और जुटाकर रखने में महारत हासिल कर ली थी. हैरानी की बात नहीं है, कि तब कालाबाजारी ने जोर पकड़ा. तीन से ज्यादा दशक बाद, जब लाइसेंस राज की यादें धुंधली पड़ चुकी हैं, अचानक से एक घोषणा होती है कि विदेशों से लैपटॉप, कंप्यूटर या टैबलेट मंगवाने के लिए लाइसेंस जरूरी होगा.

घोषणा पर हंगामा मचना ही था. तो, 24 घंटे के भीतर विदेश व्यापार महानिदेशालय को स्पष्टीकरण देना पड़ा कि लाइसेंस बहुत जल्दी, बल्कि मिनटों में मिल जायेगा. और, आयातित सामानों की संख्या पर कोई पाबंदी नहीं होगी. यही नहीं, दबाव के कारण सरकार ने इसके लागू होने का समय भी तीन महीने बढ़ा दिया. त्योहारों के महीने शुरू होने वाले हैं जब बड़ी संख्या में कंप्यूटर, लैपटॉप आदि बिकते हैं. कोई आश्चर्य नहीं कि अगले तीन-चार महीनों में आयातित सामानों की मांग में तेजी आयेगी.

आइए, इस मुद्दे की पड़ताल करें. सबसे पहले, यह 1991 में लागू हुए उस महत्वपूर्ण सुधार के रास्ते पर पीछे लौटने वाला कदम है, जिसकी सफलता का स्वाद हमने चखा है. हम विश्व व्यापार संगठन के उन संस्थापक सदस्यों में आते हैं जो आयात पर लाइसेंस जैसी पाबंदियों के खिलाफ थे. हमने आयात पर संख्यात्मक पाबंदियों को 23 से ज्यादा वर्ष पहले समाप्त कर दिया था. हालांकि, आयात शुल्क बढ़ाये जा सकते हैं. वर्ष 2014 में आयात शुल्क 13.5 प्रतिशत था, जो वर्ष 2019 में बढ़कर 17.6 प्रतिशत हो गया.

इसके बाद वह गिरकर 15 प्रतिशत हो गया. लेकिन, आम तौर पर आयात शुल्क बढ़ा है. तो, भारत का रवैया लगातार सुरक्षावादी होता हुआ दिख रहा है. इस फैसले का दूसरा पहलू इसी रवैये से जुड़ा है. लैपटॉप के आयात पर लाइसेंस का मकसद संभवतः घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को प्रोत्साहन देना है. ऐसा ही रवैया मेक इन इंडिया अभियान में भी नजर आया है. यह कहना अलग बात है कि भारत को वैश्विक मैन्युफैक्चरिंग का हब बनना चाहिए, और घरेलू तथा अंतरराष्ट्रीय बाजार के लिए किफायती और क्वालिटी के उत्पाद उपलब्ध कराने चाहिए.

लेकिन, सुरक्षावादी होना, और अक्षमता और ऊंची लागत को बढ़ावा देना बिल्कुल अलग बात है. क्या भारत में उत्पादन को बेहतर बनाने के लिए उसे अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता के सामने खड़ा करना अच्छी बात नहीं? केवल आयात पर लाइसेंस लगा देने भर से घरेलू उत्पादन को बल नहीं मिल जायेगा. ऐसा भी हो सकता है जब 95 प्रतिशत लैपटॉप आयात वाले होंगे और देसी लैपटॉप केवल पांच प्रतिशत. भारत में एप्पल के आइफोन के उत्पाद का मामला ऐसा ही है, जहां से सारी दुनिया को फोन निर्यात हो रहे हैं. मगर एप्पल को पीएलआइ स्कीम के तहत कुल राजस्व पर सब्सिडी मिलती है, न कि केवल भारत में उसके फोन में किये गये अतिरिक्त काम पर.

तीसरा मुद्दा चीन से जुड़ा है. पिछले कई वर्षों से चीन से भारत का आयात बढ़ता जा रहा है, जिसमें कंप्यूटर समेत इलेक्ट्रॉनिक्स का एक बड़ा हिस्सा है. पिछले वर्ष 5.3 अरब डॉलर के कंप्यूटरों का आयात हुआ जिनमें अधिकतर चीन में बने थे. लेकिन, चीन के उत्पादक भी एशिया के बाकी जगहों से उपकरण लेते हैं, जिनमें ताइवान शामिल है. लैपटॉप में लगा इंटेल का चिप अकेले काफी खर्चीला होता है.

यह अमेरिका तथा एशिया में बनाया जाता है. निकट भविष्य में भारत में ऐसी उन्नत चिप के निर्मित होने की संभावना बहुत कम है. तो फिर चीनी सामानों को कैसे रोका जा सकता है? यह काम रातों-रात संभव नहीं, और अचानक से आयात पर लाइसेंस लगा देने से चीनी आयात बंद नहीं हो जायेगा. उसका रास्ता बदल जायेगा, थोड़े-मोड़े बदलाव के बाद वही सामान दूसरे देशों से घूमता हुआ आ जायेगा.

इस मामले में चौथा पहलू राष्ट्रीय सुरक्षा का है. इसका जिक्र हंगामे के बाद शुरू हुआ. ऐसा लगा जैसे लाइसेंस के फैसले को जायज ठहराने के निर्णय पर हंगामे के बाद इसे उठाया जा रहा है. साइबर हैकिंग या ऐसे दूसरे खतरों से बचाने के दूसरे रास्ते भी हैं. आयात लाइसेंस से शायद ही कोई फर्क पड़ेगा.

अंत में, भारत में डिजिटल तकनीक को बढ़ावा देने के प्रयासों के बीच, अच्छे कंप्यूटरों से दूरी बनाने से अपना ही नुकसान होगा, जो बाहर से ही मिल सकते हैं. याद रखें, भारत की सॉफ्टवेयर और आउटसोर्सिंग क्षेत्र में कामयाबी इसलिए संभव हो पायी क्योंकि कंप्यूटरों के आयात के मामले में 1991 से बहुत पहले ही उदारीकरण लागू हो चुका था. यह एन विट्ठल जैसे अधिकारियों की दूरदृष्टि थी, जिन्होंने 80 के दशक के अंत और 90 के दशक के आरंभ में कंप्यूटरों के आयात को उदार बनाये जाने की मुहिम चलायी.

इसी वजह से आज यह 250 अरब डॉलर का उद्योग बन चुका है. विट्ठल का देहांत चार अगस्त को हुआ, ठीक उसी दिन जब आयात पर लाइसेंस लगाने की घोषणा हुई. इस प्रतिगामी कदम से उन्हें सबसे ज्यादा निराशा होती. भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने की भविष्यवाणी व्यापार, वाणिज्य, निवेश और टेक्नोलॉजी जैसे क्षेत्रों में मुक्त व्यापार को जारी रखने के आधार पर की जाती है.

इसके साथ हमें रणनीतिक स्वायत्तता बनाये रखने की दिशा में भी सोचना है, जो इतना आसान नहीं. लेकिन, कंप्यूटरों और लैपटॉप के आयात पर लाइसेंस थोपना उस दिशा में उठाया गया कदम नहीं है, खास तौर से उस दुनिया में जहां उत्पादन की शृंखला कई देशों से गुजरती है, और हर कहीं बस एक बहुत छोटा अंश जुड़ता है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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