सुनक पहले भारतवंशी प्रधानमंत्री
जो सुनहरे सपने दिखा कर इस पार्टी ने ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से बाहर निकाला था, वे दु:स्वप्न में बदलते जा रहे हैं. यदि आम चुनाव होते, तो पार्टी की करारी हार हो सकती थी. मौजूदा आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए उसके पास ऋषि सुनक से बेहतर आर्थिक सूझ-बूझ की साख वाला नेता नहीं था.
बयालीस वर्षीय ऋषि सुनक ब्रिटेन के पहले भारतवंशी और पिछले 210 बरसों के सबसे युवा प्रधानमंत्री बन गये हैं. पिछले महीने हुए पार्टी चुनाव में वे सदस्यों और सांसदों का बहुमत हासिल नहीं कर सके थे. उन्हें हरा कर प्रधानमंत्री बनीं लिज ट्रस की ‘कर्ज उठाओ और खर्च करो’ की आर्थिक तंगी के समय अनुचित नीतियों से वैसा ही आर्थिक संकट खड़ा हो गया था, जिसकी ऋषि सुनक ने चेतावनी दी थी.
ट्रस सरकार की नाकामी ने सुनाक की आर्थिक सूझ-बूझ की साख को और बढ़ाया तथा पार्टी नेता के इस बार के चुनाव में वे कंजर्वेटिव पार्टी के लगभग दो तिहाई सांसदों का समर्थन पाकर निर्विरोध चुन लिये गये. इंग्लैंड के दक्षिणी बंदरगाह साउथैम्पटन में जन्मे और छात्रवृत्ति लेकर ऑक्सफोर्ड और स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालयों में पढ़े ऋषि सुनक के दादा और दादी पंजाब के गुजरांवाला और दिल्ली के थे और काम के लिए केन्या एवं तंजानिया गये थे.
उनके नाना तंजानिया के तांगानिका में ब्रितानी सरकार के टैक्स अफसर थे. सुनक के पिता डॉक्टर थे और मां दवा विक्रेता थीं. साठ के दशक में चली अफ्रीकी राष्ट्रवाद की लहर से परेशान होकर सुनाक परिवार को ब्रिटेन आना पड़ा और नये सिरे से जीवन शुरू करना पड़ा. उनके पिता ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा में डॉक्टरी करना और मां ने फार्मेसी चलाना शुरू किया. बचपन को याद करते हुए ऋषि सुनक कड़ी मेहनत और संघर्ष से भरे उन दिनों को अपनी कामयाबी का राज बताते हैं.
उनकी शादी इंफोसिस के संस्थापक और दूरदर्शी उद्यमी नारायण मूर्ति की बेटी अक्षता मूर्ति से हुई है, जो ब्रिटेन की बेहद संपन्न महिलाओं में गिनी जाती हैं और कई कारोबार चलाती हैं. सुनक ने भी अपना पेशेवर जीवन विश्व के सबसे प्रतिष्ठित व्यावसायिक बैंक गोल्डमन सैक्स में पार्टनर के रूप में शुरू किया था. फिर उन्होंने कुछ निवेश फंड चलाये और कंजर्वेटिव पार्टी की सदस्यता लेकर 2015 में उत्तरी इंग्लैंड के शहर यॉर्क के रिचमंड क्षेत्र से सांसद बने. यह क्षेत्र पार्टी के पूर्व नेता विलियम हेग का चुनाव क्षेत्र था. राजनीति में भी चमत्कारिक प्रगति करते हुए सुनक सात वर्षों के भीतर ही आम सांसद से कोष मंत्री और वित्तमंत्री होते हुए अब प्रधानमंत्री बन गये हैं.
इस प्रगति में प्रतिभा के साथ संयोग का भी हाथ माना जा सकता है. मिसाल के तौर पर, 2019 में बनी बोरिस जॉनसन की सरकार में पाकिस्तानी मूल के साजिद जाविद वित्तमंत्री थे, जो निवेश बैंकर होने के नाते अपनी आर्थिक सूझ-बूझ के लिए जाने जाते थे. उन्होंने प्रधानमंत्री के कहने के बावजूद अपने आर्थिक सलाहकारों को हटाने से इंकार कर दिया. इसलिए जॉनसन ने उन्हें हटा कर फरवरी, 2020 में ऋषि सुनक को वित्तमंत्री बना दिया, जो जाविद के उपमंत्री थे.
