वनाधिकार में ग्रामीण सहभागिता
समुदाय के पास जंगल का नियंत्रण रहने से वहां आग भी कम लगती है, क्योंकि उनका घर ही जंगल है और जंगल की रक्षा करना उनके धर्म के साथ जुड़ा हुआ है.
भारतवर्ष में जंगल को कई नामों से जाना जाता है- वन, कानन, अरण्य आदि. वनों को आदि सनातन चिंतन में इतना महत्व दिया गया कि उसके नाम से कई धार्मिक पुस्तकों की रचना की गयी है. सनातन धर्म में चार वेद है, 18 पुराण हैं, छह शास्त्र हैं, कई उपनिषद हैं. आरण्यक ग्रंथों की भी रचना हुई है. उपनिषदों में सबसे महत्वपूर्ण वृहदारण्यक है. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय सांस्कृतिक जीवन में वनों का महत्व कितना रहा है.
बाहरी आक्रमणों ने न केवल हमारे सामाजिक ताने-बाने को ध्वस्त किया है, अपितु हमारे सांस्कृतिक मूल्यों पर भी चोट किया है. यही कारण है कि वन, गिरी, पहाड़, कानन, समुद्र एवं अरण्य की संस्कृति मानने वालों को आज वनों के संरक्षण की ओर ध्यान देना पड़ रहा है.
भौतिकवादी चिंतकों के बहकावे में आकर हमने अपनी मां समान प्रकृति को बहुत नुकसान पहुंचाया है. जंगलों की क्रूरता के साथ कटाई की गयी. किसी भी भू-भाग में कुल क्षेत्रफल के कम से कम 30 प्रतिशत हिस्से पर प्राकृतिक जंगल होना चाहिए, लेकिन भारत में यह केवल 21.67 प्रतिशत रह गया है. झारखंड की स्थिति थोड़ी अच्छी है, लेकिन यहां भी औसत से लगभग तीन प्रतिशत कम यानी 27 प्रतिशत भू-भाग पर ही प्राकृतिक वनस्पति अवस्थित है.
पर्यावरण की दृष्टि से कहें, तो आज की सबसे बड़ी चुनौती प्राकृतिक वनों को बचाने की है. प्राकृतिक आपदाओं के कारण बड़े पैमाने पर प्राकृतिक वनों में ह्रास हो रहा है तथा कानूनी या गैर-कानूनी तरीके से बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई हो रही है. साथ ही, प्राकृतिक जंगलों को आग के कारण भी भारी नुकसान पहुंच रहा है. यदि जंगलों को आग से बचा लिया जाए, तो नुकसान की आधी से अधिक भरपाई हो जायेगी. जंगलों को आग से बचाने के उपाय जंगलों में या यूं कहें कि ग्रामीण परिवेश में ही छुपे हुए हैं.
चढ़ते पारे के साथ झारखंड, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र आदि प्रांतों के जंगलों में आग भड़कने लगती है. कई क्षेत्रों में यह आग रिहायशी इलाकों के करीब पहुंच जाती है. इस आग के कारण जंगली जीव-जंतुओं का भी भारी नुकसान होता है. जंगलों में जान-बूझ कर आग लगाने वाले शरारती तत्व भी बाज नहीं आते हैं. जंगल की आग का एक प्रमुख कारण ग्रामीणों द्वारा घास की अधिक मांग होना माना जाता रहा है, लेकिन यह कारण सिर्फ एक भ्रांति है. खबरों की मानें, तो 2021 से अब तक जंगल में आग लगने की पांच हजार से अधिक घटनाएं सामने आ चुकी हैं, जिस वजह से जान-माल की बड़ी हानि हुई है.
बता दें कि भारत में औपनिवेशिक काल से पहले लोग वनों का उपभोग भी करते थे और रक्षा भी. अंग्रेजों ने आते ही वनों की कीमत को समझा, जनता के वन पर अधिकारों में कटौती की और वनों का दोहन शुरू किया. जनता के अधिकारों में कटौती की व्यापक प्रतिक्रिया हुई और समस्त वन प्रदेशों में आंदोलन शुरू हो गये. शासन ने दमन नीति अपनाते हुए प्रारंभ में कड़े कानून लागू किये, पर लोगों ने इन कानूनों की अवहेलना करते हुए यहां के जंगलों को आग के हवाले करना आरंभ कर दिया.
इसके फलस्वरूप शासन ने समझौता करते हुए एक समिति का गठन किया. उत्तराखंड में कुमाऊं फॉरेस्ट ग्रिवांस कमिटी बनायी गयी. साल 1921 में गठित इस कमिटी का अध्यक्ष तत्कालीन आयुक्त पी विंढम को चुना गया तथा इसमें तीन अन्य सदस्यों को शामिल किया गया. इस समिति ने एक वर्ष तक पर्वतीय क्षेत्र का व्यापक भ्रमण किया. इसके द्वारा यह सुझाया गया कि ग्रामीणों की निजी नाप भूमि से लगी हुई समस्त सरकारी भूमि को वन विभाग के नियंत्रण से हटा लिया जाए.
स्वतंत्र भारत में वनों को लेकर बहुत से नये-नये नियम कानून बनाये गये. वर्तमान समय में वन प्रदेशों में वन पंचायत, जो पंचायती वनों का संरक्षण और संवर्धन खुद करती हैं, उन्हीं को अधिक शक्ति दी जाने की आवश्यकता है. झारखंड में भी वन को बचाने के लिए स्थानीय समितियों का गठन किया गया है. इन समितियों को और अधिक शक्ति देने की जरूरत है.
‘डाउन टू अर्थ’ पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में आदिवासी बहुल क्षेत्र सबसे कम कार्बन उत्सर्जित करते हैं. इसका सीधा मतलब यह है कि समुदाय के पास जंगल का नियंत्रण रहने से वहां आग भी कम लगती है, क्योंकि उनका घर ही जंगल है और जंगल की रक्षा करना उनके धर्म के साथ जुड़ा हुआ है. यदि जंगल में लग रही आग से निजात पानी है, तो वन क्षेत्रों के गांवों की चार किलोमीटर परिधि में जंगलों से सरकारी कब्जा हटा कर उन्हें ग्राम समुदाय को सुपुर्द कर देना होगा.
जंगली क्षेत्रों में मई-जून की गर्मियों में ज्यादा आग लगती है. हेलीकॉप्टर से पानी गिराना इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं है. न ही चीड़ के पेड़ों को काट-काट कर हम अपने कृत्यों से लगी इस आग को रोक सकते हैं. समुदाय ने मिल कर ही मानव जाति का निर्माण किया है और वही इसे एवं अपने पर्यावरण को बचा भी सकता है. इसलिए जंगल में निवास करनेवाली जनजातियों को वनाधिकार में सहभागी बना कर आग की समस्या का स्थायी समाधान हो सकता है.