चीन में महामारी की रोकथाम के लिए चल रही जीरो-कोविड पॉलिसी के खिलाफ पहले से ही विरोध हो रहा था, पर बीते गुरुवार को जिनजियांग क्षेत्र में एक रिहायशी इमारत में लगी आग से कई लोगों की मौत के बाद से प्रदर्शनों में बहुत तेजी आ गयी है. अभी देश के बहुत सारे शहरों में लगातार विरोध हो रहे हैं. लोगों का कहना है कि कड़े नियमों के कारण इमारत में फंसे लोगों तक बचावकर्मी सही समय पर नहीं पहुंच सके तथा इमारत को भी बंद रखा गया था.
दूसरी अहम बात यह है कि जीरो-कोविड पॉलिसी से चीन की अर्थव्यवस्था को भी बहुत नुकसान हुआ है. चीन में 2002 में मध्य वर्ग की आबादी 75 लाख के आसपास थी, जो आबादी का एक फीसदी हिस्सा था, वह आज बढ़ कर 25 प्रतिशत तक हो चुका है. इस वर्ग की अपनी आकांक्षाएं हैं और चीन के विकास के साथ वे आकांक्षाएं पूरी भी हुई हैं, लेकिन कोरोना संबंधी नीतियों के कारण स्थिति बिगड़ रही है. चीन में बेरोजगारी दर 19 फीसदी के आसपास पहुंच चुकी है. जो कंपनियां महामारी से जुड़ी चीजें उत्पादित करती हैं, उनकी कमाई तो लगातार तेजी से बढ़ी है, पर ऐसा बाकी उद्योगों के साथ नहीं हो रहा है. देश की जो तीन बड़ी एयरलाइन हैं, वे बड़े घाटे में हैं.
इस प्रकार चीनी अर्थव्यवस्था उतार-चढ़ाव के दौर से गुजर रही है. उदाहरण के लिए, तकनीकी कंपनी फॉक्सकॉन में दो लाख से अधिक लोग कार्यरत हैं. वहां जीरो-कोविड नीति के चलते अस्थिरता पैदा हुई है. अब जो मध्य वर्ग है या जो कामकाजी लोग हैं, वे यह देख रहे हैं कि पूरी दुनिया में अब कोविड को लेकर कोई पाबंदी कहीं नहीं है. चीन में महामारी से मौतें भी कम हुई हैं. अनेक लोग मानते हैं कि ऐसा नीतियों के चलते है, तो कई लोग यह भी कहते हैं कि ऐसा इसलिए हुआ कि शुरू में चीन की सरकार ने अच्छे इंतजाम कर लिये थे.
कारण जो भी हो, आज की स्थिति से लोग बेचैन हो रहे हैं. इस नीति के चलते खाद्य संकट भी पैदा हो रहा है और लोगों को खाद्य पदार्थ जुटाने में बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. कूड़े-कचरे को नियमित रूप से हटाने का काम भी रुका पड़ा है. सार्वजनिक वाहनों को बंद कर दिया गया है. इन सभी वजहों से लोगों में बहुत नाराजगी थी, जो अब देशव्यापी प्रदर्शनों के रूप में सामने आ रही है.
चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी का रवैया भी आपत्तिजनक रहा है. पार्टी और सरकार ने अपनी नीतियों के बारे में लोगों के अनुभवों और सुझावों को सुनने तथा उस पर अमल करने की कोई कोशिश नहीं की. कम्युनिस्ट पार्टी के सामने अब स्थिति और विकट हो गयी है. वे इन प्रदर्शनों को बलपूर्वक दबायेंगे, जिसकी क्षमता उनके पास है, तो विरोध बढ़ेगा ही.
अगर विरोधों की वजह से और लोगों को शांत करने की मंशा से सरकार अपनी नीतियों में ढील देती है और पाबंदियां हटाती है, तो जैसा कि पार्टी में एक हिस्से का अनुमान है, इससे चीन के भीतर मौजूद लोकतांत्रिक समूहों का हौसला बढ़ेगा तथा वे भविष्य में बड़ा आंदोलन खड़ा कर सकते हैं. इस असमंजस की स्थिति में कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व कोई ठोस निर्णय ले पाने में विफल हो रहा है. इस स्थिति में कम्युनिस्ट पार्टी को समझदारी दिखाते हुए नीतियों में छूट देनी चाहिए, जो सही कदम भी होगा, लेकिन उसके दूरगामी परिणामों के बारे में भी उन्हें आगाह रहना होगा.
