रूस-यूक्रेन संघर्ष और भारतीय हित
माना जा सकता है कि नयी स्थिति में अमेरिका को भारत से जुड़ने में कहीं अधिक लाभ दिखे. उसके साथ भारत का मजबूत व्यापारिक और निवेश संबंध पहले से ही है.
रूस का यूक्रेन पर हमला शायद तुरंत खत्म नहीं होगा, हालांकि कठोर कूटनीतिक व आर्थिक पाबंदियां लगायी जा रही हैं. पाबंदियां कारगर हो रही हैं और बड़े रूसी कारोबारों पर भारी असर पड़ रहा है. इराक, अफगानिस्तान या ईरान पर पहले लगीं पाबंदियों की तुलना में इस बार उन्हें सोच-समझ कर लगाया जा रहा है.
उदाहरण के लिए, रूस में उड़ान सेवा लगभग बाधित रहेगी, क्योंकि किराये पर दिये गये जहाजों का करार तोड़ा जा सकता है या बीमा सुरक्षा को रोका जा सकता है. बड़ी संख्या में व्यावसायिक जहाज बोइंग और एयरबस कंपनियों के हैं, जो उस देश से हैं, जो पाबंदियों को असरदार बनाने में जी-जान से जुटा हुआ है.
बाहर से आनेवाले पर्यटकों की संख्या भी घटेगी. विदेशों में रूस के अरबपतियों की संपत्ति जब्त की जा रही है. स्विफ्ट प्रणाली के जरिये डॉलर में होनेवाले लेन-देन में बाधा आयेगी. रूस से निर्यात होनेवाली चीजों का कुछ विरोध या बहिष्कार होगा.
तेल और गैस का निर्यात, खास कर यूरोप को, जारी रह सकता है, पर युद्ध के जारी रहने पर उस पर भी पाबंदी लगेगी. अमेरिकी कंपनियां रूस में अपना कारोबार समेट रही हैं. यूक्रेन का प्रतिरोध भी उम्मीद से कहीं अधिक मजबूत है. रूस यूक्रेनी शहरों की घेराबंदी पर अड़ा हुआ है और शहरों पर बम बरसाने के लिए हवाई ताकत का इस्तेमाल नहीं कर रहा है.
अमेरिका अधिकतर देशों को अपने पाले में लाने में कामयाब रहा है और संयुक्त राष्ट्र में रूसी हमले की निंदा के प्रस्ताव का कई देशों ने समर्थन किया है. रूस के साथ मजबूत और पुराने रिश्तों के कारण तथा क्षेत्रीय भू-राजनीति पर असर के आकलन के आधार पर भारत जैसे देशों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया.
भारत अपने पड़ोसी नहीं चुन सकता है, पर वह ऐसे देश के मामले में संयुक्त राष्ट्र में तटस्थ रह सकता है, जिसके साथ उसके ऐतिहासिक, कूटनीतिक और सैन्य संबंध हैं. चीन ने भी मतदान में हिस्सा नहीं लिया, लेकिन उसने संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के बारे में ऐसी बातें कहीं, जो परोक्ष रूप से रूस का समर्थन है.
ऊर्जा उत्पादों की बिक्री, व्यापारिक व निवेश संबंधों पर दोनों देश परस्पर सहमत हैं, लेकिन एक अजीब स्थिति में है, क्योंकि वह किसी हमले का समर्थक होने की वैश्विक छवि नहीं बनाना चाहता है. रूस के लिए अपनी कार्रवाई को सही ठहराना या इसे अपने अधिकारों की रक्षा का मामला बना पाना मुश्किल हो सकता है.
इससे चीन की स्थिति कठिन हो गयी है, क्योंकि वह ऐसे पक्ष में नहीं दिखना चाहता है, जिसके खिलाफ अमेरिका और पश्चिमी शक्तियां एकजुट हो रही हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि आनेवाले सालों में भारत का भू-राजनीतिक रुख क्या हो सकता है. तेल की ऊंची कीमतों और निवेशकों की चिंता के कारण तात्कालिक प्रभाव तो नकारात्मक हैं.
