विपुल मुदगल, निदेशक, कॉमनकॉज
vipul.mudgal@commoncause.in
पांच सितारा वैचारिक अनुष्ठान दिल्ली की लुटियन संस्कृति का हिस्सा है. इनमें मंत्रियों, हॉलीवुड-बॉलीवुड सितारों और उद्योगपतियों की चकाचौंध रहती है. अक्सर अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों के पूर्व राष्ट्राध्यक्ष भी आते हैं. मगर, असली समां बनता है मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्रियों से, क्योंकि वीआइपी दर्शक इन्हीं को सुनने आते हैं और संयोजकों का रसूख बढ़ाते हैं. मेरी दिलचस्पी रहती है वक्ताओं से अधिक विशिष्ट दर्शकों की प्रतिक्रियाओं में.
सभाओं के कुछ अलिखित नियम होते हैं, जैसे कि सवाल दोस्ताना हों और अदब से परोसे जायें, अतिथि देवो भव! ऐसे ही एक सम्मेलन में एक न्यूज एंकर ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से कुछ शहद भरे संवादों के बाद, एक गंभीर सवाल पूछ डाला- झूठे मुकाबलों में कथित अपराधियों को ‘ठोके’ जाने (यानी उनकी हत्या) पर. योगी जी का छोटा सा उत्तर था ‘तो क्या आरती उतारूं?’ परिष्कृत दर्शकों ने ठहाका लगाते हुए जोरदार तालियां बजायीं. जैसे विधि और विधान किताबी बातें हों. बस उठाओ और ‘ठोक’ दो- इंसानों के साथ-साथ न्याय प्रणाली को भी. मुझे दर्शकों का वो ठहाका आज भी परेशान करता है. क्या प्रबुद्ध भारत का विश्वास न्याय व्यवस्था से उठ चुका है?
इसकी पृष्ठभूमि यह है कि उत्तर प्रदेश पुलिस संदिग्ध मुठभेड़ों में पिछले कुछ वर्षों में 4,000 से ज्यादा इंसानों को मार चुकी है. हर दिन, हर कुछ घंटों में, एक सी घटनाएं होती हैं और कुछ लाशें बरामद हो जाती हैं. कहानियां विचित्र मगर समरूपी हैं- या तो वह पुलिस के कहने पर नहीं रुका और गोलियां चलाने लगा या राइफल छीनकर पुलिसकर्मियों पर झपटा और पुलिस द्वारा आत्मरक्षा के दौरान ढेर हो गया. मामले अदालतों में हैं, मगर अधिकतर में लीपापोती हो चुकी है.
कई याचिकाएं खारिज भी हो चुकी हैं. योगी जी की छवि परिश्रमी और ईमानदार नेता की है, मगर क्या किसी सभ्य समाज में हत्या को स्टेट पॉलिसी बनाया जा सकता है? वैसे ही जैसे कुछ देशों ने आतंकवाद को बनाया है? क्या कोई विवेकशील व्यक्ति कहेगा कि देश आतंकी है, मगर नेता बड़ा ईमानदार है? क्या भागलपुर में 40 साल पहले 31 कथित अभियुक्तों की आंखें फोड़ने वाले पुलिसकर्मियों को, या कथित चोरों के हाथ काटने वाले देशों को, दुनिया में कोई न्यायपरक मानता है?
प्रश्न यह भी है कि क्या अंततः अदालत की आंखों पर भी पट्टी बांधी जा सकती है? इसके लिए आवश्यक है कि तफ्तीश इकतरफा हो और लीपापोती की गुंजाइश रखी जाये. मगर एक भी सही अधिकारी अन्याय को रोक सकता है, जिसके लिए जरूरी है कि सही अधिकारियों को उचित दूरी पर रखा जाये और प्रभावी नियुक्तियां राजनीति से प्रेरित हों. दिल्ली दंगों की चार्जशीट इस इकतरफा जांच का एक नमूना है.
इसीलिए 2006 में प्रकाश सिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले के सर्वोच्च न्यायालय के एेतिहासिक फैसले में राज्यों को अपराधों की जांच के लिए अलग विंग बनाने का, और ऐसे आयोग के गठन का निर्देश दिया गया था, जिससे पुलिस अधिकारियों की नियुक्तियों, तबादलों और पोस्टिंग में राजनीतिक हस्तक्षेप रोका जा सके.
