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ऋषि सुनक का जोखिम भरा आखिरी दांव

प्रधानमंत्री सुनक के लिए लेबर पार्टी से कहीं बड़ा सिरदर्द उनकी अपनी कंजर्वेटिव पार्टी का ही वह दक्षिणपंथी खेमा रहा है, जो पूर्व प्रधानमंत्री लिज ट्रस और बोरिस जॉनसन का समर्थक था.

ब्रिटेन के पहले भारतवंशी प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने अमेरिकी स्वाधीनता दिवस चार जुलाई के दिन आम चुनाव कराने की घोषणा कर सबको चौंका दिया है. चुनाव में संभावित हार से भयभीत उनकी कंजर्वेटिव पार्टी के कई सांसद सकते में हैं और नाराज हैं. लंबे अरसे से चुनाव की मांग कर रही विपक्षी लेबर पार्टी को भी हैरानी हुई है.

इसका मुख्य कारण यह है कि प्रधानमंत्री सुनक और उनकी पार्टी लोकमत सर्वेक्षणों में विपक्ष के नेता किएर स्टॉमर और उनकी लेबर पार्टी से 20-22 अंक पीछे चल रहे हैं. लोकप्रियता में इतना पीछे रहते हुए किसी प्रधानमंत्री ने समय से पहले चुनाव कराने का जोखिम नहीं उठाया है. उनकी पार्टी को उम्मीद थी कि वे 25 अक्तूबर को अपने कार्यकाल के दो साल पूरे करने के बाद क्रिसमस से पहले चुनाव करायेंगे.

वर्तमान संसद का कार्यकाल 17 दिसंबर को पूरा होने वाला था, जिसके बाद 25 दिनों के भीतर चुनाव कराये जा सकते थे. इससे उनकी सरकार की आर्थिक नीतियों को सकारात्मक प्रभाव दिखाने के लिए छह महीने का समय और मिल सकता था. इसलिए अधिकतर लोग पहले चुनाव कराने के प्रधानमंत्री सुनक के फैसले को उनके आखिरी दांव के रूप में देख रहे हैं. उन्नीस माह के कार्यकाल में उनका कोई दांव नहीं लग पाया.

महंगाई दर नीचे आने के बावजूद चीजों के दाम 2021 की तुलना में करीब 20 प्रतिशत ऊपर हैं, इसलिए लोगों को आर्थिक तंगी से राहत महसूस नहीं हो रही है. केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज दरें बढ़ाने के बावजूद महंगाई में उतनी गिरावट नहीं आयी है कि जिससे आश्वस्त होकर बैंक अपनी ब्याज दरें घटाना शुरू करें. ऊर्जा संकट कम तो हुआ है, पर यूक्रेन और गाजा के युद्धों की वजह से उसके लौटने का खतरा बना हुआ है. कोविड महामारी पर हुए खर्च से बिगड़े बजट को काबू में लाने के लिए सार्वजनिक खर्चों में की जा रही कटौती से स्वास्थ्य, देखभाल, शिक्षा, समाज कल्याण और बुनियादी सुविधाओं के रखरखाव पर दबाव बढ़ रहा है, जिससे लोग नाराज हैं.

नौकाओं से ब्रिटिश चैनल पार कर अवैध रूप से आने वाले शरणार्थियों की संख्या गर्मियों में बढ़ जाती है, जिसकी वजह से आप्रवासन में आया गिरावट का रुझान बदल सकता है. विपक्ष इसे चुनावी मुद्दा बना सकता था. वैसे भी प्रधानमंत्री सुनक के लिए लेबर पार्टी से कहीं बड़ा सिरदर्द उनकी अपनी कंजर्वेटिव पार्टी का ही वह दक्षिणपंथी खेमा रहा है, जो पूर्व प्रधानमंत्री लिज ट्रस और बोरिस जॉनसन का समर्थक था. उनके नेता चुने जाने के दिन से ही किसी न किसी बहाने से उनके खिलाफ पार्टी में बगावत भड़काने की कोशिशें चलती रही हैं. इसी महीने के आरंभ में हुए निकाय और महापौर चुनाव में पार्टी की करारी हार के बाद से इनमें और तेजी आ रही थी.

लगता है इन सारी संभावनाओं को देखकर और तमाम प्रयासों के बाद भी सरकार और पार्टी की तथा अपनी लोकप्रियता में कोई सुधार न होता देखकर ही प्रधानमंत्री ने जुआ खेला है. इस महीने की रिपोर्टों के मुताबिक महंगाई दर घटकर 2.3 प्रतिशत हो गयी है और अर्थव्यवस्था की गति भी अपेक्षा से अधिक है. बेरोजगारी रिकॉर्ड न्यून स्तर पर है और आप्रवासियों की संख्या में भी पिछले साले की तुलना में दस प्रतिशत की कमी आयी है. उन्हें लगता है कि यही वह घड़ी है, जिसमें वे हारती बाजी को पलट सकते हैं. यदि ऐसा हुआ, तो यह ब्रिटिश राजनीतिक इतिहास में सबसे बड़ा उलटफेर साबित होगा, जो सर्वेक्षणों पर भी गंभीर सवाल खड़े करेगा.