सुनक के वित्तमंत्री बनते ही देश में कोविड महामारी फैल गयी. इस दौरान कारोबारों को ठप होने और लोगों को बेरोजगार होने से बचाने के लिए सुनक ने घर बैठे वेतन देने की योजना शुरू की. इससे उनका बड़ा नाम हुआ और वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में देखे जाने लगे. लेकिन लगभग 188 साल पुरानी और दुनिया की सबसे कामयाब व पारंपरिक मानी जाने वाली पार्टी में दो तिहाई सांसदों का समर्थन केवल संयोग के बल पर हासिल नहीं किया जा सकता.
इसके पीछे ऋषि सुनक की योग्यता, वाक्पटुता, विनम्रता और प्रखरता है, जिसे लिज ट्रस के साथ हुए मुकाबले में मशीनीपन कह कर अस्वीकार कर दिया था. लेकिन अब वही मशीनीपन लोगों को उनकी सबसे बड़ी खूबी नजर आने लगा है. उनके भारतीय मूल का होने और आस्थावान हिंदू होने को लेकर जो सवाल दबी जबान में उठाये जा रहे थे, वे अब पार्टी सदस्यों के जनादेश और आम जनादेश के बिना थोप दिये जाने के सवालों में बदल रहे हैं, जिन्हें मुख्य रूप से विपक्षी पार्टियां उठा रही हैं.
कंजर्वेटिव पार्टी की आपसी गुटबाजी और विपक्षी पार्टियों की झुंझलाहट से परे सुनाक के ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनने की तुलना ओबामा के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने से की जा रही है. भारतीयों पर राज करने वाले देश पर एक भारतवंशी राज करने जा रहा है. परिवर्तन का पहिया एक पूरा चक्कर काट चुका है. यह ब्रिटेन के ही नहीं, दुनियाभर के भारतवंशियों और भारतीयों के लिए भी गौरव की बात है.
वैसे यूरोपीय देशों में भारतवंशी पहले भी प्रधानमंत्री बन चुके हैं. पुर्तगाल के प्रधानमंत्री एंतोनियो कोस्टा गोवा मूल के हैं. आयरलैंड में मराठी मूल के लियो वराडकर प्रधानमंत्री रह चुके हैं. लेकिन अभी तक किसी यूरोपीय देश का भारतवंशी प्रधानमंत्री ऐसा नहीं हुआ, जो स्वयं को आस्थावान हिंदू भी कहता हो. तो क्या यह मान लिया जाए कि कंजर्वेटिव पार्टी का वैचारिक कायाकल्प हो गया है? कभी नस्लवादी विचारों के लिए और आज भी आप्रवासी विरोधी और सांस्कृतिक समरसता विरोधी नीतियों के लिए जानी जाने वाली पार्टी अब उदारवादी और प्रगतिशील हो गयी है?
नहीं. पार्टी के पास इस समय सुनक को चुनने के सिवा कोई चारा नहीं था. आर्थिक सूझ-बूझ की साख रखने वाली इस पार्टी की लोकप्रियता इस समय न्यूनतम बिंदु पर है. जो सुनहरे सपने दिखा कर इस पार्टी ने ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से बाहर निकाला था, वे दु:स्वप्न में बदलते जा रहे हैं. यदि आम चुनाव होते, तो पार्टी की करारी हार हो सकती थी. मौजूदा आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिए उसके पास ऋषि सुनक से बेहतर आर्थिक सूझ-बूझ की साख वाला नेता नहीं था. इसलिए पार्टी ने गुटबाजी और चरम विचारधाराओं को भूलकर उन्हें नेता मान लिया है.
राष्ट्र के नाम उनके संक्षिप्त संदेश से साफ झलकता है कि सुनक भी महसूस कर रहे हैं कि उनका यह ताज चाहे जितना गौरवशाली और ऐतिहासिक हो, पर कांटों का ताज है. उन्हें सबसे पहले मुद्रा और बॉन्ड बाजार में सरकार और अर्थव्यवस्था की साख को बहाल करना है ताकि बढ़ती ब्याज दरें काबू में आयें. महंगाई के कारण अधिक वेतन की मांग करते कर्मचारी संघों को कम वेतन में काम चलाने के लिए राजी करना है.
संसाधनों की तंगी से परेशान स्वास्थ्य, शिक्षा और जनकल्याण जैसे विभागों को और कटौतियों के लिए तैयार करना है ताकि तेजी से बढ़ते कर्ज को रोका जा सके. भारत जैसे देशों के साथ व्यापार समझौते कर व्यापारिक नुकसान की भरपाई करनी है. ये सारे काम उन्हें पार्टी को एकजुट रखते हुए करने हैं और पार्टी की लोकप्रियता को बहाल करना है ताकि दो साल बाद चुनाव में जीत हो सके.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)