इसमें एक महत्वपूर्ण निर्देश है कि पुलिस कंपलेंट अथॉरिटी बनाने का, जो हर राज्य और जिले में होनी आवश्यक हैं. इससे नागरिक पुलिस ज्यादतियों पर नजर रख सकें. राज्यों ने अभी तक इसपर पूर्णतः अमल नहीं किया है, जबकि इसे न करने का या देरी करने का विकल्प उनके पास नहीं है, क्योंकि यह आदेश अब देश का कानून है. मगर असलियत यह है कि राजनीतिज्ञ चाहते हैं कि पुलिस न्याय व्यवस्था के लिए नहीं, सत्ताधारी शासकों के लिए काम करे जैसे अंग्रेजों के जमाने में करती थी.
यदि हम पुलिस सुधारों के प्रति गंभीर हैं, तो हमें यह मानना पड़ेगा कि पुलिस का यह गोरखधंधा दशकों से सभी राज्यों में चल रहा है. इसमें सभी बड़ी पार्टियां शामिल हैं. तमिलनाडु में, जहां एआइएडीएमके की सरकार है, थूतूकुडी में 62 वर्षीय दुकानदार जयराज और उनके 32 वर्षीय पुत्र बेनिक्स को पुलिस ने थाने में पीट-पीटकर मार डाला. उन पर आरोप था कि उन्होंने लॉकडाउन के दौरान दुकान खुली रखी और पुलिस को पीठ पीछे बुरा भला कहा. जो बात पुलिस ने सुनी ही नहीं, वह उन्हें इतनी चुभी कि उन्होंने बाप-बेटों की जान ले ली, वह भी उस ‘अपराध’ के लिए जिसके सिद्ध होने पर अधिकतम सजा तीन महीने की कैद थी.
दूसरा मामला तेलंगाना का है, जहां एक 26 वर्षीया मासूम महिला की बलात्कार के बाद निर्मम हत्या कर दी गयी थी. घटना के बाद पुलिस और तेलंगाना राष्ट्र समिति सरकार की खुलकर आलोचना हुई थी और जनता सड़कों पर आ गयी थी. पुलिस ने चार संदिग्ध व्यक्तियों को पकड़कर देर रात गोलियों से भून दिया. कहानी वही थी कि राइफल छीनने की कोशिश हुई. पुलिस ही जांचकर्ता, जज और जल्लाद बन गयी और उसे इस हत्या के लिए खूब शाबाशी मिली.
दक्षिण के दोनों मामलों में और उत्तर प्रदेश के झूठे मुकाबलों में एक और समानता है- मरनेवाले लगभग सभी ‘आरोपी’ गरीब थे. जो प्रभावशाली हैं वो अदालतों में जायेंगे जैसे कि बलात्कार और हत्या के कुख्यात आरोपी और ‘बापू’ कहलाने वाले आसाराम, स्वयं को ‘इंसान’ कहनेवाले राम रहीम और पूर्व भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर. एनकाउंटर की क्या यही पॉलिसी है: गरीब है तो ‘ठोक’ दो; दबंग है तो अदालत भेजो?
संविधान का आर्टिकल-21 जीवन और व्यक्तिगत आजादी के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है. आर्टिकल-22 में यह अनिवार्य है कि व्यक्ति को गिरफ्तारी से पहले उसकी वजह बतायी जाये और कानूनी सलाह लेने या पैरवी की अनुमति दी जाये. जिन देशों में ऐसा नहीं है वहां न्याय प्रणाली चरमरा जाती है और उन्हें ‘फेल्ड स्टेट’ कहा जाता है; लेकिन जहां पुलिस दमन ही कानून बन जाये, उन्हें ‘पुलिस स्टेट’ कहा जाता है. दोनों स्थितियों में राजसत्ता की वैधता और औचित्य संकट में आ जाते हैं. पुलिस सुधार का मतलब है कि इन दोनों चरम के बीच का सामंजस्य और कानून का शासन जिसकी नींव पर लोकतंत्र टिकी है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)