भारत का तेल घाटा बहुत अधिक होने के साथ चालू खाता घाटा भी बहुत है, जिसे पाटने के लिए हमें निवेशकों के डॉलर की लगातार जरूरत है. मुख्य रूप से पश्चिमी निवेशकों (चीन से नहीं) के कारण तीन दशकों से यह आपूर्ति होती रही है. खाद्य सुरक्षा के मामले में भारत की स्थिति मजबूत है. संसाधनों की कमी के चलते हमारी सैन्य क्षमता चीन से बहुत कम है, लेकिन तैयारी के स्तर और भौगोलिक स्थिति से यह असंतुलन काफी हद तक कम हो जाता है.
शीत युद्ध के दौर में सोवियत संघ को रोकने के लिए अमेरिका ने चीन ने नजदीकी बढ़ायी थी. माओ से मिलने के लिए निक्सन का दौरा एक निर्णायक मोड़ था, जिसकी पहल एक पारंपरिक रूप से युद्धोन्मादी रिपब्लिकन राष्ट्रपति ने की थी. इस नजदीकी ने न केवल सोवियत संघ के खिलाफ अमेरिका की मदद की, बल्कि दोनों देशों के बीच व्यापारिक व निवेश संबंध भी मजबूत हुए.
चीनी आयात पर राष्ट्रपति ट्रंप के लगाये उच्च शुल्कों के बाद भी इनका द्विपक्षीय व्यापार करीब 800 अरब डॉलर का है और इसमें कमी का कोई संकेत नही है. सोवियत संघ के पतन के बाद नब्बे का दशक अमेरिका के लिए सुनहरा दौर था. वहां सस्ते चीनी आयात के कारण मुद्रास्फीति में कमी आयी और चीन के विशेष आर्थिक क्षेत्रों में उत्पादन संयंत्र लगाकर अमेरिकी कॉरपोरेशनों ने खूब मुनाफा कमाया.
आम तौर पर वह देंग का युग था और यह वैश्विक वित्तीय संकट तक कायम रहा. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में बहुत अधिक केंद्रीकरण, वैश्विक आक्रामकता और हेठी तथा सत्ता का सुविचारित संगठन का भाव है. यह सब इतना ज्यादा है कि अलीबाबा, टेंसेंट और दीदी जैसी बड़ी चीनी टेक कंपनियों को भी नहीं छोड़ा गया है तथा उन्हें यह अहसास कराया गया है कि असली सत्ता केंद्र कहां स्थित है. निश्चित रूप से चीन एक मजबूत आर्थिक शक्ति है और अमेरिका को उसका वर्चस्ववादी रवैया कतई मंजूर नहीं होगा.
रूस एक कमजोर होती बड़ी शक्ति है, जिसकी आबादी घट रही है और उसका आर्थिक आकार भी सिमटता जा रहा है. वह नाटो को चुनौती देता रहेगा और शायद यूक्रेन पर काबिज होने में भी वह कामयाब हो जायेगा, वैसे इसकी संभावना नहीं है. सबसे संभावित परिणाम है कि ऑस्ट्रिया या फिनलैंड की तरह यूक्रेन के निष्पक्ष रहने तथा नाटो की सदस्यता नहीं लेने की गारंटी मिल जाए, जिसकी मांग रूस की ओर से होती रही है.
लेकिन अमेरिका को जल्दी ही अधिक अहम भू-राजनीतिक समीकरणों तथा बड़े प्रतिस्पर्द्धी चीन को लेकर रणनीति के बारे में सोचना होगा. अभी तक क्वाड समूह से भारत को कोई खास फायदा नहीं मिला है, लेकिन भारत का रणनीतिक महत्व बढ़ सकता है. माना जा सकता है कि नयी स्थिति में अमेरिका को भारत से जुड़ने में कहीं अधिक लाभ दिखे. उसके साथ भारत का मजबूत व्यापारिक और निवेश संबंध पहले से ही है.
अगर घरेलू अर्थव्यवस्था में बढ़त बनी रहती है, भारत अमेरिका के लिए मजबूत चीन के बरक्स अहम हो सकता है. निक्सन और माओ की मुलाकात के पचास साल बाद हम ऐसा अमेरिका देख सकते हैं, जो भारत से अधिक सहयोग का आकांक्षी हो.
यह सब चाहे जिस प्रकार हो, भारत को इस स्थिति का सामना आर्थिक मजबूती के मुकाम से करना होगा, जो सही नीतियों, सुधारों और संस्थानिक बेहतरी से संभव है. कहा जा सकता है कि भारत एक महत्वपूर्ण स्थिति में है और अब यह उस पर निर्भर करता है कि वह सावधानी से अपनी रणनीति और सक्रियता का चयन करे.