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गंगा को तारने के लिए आगे आने की जरूरत

Save Ganga : जब गंगा, यमुना से संबंधित कोई भी बात उठे, तो उसे मात्र किसी सरकारी योजना के दायित्व के नजरिये से नहीं देखना चाहिए. अब इस सवाल के लिए कोई ज्यादा जगह नहीं है कि फिर किसे इसका जिम्मेदार माना जाए.

Save Ganga : एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) की हालिया रपट बताती है कि गंगा अपने स्रोत, यानी कि गंगोत्री से ही सीवेज को झेलना शुरू करती है. इसी कारण आज यह इतनी मैली हो चुकी है कि अब इसका पानी आचमन करने के योग्य भी नहीं रहा है. हम इसे लेकर ज्यादा पीछे नहीं जाते हैं. अभी की ही बात करते हैं. हाल ही में छठ पूजा समाप्त हुई है और उस दौरान दिल्ली के यमुना को आचमन के योग्य मानना तो दूर, इसके उलट उसे घातक माना गया.

गंगा की रक्षा हमारा दायित्व

जब गंगा, यमुना से संबंधित कोई भी बात उठे, तो उसे मात्र किसी सरकारी योजना के दायित्व के नजरिये से नहीं देखना चाहिए. अब इस सवाल के लिए कोई ज्यादा जगह नहीं है कि फिर किसे इसका जिम्मेदार माना जाए. सरल शब्दों में कहें, तो जिस गंगा से 65 करोड़ लोग जुड़े हैं, उसकी शुद्धता और सुरक्षा को मात्र एक योजना के माध्यम से कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है? दरअसल, हमने यह मान लिया है कि गंगा या पर्यावरण की रक्षा करना किसी सरकारी योजना या विभाग का ही दायित्व है. इस कारण हमने अपने हिस्से के दायित्व से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया है. हमें इस बात से कोई मतलब ही नहीं है कि गंगा में सीवेज मिल रहा है और वह मैली हो रही है. वही गंगा, जिसे हम मां मानते हैं और जिसकी पूजा करते हैं.


गंगा, जो 2500 किलोमीटर की यात्रा में उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों से होकर गुजरती है, वह इन सभी क्षेत्रों की जीवन रेखा भी है. इन राज्यों में अलग-अलग सरकारें हैं और उनकी अलग-अलग नीतियां हैं, जो गंगा पर प्रभाव डालती हैं. परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राज्य अलग-अलग हो सकते हैं, उनकी नीतियां अलग-अलग हो सकती हैं, लेकिन नदी और उसकी पवित्रता एक ही है. यह नदी लोगों की आस्था और मान्यता से जुड़ी है और इस लिहाज से यह सबकी है.

प्रकृति के संसाधनों का संरक्षण जरूरी

इसके साथ यह भी कि, यह तो नियम भी है कि जिसे भोगना है, उसे जोड़ना भी चाहिए. परंतु क्या हम इस नियम को मान रहे हैं, या उसे मानने को तैयार हैं? यदि हम अपने अंदर झांक कर देखें, तो सच बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि हमें गंगा की परवाह ही नहीं है. हम उससे जुड़े ही नहीं हैं. हमें एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि नदियों या पर्यावरण के प्रति हमारी जिम्मेदारी को यदि हम केवल योजनाओं के साथ जोड़ कर देखेंगे, तो हम उस दायित्व से कतरा जायेंगे, जो प्रकृति के प्रति हमारे भीतर होना चाहिए. जो भी प्रकृति का उपभोग करेगा, उसे उसका संरक्षण भी करना होगा. लेकिन हमने प्रकृति के संसाधनों का केवल उपभोग किया है, उनका संरक्षण नहीं किया है. और मजे की बात यह है कि हमने इसकी सारी जिम्मेदारी सरकारों पर डाल दी और स्वयं निश्चिंत हो गये कि गंगा की स्वच्छता का दायित्व सरकारों का है, सो उन्हें ही उसके लिए सारा प्रयास करना है.