हांगकांग में तो लोकतंत्र-समर्थक आंदोलनों को बलपूर्वक दबा दिया गया था, पर चीन की मुख्यभूमि में ऐसे व्यापक विरोध पहले नहीं हुए थे. चीन के लिए विरोध प्रदर्शन नयी बात नहीं है. मजदूर संगठनों के आंदोलन होते रहे हैं, कॉलेजों में प्रदर्शन हुए हैं, लेकिन मौजूदा प्रदर्शनों जैसा पहले कभी नहीं देखा गया है, जो संगठित है और उनमें दृढ़ निश्चय स्पष्ट देखा जा सकता है.
भारत, अमेरिका, यूरोप, रूस समेत कई देशों में महामारी की लहरें आयीं और गयीं. अब स्थिति नियंत्रण में है. लेकिन चीन में बीच-बीच में संक्रमण क्यों बढ़ जा रहा है, इसका कोई वैज्ञानिक स्पष्टीकरण चीनी सरकार अपनी जनता के समक्ष नहीं रख सकी है. एक मिनट के लिए मान लें कि पाबंदियों की जरूरत है, तो फिर सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बुनियादी जरूरत की चीजें लोगों तक ठीक से पहुंच सकें. लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है.
अगर लोग बाहर नहीं जा सकते और उन्हें चीजें भी न मिलें, तो उनका गुस्सा भड़कना स्वाभाविक ही है. चीन की जीरो-कोविड नीति का नकारात्मक असर वैश्विक अर्थव्यवस्था तथा आपूर्ति शृंखला पर भी पड़ रहा है. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय उद्योग और कारोबार जगत से जुड़े लोग यह सोचने पर मजबूर हुए हैं कि चीनी नीतियां उनके लिए अल्पकालिक और दीर्घकालिक अवधि में घाटे का सौदा हो सकती हैं. वे चीन से जुड़ी आपूर्ति शृंखला को तोड़ कर अन्य देशों में उद्योग ले जाना शुरू कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, एप्पल उत्पाद बनाने वाली फॉक्सकॉन कंपनी भारत में बड़ा संयंत्र स्थापित कर रही है. इस आयाम के कारण भी चीनी जनता अपनी सरकार से नाराज हो रही है.
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के लिए यह एक विकट स्थिति है और वह चाहे जो भी कदम उठाये, उसके भविष्य पर उसका असर निश्चित ही पड़ेगा. राष्ट्रपति शी जिनपिंग के प्रति लोगों का क्रोधित होना स्वाभाविक है, क्योंकि वे नेता हैं और अभी उनके तीसरे कार्यकाल पर पार्टी ने मुहर लगायी है. जो लोग कम्युनिस्ट पार्टी के कामकाज के बारे में जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि अगर शी जिनपिंग कमजोर होते हैं या जनता में उनके प्रति अविश्वास बढ़ता है, तो इसका खामियाजा आखिरकार पूरी कम्युनिस्ट पार्टी के कमजोर होने के रूप में सामने आयेगा.
अगर पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व कमजोर होता है, तो पूरी पार्टी कमजोर होगी. यह भी उल्लेखनीय है कि जिन जगहों पर सबसे बड़े विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं, वहां ऐतिहासिक रूप से चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का अच्छा-खासा वर्चस्व रहा है. इसका एक अर्थ यह भी है कि पार्टी के स्थानीय नेतृत्व से भी लोगों का मोहभंग हो चुका है. हांगकांग के विरोधों का ठीकरा सरकार ने दूसरे देशों पर मढ़कर जनता को अपने पाले में ले लिया था और विरोधों का दमन भी कर दिया था. अब देखना है कि मुख्यभूमि में उसकी रणनीति क्या होती है. (बातचीत पर आधारित.)