सिंधु जल संधि की समीक्षा आवश्यक
सिंधु नदी से उसके समुद्र पहुंचने से पहले पानी का इस हद तक दोहन किया गया है कि समुद्री पानी इस नदी की राह में कई मील अंदर आ चुका है. वर्तमान आकलनों के अनुसार, सिंधु नदी प्रणाली में बहाव का स्तर 2030 से 2050 के बीच 2000 के स्तर से नीचे चला जायेगा.
मोदी सरकार ने सिंधु जल संधि पर पाकिस्तान से बातचीत करने का निर्णय लिया है. यह उचित ही है. उड़ी हमले के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि खून और पानी एक साथ नहीं बह सकते हैं. लेकिन सच यह है कि खून बहना रोका जा सकता है, पर पानी बहता रहेगा. सिंधु, चेनाब और झेलम नदियों के पानी को रोकना भूगोल असंभव सा बना देता है.
फिर भी इस संधि की समीक्षा का कारण है, क्योंकि पाकिस्तान लगातार संधि की शर्तों का दुरुपयोग कर इन तीन नदियों पर प्रस्तावित जल-विद्युत परियोजनाओं में अड़ंगा डालने की कोशिश करता रहता है, जबकि जल संधि में इसकी अनुमति है. पाकिस्तान की ऐसी हरकतों को रोकना ही होगा.
सिंधु नदी तंत्र में कुल बहाव क्षेत्र 11,165,000 वर्ग किलोमीटर से अधिक है और अनुमान है कि इसमें सालाना लगभग 207 घन किलोमीटर पानी बहता है. बहाव के हिसाब से यह दुनिया की 21वीं सबसे बड़ी नदी है. पाकिस्तान इस नदी पर पूरी तरह निर्भर है. पाकिस्तान के पंजाब क्षेत्र में सिंचाई के लिए अंग्रेजों ने जटिल नहर व्यवस्था बनायी थी. विभाजन के बाद इसका बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में चला गया.
कई वर्षों की सघन बातचीत के बाद विश्व बैंक की मध्यस्थता से दोनों देशों के बीच सिंधु नदी घाटी के पानी के बंटवारे को लेकर सिंधु जल समझौता हो सका. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और राष्ट्रपति अयूब खान ने 19 सितंबर, 1960 को कराची में इस संधि पर दस्तखत किये थे.
सिंधु जल संधि के अनुसार, तीन ‘पूर्वी’ नदियों- ब्यास, रावी और सतलज- का नियंत्रण भारत को मिला, तो तीन ‘पश्चिमी’ नदियों- सिंधु, चेनाब और झेलम- का नियंत्रण पाकिस्तान के हिस्से आया. इस संधि को पाकिस्तान के लिए उदार माना जाता है क्योंकि पश्चिमी नदियों का 80 फीसदी पानी उसे ही मिलता है. लेकिन सच तो यह है कि ऐसा मजबूरी की वजह से हुआ क्योंकि यह इस क्षेत्र का भूगोल तय करता है, न कि कोई भलमनसाहत.
मुख्य कश्मीर घाटी अधिकतम मात्र सौ किलोमीटर ही चौड़ी है और इसका क्षेत्रफल 15,520.30 वर्ग किलोमीटर है. हिमालय पर्वतमाला कश्मीर घाटी को लद्दाख से अलग करती है और पीर पंजाल श्रेणी इसे उत्तर भारत के मैदानी इलाकों से अलग करती है. इस सुंदर और घनी बसावट वाली घाटी की समुद्र तल से औसत ऊंचाई 1,850 मीटर है, पर पीर पंजाल श्रेणी की औसत ऊंचाई पांच हजार मीटर है. इस प्रकार यह श्रेणी कश्मीर घाटी और शेष भारत के बीच खड़ी है. यह श्रेणी एक ऐसा अवरोध है, जिसे पार कर देश के अन्य हिस्सों में पानी का वितरण कर पाना असंभव ही है.
कश्मीर घाटी की संरचना भी ऐसी है कि वहां कहीं भी पानी को संग्रहित करने की व्यवस्था नहीं की जा सकती है. चूंकि पानी को कहीं अन्यत्र नहीं भेज पाने या उसे संग्रहित कर पाने की इस स्थिति में इन नदियों का बहाव पाकिस्तान की ओर बरकरार ही रहेगा. पाकिस्तान को ‘दी गयीं’ तीन पश्चिमी नदियों में एक सिंधु नदी करगिल के निकट से पाकिस्तान नियंत्रित क्षेत्र में प्रवेश कर जाती है.