गंगा में प्रतिदिन करीब 12 बिलियन लीटर सीवेज आता है


अगर हम पिछले तीन दशकों में पर्यावरण संरक्षण के प्रति गंभीरता से कदम उठाने के प्रयासों पर एक नजर डालें, तो पायेंगे कि कई सरकारी योजनाएं तो बनीं, पर वे धरातल पर कितनी उतरीं, यह एक बड़ा सवाल बना रहा है. गंगा के संदर्भ में भी यही स्थिति है. अगर 65 करोड़ लोग इस नदी से जुड़े हैं, तो यह कैसे माना जा सकता है कि केवल एक सरकार या एक योजना इसे पूरी तरह स्वच्छ करने में सफल हो सकती है? इसे साफ करना उन लोगों की जिम्मेदारी के तहत नहीं आता, जो इससे जुड़े हुए हैं? गंगा में प्रतिदिन करीब 12 बिलियन लीटर सीवेज आता है, और इसमें भी 110 गंगा फ्रंट टाउन से अकेले 3558 एमएलडी सीवेज निकलता है. जबकि हमारी ट्रीटमेंट कैपेसिटी केवल 2589 मिलियन लीटर है. इसका सीधा अर्थ यह है कि हमारी चुनौतियां कम नहीं हुई हैं, बल्कि अभी भी बनी हुई हैं.

उत्तर प्रदेश में एसटीपी प्लांट्स की कैपेसिटी लगभग 2298 मिलियन लीटर है, और सीवेज 3000 मिलियन लीटर से ऊपर है. यह भी सच है कि आने वाले समय में जनसंख्या के बढ़ते दबाव के साथ यह समस्या और बढ़ेगी. गंगा के प्रवाह क्षेत्र में औसत जनसंख्या घनत्व 520 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है, जबकि आदर्श घनत्व 312 होना चाहिए. ऐसे में, बढ़ती जनसंख्या निश्चित रूप से गंगा के प्रदूषण को और बढ़ायेगी. सो उसे स्वच्छ बनाने की चुनौती भी बढ़ती जायेगी.
दरअसल, गंगोत्री से निकली गंगा अपने रास्ते में कई शहरों और गांवों का कचरा भी साथ लेती हुई आगे बढ़ती है. हर वर्ष लाखों लोग केदारनाथ, बद्रीनाथ और गंगोत्री की यात्रा करते हैं, जिससे अतिरिक्त सीवेज भी उत्पन्न होता है.

योजनाओं के भरोसे साफ नहीं हो सकती गंगा

ऐसे में हमें इस सच को स्वीकारना ही होगा कि केवल एसटीपी या योजनाओं के भरोसे गंगा को स्वच्छ नहीं किया जा सकता है. गंगा के पवित्र होने के लिए आवश्यक है कि हर व्यक्ति और समुदाय गंगा के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझे. उसकी स्वच्छता को अपना कर्तव्य माने. उसके लिए पहल करे. हमें इस वास्तविकता को भी स्वीकारना होगा कि पहले गंगा में डुबकी लगाने से मोक्ष की प्राप्ति होती थी, परंतु आज हमें गंगा को ही उस मैलेपन से तारना पड़ेगा जो हमने ही उसे दिया है.


अब यह कैसे संभव होगा यह एक बड़ा सवाल है और यह अनुत्तरित भी है. तो इसका उत्तर भी हमें ही तलाशना होगा. ऐसा नहीं है कि गंगा को स्वच्छ बनाना, उसमें समाये हुए कचरे को हटाना संभव नहीं है. यदि हम ठान लें और ईमानदारी से प्रयास करें, तो ऐसा संभव हो सकता है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया की कई ऐसी नदियां है जो इसलिए साफ हैं, क्योंकि वहां इनसे लोग जुड़े हुए हैं और वहां कोई भी नदियों को केवल मां कह कर औपचारिकता नहीं निभाता है. बल्कि वे नदियों को सच में मां मान कर उनकी सेवा करते हैं.

मतलब साफ है, गंगा का मैला होना हमारे मैले चरित्र को दर्शाता है. यह बताता है कि हमारी कथनी और करनी में फर्क है. हम गंगा को मां तो मानते हैं, उसकी पवित्रता की कसम तो खाते हैं, पर उसे साफ करने को लेकर अपने दायित्व से बचते हैं. हम उससे जुड़ते नहीं हैं. या यूं कहें कि हम गंगा की सफाई को अपना दायित्व ही नहीं मानते. जिस दिन हमारे भीतर गंगा समेत तमाम नदियों को लेकर दायित्व बोध उत्पन्न हो जायेगा, उसी दिन हम इसकी स्वच्छता को लेकर गंभीर हो जायेंगे और इसके लिए प्रयास करना भी शुरू कर देंगे.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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