नाटो को लेकर रूस की चिंता
राष्ट्रपति बनने के बाद पुतिन ने नाटो विस्तार को रूस की सुरक्षा का प्रश्न बना लिया, पर सामरिक शक्ति संतुलन पर नजर डालें, तो रूस नाटो देशों की तुलना में कहीं से उन्नीस नहीं बैठता.
रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने फरवरी, 2007 के म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में अमेरिका व नाटो पर तीखा प्रहार करते हुए कहा था कि पश्चिमी देशों ने पूर्वी यूरोप में नाटो का विस्तार न करने के अपने 1990 के वादे से मुकर कर रूस को धोखा दिया है. इस आरोप को वे कई बार दोहरा चुके हैं. इसी को उन्होंने यूक्रेन पर हमला करने का औचित्य भी बनाया है. यही शिकायत सोवियत संघ के अंतिम राष्ट्रपति गोर्बाचेव और रूस के पहले राष्ट्रपति येल्त्सिन की भी रही है, पर नाटो इसका खंडन करता है.
रूस और अमेरिका द्वारा जारी एकीकरण वार्ताओं के दस्तावेज में कहीं भी ऐसे वादे का जिक्र नहीं मिलता. इसकी वजह स्पष्ट है. एकीकरण की वार्ताएं नवंबर, 1989 से सितंबर, 1990 तक चली थीं, जबकि सोवियत संघ और वारसा गुट के बिखराव की प्रक्रिया मार्च, 1991 में शुरू हुई थी. सोवियत संघ और वारसा गुट के मौजूद रहते हुए पूर्वी यूरोप में नाटो के विस्तार की बात होने का कोई मतलब ही नहीं था.
ऐसा लगता है कि या तो अमेरिका और नाटो ने अनौपचारिक रूप से विस्तार न करने का आश्वासन दिया होगा या रूसी नेताओं को लगा कि सोवियत संघ और वारसा गुट के न रहने के बाद नाटो का विस्तार नहीं होगा, क्योंकि उसकी जरूरत ही नहीं रहेगी, पर ऐसा हुआ नहीं. सोवियत गुलामी से आजाद हुए देशों के पास न सैन्य शक्ति थी और न ही आर्थिक शक्ति, लेकिन रूस महाशक्ति के रूप में मौजूद था.
इसलिए हंगरी, चैकोस्लोवाकिया और पोलैंड ने 1991 से ही नाटो के सुरक्षा कवच में शामिल होने के प्रयास शुरू कर दिये थे. यूरोप में कुछ लोग नाटो की जरूरत पर सवाल उठाने और उसे भंग करने की बातें कर रहे थे, तो दूसरी तरफ रूसी नेता रूस को भी नाटो में शामिल करने की बातें कर रहे थे. सामरिक दृष्टि से देखें, तो वारसा गुट भंग होने के बाद नाटो के बिना यूरोप की हालत सर्कस के ऐसे रिंग जैसी हो सकती थी, जिसमें बिल्ली के आकार के यूरोपीय देशों के सामने रूस जैसा दैत्याकार शेर खड़ा हो.
रूस की चिंता को दूर करने और रूस व नाटो देशों के बीच विश्वास और सुरक्षा का माहौल बनाने के लिए मई, 1997 में एक नाटो-रूस आधारशिला समझौता हुआ. इसके दो साल बाद नाटो ने सालों चली माथापच्ची के बाद मार्च, 1999 में चेक गणराज्य, हंगरी और पोलैंड को सदस्य बना लिया. इस घटना पर गोर्बाचेव ने कहा था, ‘पश्चिम के वे लोग इसे जीत मान कर खुश हो रहे हैं, जिन्होंने हमसे वादा किया था कि पूर्व की ओर एक इंच भी आगे नहीं बढ़ेंगे.’
पर अक्तूबर, 2014 में ‘कमिरसांत’ अखबार के साथ इंटरव्यू में उन्होंने यह भी माना कि, ‘नाटो के विस्तार का विषय 1989 और 1990 की वार्ताओं में कभी उठाया ही नहीं गया, 1991 में वारसा गुट के भंग हो जाने के बाद भी नहीं.’
इन बातों से लगता है कि नाटो ने औपचारिक रूप से यह वादा नहीं किया कि वह खुले दरवाजे की अपनी नीति छोड़ देगा और पूर्वी यूरोप के देशों को सदस्यता नहीं देगा, लेकिन रूसी नेताओं की जर्मनी के एकीकरण के बाद से ही यह धारणा रही है कि उन्हें ऐसा आभास दिलाया गया था. राष्ट्रपति बनने के बाद पुतिन ने इसी शिकायत को रूस की सुरक्षा का प्रश्न बना लिया, पर सामरिक शक्ति संतुलन पर नजर डालें, तो रूस नाटो देशों की तुलना में कहीं से उन्नीस नहीं बैठता.
सुरक्षा और अस्तित्व का असल खतरा तो नाटो के यूरोपीय सदस्यों को है, जिनमें हंगरी और चेकोस्लोवाकिया जैसे देश अतीत में सोवियत रूस के हमले झेल चुके हैं. रूस ने मालदोवा के ट्रांसनिस्ट्रिया पर 1992 से कब्जा कर रखा है. साल 2008 में जॉर्जिया पर हमला कर उसके दो प्रांतों में कठपुतली सरकारें बना रखी हैं. इसी तरह 2014 से यूक्रेन के दक्षिणी प्रायद्वीप क्रीमिया पर उसका कब्जा है और पूर्वी प्रांत डॉनबास में दो कठपुतली राज्य बना रखे हैं.
साल 1994 के परमाणु निरस्त्रीकरण समझौते में दी गयी सुरक्षा की गारंटी के बदले यूक्रेन से सारे परमाणु हथियार लेकर अब वह यूक्रेन के सैनिक, राजनीतिक और बुनियादी ढांचे को ध्वस्त कर रहा है. रूस से तो डर यूरोप के नाटो देशों को लगना चाहिए. नाटो का कहना है कि वह देशों की सुरक्षा का संगठन है, ठीक उसी तरह, जैसे व्यापार में अमेरिका का मुकाबला करने के लिए यूरोपीय देशों ने व्यापार संघ बनाया है. यूरोपीय संघ को अपनी व्यापारिक सुरक्षा का प्रश्न बना कर अमेरिका ने तो उस पर हमला नहीं किया! इसी तरह यूरोप के छोटे-छोटे देशों को सुरक्षा कवच देने के लिए नाटो बनाया गया था. तो फिर समस्या की जड़ क्या है?
साम्यवादी अर्थव्यवस्था के पतन के साथ रूस आर्थिक लड़ाई तो हार चुका है. वहां भी नाटो देशों की तरह ही पूंजीवादी बाजार व्यवस्था है. केवल राजनीतिक व्यवस्था और पारदर्शिता का फर्क बचा है. यूरोपीय संघ और नाटो की सदस्यता उन्हीं देशों को दी जाती है, जहां लोकशाही और पारदर्शिता हो. पुतिन को लोकशाही में अराजकता और अपनी सत्ता के लिए चुनौती नजर आती है. यही हाल शी जिनपिंग का है. यह लड़ाई सामरिक सुरक्षा की नहीं है. यह लड़ाई लोकशाही और तानाशाही की है.