प्रधानमंत्री सुनक की चुनावी घोषणा के भाषण से लगता है कि वे मुख्यतया दो मुद्दों पर चुनाव लड़ना चाहते हैं- अर्थव्यवस्था को कोविड, ऊर्जा संकट और लिज ट्रस सरकार की ‘कर्ज लेकर खर्च करो’ की नीति से पैदा हुए महंगाई के संकट से निकाल कर विकास की पटरी पर लाने का उनका रिकॉर्ड तथा अवैध शरणार्थियों की बाढ़ रोकने के लिए उन्हें रुआंडा भेजने की योजना.

उनका दावा है कि विपक्ष के पास समाधान की कोई ठोस नीति नहीं है. उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी लेबर पार्टी नेता किएर स्टॉमर का कहना है कि ब्रिटेन के सारे संकटों के लिए कंजर्वेटिव पार्टी का 14 साल का कुशासन पूरी तरह जिम्मेदार है. अर्थव्यवस्था को ब्रेक्जिट से तबाह करने और पांच साल में चार प्रधानमंत्री बदलने वाली पार्टी को बदले बिना न अर्थव्यवस्था में सुधार आ सकता है और न स्थिर सरकार मिल सकती है. लगता है लेबर पार्टी बदलाव और स्थिरता के नारे पर ही चुनाव लड़ेगी.
वामपंथी रुझान के कारण लेबर पार्टी की छवि सरकारी विभागों में फिजूलखर्ची करने और उसके लिए पर टैक्स का बोझ बढ़ाने की रही है. इसलिए लेबर नेता स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरण, रक्षा और बुनियादी सुविधाओं के संकट की बातें तो करेंगे, लेकिन सुधार के लिए खर्च करने के वादों से बचते नजर आयेंगे. यहां सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, वोट बटोरने के लिए मनचाहे लोकलुभावन वादे नहीं कर सकते. वादे करने से पहले उन्हें पूरा करने में लगने वाला पैसा कहां से आयेगा, इसका हिसाब देना पड़ता है. इसलिए यहां वामपंथी हो या दक्षिणपंथी, कोई पार्टी टैक्स बढ़ाकर खर्च करने की नहीं, कटौती और किफायत से बचा कर खर्च करने की बात करती है.

लेबर नेता स्टॉमर को यह भरोसा दिलाना होगा कि अर्थव्यवस्था के मामले में उनकी सरकार पर भरोसा किया जा सकता है. ऐसे में प्रधानमंत्री सुनक और उनकी पार्टी की उम्मीद का एक आधार लेबर पार्टी के नेतृत्व के खिलाफ उसके मुस्लिम और वामपंथी समर्थकों में फैला रोष भी हो सकता है, जो इस्राइल द्वारा गाजा विनाश को लेकर लेबर पार्टी के रवैये से नाराज हैं. ब्रिटेन में लगभग 41 लाख मुस्लिम रहते हैं, जो आबादी का लगभग 6.3 प्रतिशत हिस्सा हैं. संसद की कुल 650 सीटों में से 80 से अधिक सीटों पर मुस्लिम वोट निर्णायक साबित हो सकता है. इनमें बहुत सी सीटें लंदन, बर्मिंघम, ब्रैडफर्ड, ब्लैकपूल, मैनचेस्टर और ग्लासगो जैसे शहरों में हैं.

परंतु लेबर पार्टी का नाराज मुस्लिम और वामपंथी वोट कंजर्वेटिव पार्टी की जगह लिबरल पार्टी या निर्दलीयों को मिलने की संभावना अधिक है. लेबर पार्टी में इस समय रिकॉर्ड संख्या में मुस्लिम सांसद हैं. मोदी सरकार विरोधी और खालिस्तान समर्थक तत्वों का भी खासा प्रभाव है. इसलिए यदि लेबर सरकार बनती है, जिसकी संभावना प्रबल दिख रही है, तो भारत के लिए कूटनीतिक चुनौती खड़ी हो सकती है. लेबर पार्टी की सरकारों का रिकॉर्ड भारत के घरेलू और संवेदनशील मामलों में अनावश्यक बयानबाजी को लेकर बहुत अच्छा नहीं रहा है. बहरहाल, चुनाव निश्चित ही दिलचस्प होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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