झेलम नदी अनंतनाग के पास वेरीनाग से निकलती है तथा कश्मीर घाटी में 200 किलोमीटर से अधिक दूर तक बहने के बाद यह पाक-अधिकृत कश्मीर में प्रवेश कर जाती है. यह श्रीनगर में वुलार झील को भरती है और फिर बारामुला एवं उड़ी से गुजरती है. इस पर बने संयंत्रों से घाटी की अधिकांश बिजली आपूर्ति होती है. हिमाचल प्रदेश के लाहौल स्पीति से निकलने वाली चेनाब (चंद्रभागा) जम्मू क्षेत्र से होते हुए पाकिस्तानी पंजाब के मैदानी इलाकों में निकल जाती है. इसका अधिकांश क्षेत्र भारत में है, पर वह संकरा है. चेनाब के गहरी घाटियों में बहाने के कारण इसका दोहन कर पाना बहुत महंगा सौदा है.
भारत को आवंटित तीन नदियां- ब्यास, रावी और सतलज- पंजाब में और कुछ हद तक हरियाणा में खेती का आधार हैं. इनके पानी का अत्यधिक उपयोग होता है और जब वे पाकिस्तान में जाती हैं, तो उनमें बस बहने भर के लिए पानी बचता है. फिर भी पाकिस्तान बाढ़ के लिए भारत को दोष देता रहता है कि वह बांधों के फाटक अचानक खोल देता है. पर सवाल अब भी झेलम के पानी को लेकर है.
कुछ समय पूर्व कश्मीर विश्वविद्यालय में पृथ्वी विज्ञान के प्राध्यापक डॉ शकील अहमद रोमशू ने कहा था कि कुछ देर के लिए मान भी लें कि हमने पानी रोक दिया, तो वह पानी कहां जायेगा? हमारे पास पानी के संग्रहण की व्यवस्था नहीं है. हमने जम्मू-कश्मीर में बांधों का निर्माण नहीं किया है. तमिलनाडु या कर्नाटक से उलट यह एक पहाड़ी राज्य है, आप यहां से पानी को दूसरे राज्य में नहीं ले जा सकते हैं.
तो, तकनीकी रूप से आप पानी को नहीं रोक सकते. अगर ऐसा हो भी जाता है, तो जलवायु संकट हमारे सामने है और दोनों देशों, ज्यादातर पाकिस्तान के लिए, इस कदम के गंभीर नतीजे होंगे. गंगा और ब्रह्मपुत्र घाटियों से उलट, जिन्हें मानसून से पानी मिलता है, सिंधु घाटी में अधिकांश पानी ग्लेशियरों के पिघलने से आता है. जलवायु परिवर्तन से हिमालयी ग्लेशियरों पर असर हो रहा है और सिंधु नदी घाटी में भी बदलाव दिखने लगा है. इसीलिए पाकिस्तान अक्सर भारत पर समझौते के उल्लंघन के आरोप लगाता है.
क्या इन नदियों में बहुत लंबे समय के लिए बहुत सारा पानी बचा रहेगा? विभिन्न आकलन सिंधु नदी घाटी में बहाव को लेकर चिंताजनक आशंका की ओर इंगित करते हैं. सिंधु नदी तंत्र से पाकिस्तान की सिंचाई आवश्यकता का 80 प्रतिशत पूरा होता है. ये जल स्रोत अभी ही अपने अधिकतम स्तर के निकट हैं. इसके अलावा, पाकिस्तान के दक्षिणी हिस्से की कीमत पर अधिकांश पानी को उत्तरी पाकिस्तान को दिया जा रहा है.
असल में, सिंधु नदी से उसके समुद्र पहुंचने से पहले पानी का इस हद तक दोहन किया गया है कि समुद्री पानी इस नदी की राह में कई मील अंदर आ चुका है. वर्तमान आकलनों के अनुसार, सिंधु नदी प्रणाली में बहाव का स्तर 2030 से 2050 के बीच 2000 के स्तर से नीचे चला जायेगा. सबसे गंभीर गिरावट 2030 से 2040 के बीच होने की आशंका है. साल 2060 के बाद पानी के बहाव में कमी 2000 के स्तर से 20 प्रतिशत कम हो जाने के आसार हैं. पाकिस्तान के सामने केवल पानी की कमी का संकट ही नहीं है, ऐसा लगता है कि इसके पास अब समय भी बहुत कम बचा है.