बेहद सादगी भरा जीवन जीते थे सरदार पटेल
आजाद भारत के इतिहास से जुड़े दो अहम स्थानों क्रमश: मेटकॉफ हाउस और 1, औरंगजेब रोड के बाहर कोई शिलापट्ट लगाने की कोई कोशिश नहीं की गयी, जिससे देश की युवा पीढ़ी को सरदार पटेल की सादगी और मेटकॉफ हाउस का महत्व पता चल पाता.
वह तारीख थी 21 अप्रैल, 1947. देश को आजादी मिलने में अब कुछ ही वक्त शेष था. लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल दिन में करीब साढ़े 12 बजे अपने 1, एपीजे अब्दुल कलाम रोड (तब औरंगजेब रोड) के घर से निकले. उन्हें राजधानी के सिविल लाइंस स्थित मेटकॉफ हाउस जाना था. वहां उनका इंतजार कर रहे थे इंडियन सिविल सर्विस (आइसीएस) के अफसर. पटेल ने उन अफसरों से सुराज के महत्व पर विस्तार से चर्चा की और कहा कि उन्हें आजाद भारत में जनता के हितों को सदैव सर्वोपरि रखना होगा. उन्होंने सिविल सेवकों को भारत का स्टील फ्रेम कहा. इसका मतलब यह था कि सरकार के विभिन्न स्तरों पर कार्यरत सिविल सेवक देश की प्रशासनिक व्यवस्था के सहायक स्तंभों के रूप में कार्य करते हैं.
अफसरों से मुखातिब होने के बाद पटेल दो-ढाई कमरों के अपने आवास वापस आ गये, जहां वह अपनी पुत्री मणिबेन के साथ बेहद सादगी से रहते थे. वह दो सितंबर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी अंतरिम सरकार में शामिल होने के बाद दिल्ली आ गये थे. उस सरकार में वह गृह और सूचना विभागों को देख रहे थे. उस कैबिनेट में शामिल डॉ राजेंद्र प्रसाद, सी राजगोपालाचारी, बाबू जगजीवन राम आदि को लुटियन दिल्ली में सरकारी आवास आवंटित हुए थे. लेकिन, पटेल ने सरकारी आवास लेने से विनम्रता से इंकार कर दिया था. उनके करीब 10 नंबर के बंगले में मोहम्मद अली जिन्ना रहते थे. पटेल जिस घर में रहते थे, वह उनके मित्र बनवारी खंडेलवाल का था. उन्होंने ही पटेल से उनके घर में रहने की पेशकश की थी. इसी साधारण से घर में रहते हुए पटेल ने आजादी मिलने के बाद 562 रियासतों का भारत में विलय करवाया. उस कठिन दौर में सरदार पटेल के साथ उनके विश्वासपात्र सलाहकार वीपी मेनन रहा करते थे, जो स्वतंत्रता के बाद उनके प्रधान सचिव बनाये गये.
सरदार पटेल ने इसी घर में रहते हुए अपने सलाहकारों के साथ मिलकर हैदराबाद रियासत में पुलिस एक्शन की रणनीति बनायी थी. उस पुलिस कार्रवाई को ‘ऑपरेशन पोलो’ कहा जाता है. यह 13 सितंबर, 1948 को सुबह चार बजे शुरू हुआ. इस एक्शन के बाद हैदराबाद का भारत में विलय हुआ. स्वतंत्र भारत के पहले उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल पहले गृह, सूचना तथा रियासत विभाग के मंत्री थे. आज अगर आप कभी सरदार पटेल के घर के आगे से निकले तो यहां दिन-रात ट्रैफिक चल रहा होता है. सड़क के दोनों तरफ लगे घने और बुजुर्ग नीम, इमली और जामुन के पेड़ों के पीछे उनका घर दिखाई दे जाता है.
दिल्ली में रहते हुए सरदार पटेल महात्मा गांधी से लगातार जरूरी मसलों पर सलाह लेने के लिए मिला करते थे. वह उस मनहूस 30 जनवरी 1948 को गांधी जी से मिलने वाले संभवत: अंतिम शख्स थे. वह गांधी जी से मिलने शाम करीब साढ़े चार-पौने पांच बजे के आसपास 5, तीस जनवरी मार्ग (पहले अल्बुकर्क रोड) पर पहुंचे. वह सीधे गांधी जी के कक्ष में चले गये. तब गांधी जी की सर्वधर्म प्रार्थना सभा का समय होने वाला था, जो शाम पांच बजे शुरू हो जाती थी. आकाशवाणी के लिए उनकी सभा की रिकॉर्डिंग करने वाले श्री केडी मदान भी पहुंच गये थे. मदान साहब बताते थे- ‘गांधी जी जब बिड़ला हाउस से प्रार्थना सभा में शामिल होने के लिए निकले तब मेरी घड़ी के हिसाब से 5.16 मिनट का वक्त था. हालांकि ये कहा जाता है कि 5.17 बजे उन पर गोली चली. उस दिन बापू से मिलने सरदार पटेल आये थे.’ खैर, ये रहस्य ही रहा कि सरदार पटेल उस दिन गांधी जी से किस विषय पर बात करने आये थे.
बहरहाल, अफसोस होता है कि आजाद भारत के इतिहास से जुड़े दो अहम स्थानों क्रमश: मेटकॉफ हाउस और 1, औरंगजेब रोड के बाहर कोई शिलापट्ट लगाने की कोई कोशिश नहीं की गयी, जिससे देश की युवा पीढ़ी को सरदार पटेल की सादगी और मेटकॉफ हाउस का महत्व पता चल पाता. सरदार पटेल की 15 दिसंबर, 1950 में मृत्यु के बाद भी किसी सरकार ने दिल्ली में उनका कोई स्मारक बनाने की चेष्टा नहीं की. यह हैरानी की बात है कि राजधानी में सरदार पटेल जैसी बुलंद शख्सियत का कोई स्मारक नहीं है. यहां पर गांधी जी, पंडित नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, बाबा साहेब अंबेडकर, बाबू जगजीवन राम आदि के स्मारक बन सकते थे, तो सरदार पटेल का स्मारक क्यों नहीं बनाया गया. यह अपने आप में सवाल है. क्या ये काम देर से ही सही, अब नहीं हो सकता?
(ये लेखक के निजी विचार हैं)